जीवन के अनुभवों पर, मेरे मन के उद्घोषित शब्दों की अभिव्यक्ति है - कविता "जीवन कलश"। यूं, जीवन की राहों में, हर पल छूटता जाता है, इक-इक लम्हा। वो फिर न मिलते हैं, कहीं दोबारा ! कभी वो ही, अपना बनाकर, विस्मित कर जाते हैं! चुनता रहता हूँ मैं, उन लम्हों को और संजो रखता हूँ यहाँ! वही लम्हा, फिर कभी सुकून संग जीने को मन करता है, तो ये, अलग ही रंग भर देती हैं, जीवन में। "वैसे, हाथों से बिखरे पल, वापस कब आते हैं! " आइए, महसूस कीजिए, आपकी ही जीवन से जुड़े, कुछ गुजरे हुए पहलुओं को। (सर्वाधिकार सुरक्षित)
Sunday, 14 October 2018
मत कर इतने सवाल
कुछ तो रखा कर, अपने चेहरे का ख्याल......
मत कर, इतने सवाल!
ये उम्र है, ढ़लती जाएगी!
हर शै, चेहरों पर रेखाएँ अंकित कर जाएंगी,
छा जाएगा वक्त का मकरजाल!
मत कर इतने सवाल.....!
समय की, है ये मनमानी!
बेरहम समय ये, किस शै की इसने है मानी?
रेखाओं के ये बुन जाएगा जाल!
मत कर इतने सवाल.....!
बदलेगा, ये वक्त भी कभी!
डगर इक नई, अपनी ही चल देगा ये कभी!
वक्त की थमती नही कहीँ चाल!
मत कर इतने सवाल.....!
ले ऐनक, तू बैठा हाथों में!
रंग कई, नित भरता है तू अपनी आँखों में!
उम्र के रंगों का क्या होगा हाल?
मत कर इतने सवाल.....!
झुर्रियाँ, ले आएंगी ये उम्र!
इक राह वही, अन्तिम चुन लाएगी ये उम्र!
क्यूँ पलते मन में इतने मलाल?
मत कर इतने सवाल.....!
कुछ तो रखा कर, अपने चेहरे का ख्याल......
मत कर, इतने सवाल!
मत कर, इतने सवाल!
ये उम्र है, ढ़लती जाएगी!
हर शै, चेहरों पर रेखाएँ अंकित कर जाएंगी,
छा जाएगा वक्त का मकरजाल!
मत कर इतने सवाल.....!
समय की, है ये मनमानी!
बेरहम समय ये, किस शै की इसने है मानी?
रेखाओं के ये बुन जाएगा जाल!
मत कर इतने सवाल.....!
बदलेगा, ये वक्त भी कभी!
डगर इक नई, अपनी ही चल देगा ये कभी!
वक्त की थमती नही कहीँ चाल!
मत कर इतने सवाल.....!
ले ऐनक, तू बैठा हाथों में!
रंग कई, नित भरता है तू अपनी आँखों में!
उम्र के रंगों का क्या होगा हाल?
मत कर इतने सवाल.....!
झुर्रियाँ, ले आएंगी ये उम्र!
इक राह वही, अन्तिम चुन लाएगी ये उम्र!
क्यूँ पलते मन में इतने मलाल?
मत कर इतने सवाल.....!
कुछ तो रखा कर, अपने चेहरे का ख्याल......
मत कर, इतने सवाल!
Saturday, 13 October 2018
ठहरी सी रात
ठहरी है क्यूँ ये रात यहीं .....
क्या मेरे ही संग, नीरवता का मन भरा नहीं?
हर क्षण, संग रही मेरे क्षणदा,
खेल कौन सा, जो संग मेरे इसने ना खेला!
ऊब चुका मैं, क्षणदा थकती ही नहीं,
आँगन मेरे ही है ये क्यूँ रुकी?
ठहरी है क्यूँ ये रात यहीं .....
क्या मेरे ही संग, नीरवता का मन भरा नहीं?
नभ के तारे, ढ़ल चुके हैं सारे,
वो डग भरती, निकल पड़ी घर को कौमुदी!
झांक रहा, वो क्षितिज से अंशुमाली,
क्यूँ बैठी है मेरे घर विभावरी?
ठहरी है क्यूँ ये रात यहीं .....
क्या मेरे ही संग, नीरवता का मन भरा नहीं?
मुझको ही, तू जाने दे विभावरी!
कुछ क्षण को, मै भी तो देखूँ वो प्रभाकिरण!
