Tuesday, 9 August 2022

दो दिन जीवन


शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

पा लेने को, है उन्मुक्त गगन,
है छू लेने को, उम्मीदों के कितने घन!
खुला-खुला, उद्दीप्त ये आंगन,
बुलाता, ये सीमा-विहीन क्षितिज,
भर आलिंगन!

शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

जितना सौम्य, उतना सम्यक,
रहस्यमयी उतनी ही, यह दृष्टि-फलक!
धारे रूप कई, बदले रंग कई!
हर रूप अनोखा, हर रंग सुरमई,
और मनभावन!

शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

पर अंजाना आने वाला क्षण!
ना जाने कौन सा पल, है कितना भारी!
किस पल, बढ़ जाए लाचारी!
ना जाने, ले आए, कौन सा पल,
अन्तिम क्षण!

शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

समेट लूँ, जो शेष है जीवन!
भर लूँ दामन में, कर लूँ इक आलिंगन!
कंपित हो, सुसुप्त धड़कन!
जागृत रहे, किसी की वेदना में,
ये हृदयांगण!

शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 7 August 2022

कोरी कल्पना


रहना हो, तो ‌‌‌‌‌‌‌रह जाना,
मेरी स्वप्निल कल्पनाओं के, उन्मुक्त आकाश में,
और, रोज मिलना!

चल देते हो, तुम, ऐसे,
जैसे, दिन ढ़ले, ढ़ल जाते हैं असंख्य तारे,
खुल जाते हैं, आकाश के, दो किनारे,
यूं ठहरते हो, कब!

ठहर जाओ कुछ ऐसे,
जैसे, गहराते हैं, मेंहदी के रंग, हौले-हौले,
बहती ये नदियाँ, ज्यूं, सागर को छूले,
और, निखर जाए!

सब दरवाजे, हैं खुले,
रिक्त सारे, कल्पनाओं के ये उन्मुक्त झूले,
खाली सा, आकाश का सारा दामन,
जरा, सँवर जाए!

रहना हो, तो ‌रह जाना,
मेरी स्वप्निल कल्पनाओं के, उन्मुक्त आकाश में,
क्या, रह सकोगे सदा?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 5 August 2022

संवेदना


जगाएगी, उम्र भर,
इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!
ये संवेदना!

संवेदनाओं से विमुख, रहा कौन?
बस चीर जाती है हृदय, किसी का मौन!
तड़पा जाती है, चेतना,
यूं चुभोती इक कसक, मन के आंगना,
जगाएगी, उम्र भर, 
ये संवेदना!

इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!

गर न हो, तेरा, हृदय एक पाषाण,
शर्म हो, खुद को कहलाने में एक इन्सान,
सो ना चुकी हो, चेतना,
बींध जाएगी, मन को, किसी की वेदना,
जगाएगी, उम्र भर, 
ये संवेदना!

इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!

गर सुन सको, तुम, उनकी चीखें,
आह, किसी की, आ तेरे कदमों को रोके,
पड़े, यूं नींद से जागना,
अन्त:करण, देने लगे तुझको उलाहना,
जगाएगी, उम्र भर, 
ये संवेदना!

इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!

जगाएगी, उम्र भर,
इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!
ये संवेदना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 3 August 2022

काश


धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

काश, वो एहसास, सुखद न होते इतने,
काश, लगते, इतने न वो अपने,
काश, आते न वो सपने,
यूं दूर बैठी, सिमटी वो परछाईं,
याद बहुत आई!

धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

काश, कुम्भला जाते ये खिले एहसास,
काश, न आते, वो मन को रास,
काश, यूं भूल जाते हम,
वो बदली, बरस भी न जो पाई,
याद बहुत आई!

धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

काश, छू न लेती यूं परछाइयाँ हमको,
काश, यूं न बांधती यहां हमको,
काश, बहती न, ये पवन,
कह गई जो, वही इक कहानी,
याद बहुत आई!

धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 2 August 2022

आहट


घुल रही है, यूं फिजा में आहट किसी की ....

हर तरफ, एक धुंधली सी नमीं,
भीगी-भीगी, सी ज़मीं,
हैं नभ पर बिखेरे, किसी ने आंचल,
और बज उठे हैं, गीत छलछल,
हर तरफ इक रागिनी!

घुल रही है, यूं फिजा में आहट किसी की ....

पल-पल, धड़कता है, वो घन,
कांप उठता, है ये मन,
झपक जाती हैं, पलकें यूं चौंक कर,
ज्यूं, खड़ा कोई, राहें रोककर,
अजब सी, दीवानगी!

घुल रही है, यूं फिजा में आहट किसी की ....

हो न हो, ये सरगम, है उसी की,
है मद्धम, राग जिसकी,
सुरों में, सुरीली है आवाज जिसकी,
छेड़ जाते हैं, जो सितार मन के,
कर दूं कैसे अनसुनी?

घुल रही है, यूं फिजा में आहट किसी की ....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 27 July 2022

खानाबदोश


मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे,
कितने ख्वाब, कितने अरमां, कितनी हसरतें,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

करता भी क्या, पंख लगे थे पैरों पर,
मुड़ जाता भी कैसे, मजबूरी हर कदमों पर,
रहा देखता, कभी, यूं रुक-रुक कर,
बहते राहों के, उन साहिल पर,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे...

अनसुनी, संवेदनाओं की सिसकियां,
अनकहे जज्बातों की, बिसरी सब गलियां,
पुकारती हैं कभी, अनुगूंज बनकर,
रोकते कहीं, टूटे वादों के गूंज,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे...

धीर धरे कैसे, और, आए कैसे होश,
वश के बाहर, बेवश सा इक खानाबदोश,
बना लेता, भंगुर, अरमानों का ठांव,
ढूंढता, उन्हीं हसरतों का छांव,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे,
कितने ख्वाब, कितने अरमां, कितनी हसरतें,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 24 July 2022

एकाकी ही भला


एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

गम, जो दे जाते हैं, वो मन के बंधन,
क्यूँ, बांध रहे, मुझसे हर क्षण,
ये गीत, न वो गाएंगे,
सर्वदा, मन को न तेरे बहलाएंगे,
न रखना, कोई गिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

गम न, इक और, ले पाऊंगा सर्वथा,
रह न पाऊंगा, यूं संग सर्वदा,
न रख, यादों में कहीं,
रखना, पर, बीती बातों में कहीं,
जैसे कोई, कहीं मिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

क्यूं ठहर जाऊं, आंगन में किसी के,
क्यूं बना लूं, घर इक कहीं पे,
रेत जैसे हैं ख्वाब ये,
प्यास नजरों को हो, गर, दो घूंट,
अपनी, आंसू के पिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

हो बेहतर, रख ले मन पे एक पत्थर,
मत मांग, प्रश्नों के कोई उत्तर,
जो, हल न हो पाएंगे,
वो अन्तर्मन को और बींध जाएंगे,
यूं होगा, किसका भला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

उड़ा मत, आसमां पर, पंछी चाह के,
कल, रख न पाओगे बांध के,
वो, छल ही जाएंगे,
टूटे बांध जो, वो कल बंध न पाएंगे,
यूं होगा, खुद से गिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  ‌‌ (सर्वाधिकार सुरक्षित)