मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं!
थी कितनी हरजाई!
बीती, जब जीवन की अमराई,
मंद पड़ी, जब जीवन की जुन्हाई,
पास कहीं ना, वो दिखती थी,
शायद, वो थी अब घबराई!
मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं!
थी कितनी हरजाई!
शायद वो थी, बस इक हरजाई!
कदमों की लय पर, वो चलती थी,
धूप ढ़ले, बस वो भी ढ़लती थी,
इन, बाहों में, कब आई?
मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं!
थी कितनी हरजाई!
ता-उम्र, साथ रही मेरी परछाईं,
थी फिर भी, मेरे हिस्से ही तन्हाई,
गुमसुम, बस चुप वो रहती थी,
पीड़ मेरी, वो पढ़ ना पाई!
मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं!
थी कितनी हरजाई!
मुझ बिन, कैसे झेलेगी तन्हाई?
कौन कहेगा, चल ऐ मेरी परछाई,
पीड़ वही, अब वो भी झेलेगी,
कल तक, थी जो इतराई!
मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं!
थी कितनी हरजाई!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)