भर लूँ नैनों में, थोड़ी सी वो जुन्हाई,
देखूँ दिनकर की वो अंगड़ाई?
ठहरी है क्यूँ ये रात यहीं .....
क्या मेरे ही संग, नीरवता का मन भरा नहीं?
.............................................................
अर्थ:-
विभावरी, क्षणदा, नीरवता : - रात्रि, रात
जुन्हाई, कौमुदी : - चाँदनी
अंशुमाली, दिनकर : - सूर्य
क्या मेरे ही संग, नीरवता का मन भरा नहीं?
हर क्षण, संग रही मेरे क्षणदा,
खेल कौन सा, जो संग मेरे इसने ना खेला!
ऊब चुका मैं, क्षणदा थकती ही नहीं,
आँगन मेरे ही है ये क्यूँ रुकी?
ठहरी है क्यूँ ये रात यहीं .....
क्या मेरे ही संग, नीरवता का मन भरा नहीं?
नभ के तारे, ढ़ल चुके हैं सारे,
वो डग भरती, निकल पड़ी घर को कौमुदी!
झांक रहा, वो क्षितिज से अंशुमाली,
क्यूँ बैठी है मेरे घर विभावरी?
ठहरी है क्यूँ ये रात यहीं .....
क्या मेरे ही संग, नीरवता का मन भरा नहीं?
मुझको ही, तू जाने दे विभावरी!
कुछ क्षण को, मै भी तो देखूँ वो प्रभाकिरण!
भर लूँ नैनों में, थोड़ी सी वो जुन्हाई,
देखूँ दिनकर की वो अंगड़ाई?
ठहरी है क्यूँ ये रात यहीं .....
क्या मेरे ही संग, नीरवता का मन भरा नहीं?
.............................................................
अर्थ:-
विभावरी, क्षणदा, नीरवता : - रात्रि, रात
जुन्हाई, कौमुदी : - चाँदनी
अंशुमाली, दिनकर : - सूर्य
Wednesday, 10 October 2018
अब कहाँ वो कहकशाँ
वो कहकशाँ, वो कदमों के निशां अब है कहाँ....
न जाने, गुजरा है अब कहाँ वो कारवां,
धूल है हर तरफ,
फ़िज़ाओ में पिघला सा है धुआँ.....
गुजर चुके है जो, वक्त की तेज धार में,
वो रुके है याद में,
वो शाम-ओ-शहर अब हैं कहाँ.....
कभी जो कहते थे, दुनिया बसाऊंगा मै,
रातें सजाऊंगा मैं,
वो ही सूनी कर गए हैं बस्तियां.....
भिगोती थी कभी, कहकहों की बारिशें,
चुप है वो फुहारें,
है वीरान सा अब वो कहकशाँ......
न जाने, गुजरा है अब कहाँ वो कारवां,
धूल है हर तरफ,
फ़िज़ाओ में पिघला सा है धुआँ.....
गुजर चुके है जो, वक्त की तेज धार में,
वो रुके है याद में,
वो शाम-ओ-शहर अब हैं कहाँ.....
कभी जो कहते थे, दुनिया बसाऊंगा मै,
रातें सजाऊंगा मैं,
वो ही सूनी कर गए हैं बस्तियां.....
भिगोती थी कभी, कहकहों की बारिशें,
चुप है वो फुहारें,
है वीरान सा अब वो कहकशाँ......
अब ढ़ूंढता हूँ, फिर वही शाम-ओ-शहर,
वो रास्ते दर-बदर,
मिट चुके है जो कदमों के निशां.....
वो कहकशाँ, वो कदमों के निशां अब है कहाँ....
Sunday, 7 October 2018
ख्याल - धूरी के गिर्द
जागृत सा इक ख्याल और सौ-सौ सवाल.....
हवाओं में उन्मुक्त,
किसी विचरते हुए प॔छी की तरह,
परन्तु, रेखांकित इक परिधि के भीतर,
धूरी के इर्द-गिर्द,
जागृत सा भटकता इक ख्याल!
इक वक्रिय पथ पर,
केन्द्राभिमुख फिरता हो रथ पर,
अभिकेन्द्रिय बल से होकर आकर्षित,
उस धूरी की ओर,
उन्मुख होता रहता इक ख्याल!
जागे से ये हैं सपने,
ये ख्याल कहाँ है अपने वश में,
ख़्वाहिशें हजार दफ़न हैं सवालों में,
धूरी की आश में,
सवालों में पिसता इक ख़्याल!
जागृत सा इक ख्याल और सौ-सौ सवाल.....
हवाओं में उन्मुक्त,
किसी विचरते हुए प॔छी की तरह,
परन्तु, रेखांकित इक परिधि के भीतर,
धूरी के इर्द-गिर्द,
जागृत सा भटकता इक ख्याल!
इक वक्रिय पथ पर,
केन्द्राभिमुख फिरता हो रथ पर,
अभिकेन्द्रिय बल से होकर आकर्षित,
उस धूरी की ओर,
उन्मुख होता रहता इक ख्याल!
जागे से ये हैं सपने,
ये ख्याल कहाँ है अपने वश में,
ख़्वाहिशें हजार दफ़न हैं सवालों में,
धूरी की आश में,
सवालों में पिसता इक ख़्याल!
जागृत सा इक ख्याल और सौ-सौ सवाल.....
Saturday, 6 October 2018
संवेदनाएं
क्यूँ मेरा उर विचलित होता है?
ग़ैरों की मन के संताप में,
क्यूँ मेरा मन विलाप करता है?
औरों के विरह अश्रुपात में,
बरबस यूँ ही क्यूँ....
द्रवित हो जाती हैं ये मेरी आँखें.....
परेशाँ करती है मुझको मेरी संवेदना!
संवेदनशीलता ही मुझको करती है आहत!
सिवा तड़प के पाता ही क्या है मन?
क्यूँ रोऊँ मैं औरों के गम में,
क्यूँ ढ़ोऊँ मैं बेवजह के ये सदमें,
बरबस यूँ ही क्यूँ.....
भीगे तन्हाई में ऐसे ये मेरी आँखें...
आहत मुझको ही क्यूँ कर जाते है?
संताप भरे वो पलक्षिण,
उन नैनों के श्रावित कण,
मेरे ही हृदय क्यूँ प्रतिश्राव दिए जाते हैं,
विमुख क्यूँ ना हो पाता हूँ मैं,
बरबस यूँ ही क्यूँ....
छलक सी जाती है ये मेरी आँखें....
सिवा तड़प के पाता ही क्या है मन?
काश! पत्थर सा होता ये मन,
न ही आहत करती मुझको ये संवेदनाएं,
भावुक झण भर भी ना ये होता,
पाता राहत की कुछ साँसें,
बरबस ही न यूं....
सैलाब सी उफनती ये मेरी आँखें......
Thursday, 4 October 2018
निशाचर अखियाँ
कैसे कटे रतियाँ,
निशाचर सी हुई है दो अखियाँ....
ये नैन! जागे है सारी रैन,
करे ये अठखेलियां,
दबे पाँव चले, यहीं पलकों तले,
छुप-छुप, न जाने,
ये किस किस से मिले?
टुकर-टुकर ताके ये सारी रतियाँ,
निशाचर सी दो अखियाँ.....
ये निशा प्रहर भई दुष्कर,
न माने ये बतियां!
संग रैन चले, न ये निशा ढ़ले,
दिशा-दिशा भटके,
न ही नैनो में नींद पले,
उलझाए कर के उलझी बतियाँ,
निशाचर सी दो अखियाँ.....
ये नैन! पाये न क्यूँ चैन?
कटे कैसे रतियाँ?
राह कठिन, ये हर बार चले,
बोझिल सी पलकें,
रुक रुक अब हार चले,
जिद में जागी ये सारी रतियाँ,
निशाचर सी दो अखियाँ.....
कैसे कटे रतियाँ,
निशाचर सी हुई है दो अखियाँ....
निशाचर सी हुई है दो अखियाँ....
ये नैन! जागे है सारी रैन,
करे ये अठखेलियां,
दबे पाँव चले, यहीं पलकों तले,
छुप-छुप, न जाने,
ये किस किस से मिले?
टुकर-टुकर ताके ये सारी रतियाँ,
निशाचर सी दो अखियाँ.....
ये निशा प्रहर भई दुष्कर,
न माने ये बतियां!
संग रैन चले, न ये निशा ढ़ले,
दिशा-दिशा भटके,
न ही नैनो में नींद पले,
उलझाए कर के उलझी बतियाँ,
निशाचर सी दो अखियाँ.....
ये नैन! पाये न क्यूँ चैन?
कटे कैसे रतियाँ?
राह कठिन, ये हर बार चले,
बोझिल सी पलकें,
रुक रुक अब हार चले,
जिद में जागी ये सारी रतियाँ,
निशाचर सी दो अखियाँ.....
कैसे कटे रतियाँ,
निशाचर सी हुई है दो अखियाँ....
Subscribe to:
Posts (Atom)