Friday, 24 January 2025

माँ अब कहां

माँ सा, वो रूप अब कहां!
गुम हो चली, दृष्टि ममत्व भरी,
खामोश, वृष्टि सरस भरी,
इक कुनकुनी सी, 
वो, नर्म धूप अब कहां!

वो क्षितिज, खामोश सा,
अब ना, रंग कोई बिखराएगा,
गीत ना, कोई गाएगा,
खोई, मध्य कहीं उन तारों के,
सलोनी, वो रूप कहां!

गहरी है, कितनी ये रात,
जैसे, हर ओर, बिछी बिसात,
धुआं सा, हर तरफ,
प्रशस्त, कहां अब कोई पथ,
राहें, रौशन अब कहां!
हम, उन नैनों के तारे,
कौन दिशा, हम तुम्हें पुकारें,
अनसुनी, हर आवाज,
कौन सुने, टूटे मन के साज,
ममता की छांव कहां!

टटोल ले जो मन को,
पढ़ ले, इस अन्तःकरण को,
जान ले, सब अनकहा,
समझ ले, मन का हर गढा,
ऐसा कोई भान कहां!

जग देता ढ़ाढ़स झूठा,
मन कहता, मुझसे रब रूठा,
क्रूर बना, यह काल,
अनुत्तरित, मेरा हर सवाल,
वश में यह पल कहां!

वश चलता, छीन लेता,
इन हाथों से, पल बींध देता,
रख लेता, "माँ" को,
बदले में, सब कुछ दे देता,
पर ये, आसान कहां!

माँ सा, वो रूप अब कहां!
गुम हो चली, दृष्टि ममत्व भरी,
खामोश, वृष्टि सरस भरी,
इक कुनकुनी सी, 
वो, नर्म धूप अब कहां!

माँ को नमन.....

Wednesday, 18 December 2024

अजनबी


अजनबी शाम, अजनबी नमीं,
संग ले चला, मुझे, न जाने कहीं,
या, चल पड़ी है शायद ज़मीं!

बुन रहा, धुन कोई उधेड़-बुन,
गढ़ रही पहेली, वो कोई गूढ़ सी,
अंत ना, इन क्षणों का कोई!

गुज़र रही, कंपकपाती पवन,
सिहर उठी, ठिठुरती हरेक कण,
कह गई, बात क्या इक नई!

छू गई अंतस्थ, मर्म जज्बात,
नर्म सी छुअन, गर्म से एहसास,
चुभन इक, जागी फिर नई!

चीर गया, पल सन्नाटों भरा,
वो अजनबी, गूंज इक भर गया,
धुन, इक अनसुनी गीत सी!

पल-पल, बड़ी बेसबर घड़ी,
कर गई मुग्ध सी, झूमती लड़ी,
अवाक, ताकते हम यूं ही!

अजनबी शाम, अजनबी नमीं,
संग ले चला, मुझे, न जाने कहीं,
चल पड़ी है शायद ज़मीं!

Wednesday, 27 November 2024

करें यकीं कैसे


जला गई हो, रौशनी ही जिसे,
वो करे, यकीं कैसे?

लिए आस, बुझते रहे जलते पल कई,
सदियां, यूं पल में समाती रही,
छलते ये पल,
वो करे, यकीं कैसे?

यूं सुलगते, बंजर मन के ये घास-पात,
उलझते, खुद ही खुद जज्बात,
जगाए रात,
वो करे, यकीं कैसे?

छनकर बादलों से, यूं गुजरी इक सदा,
ज्यूं भूला, अंधियारों का पता,
मन तू बता,
वो करे, यकीं कैसे?

जलाते रहे, ताउम्र रौशन कई एहसास,
जकरते, फिर वो ही अंकपाश,
बुलाए पास,
वो करे, यकीं कैसे?

जला गई हो, रौशनी ही जिसे,
वो करे, यकीं कैसे?

Sunday, 10 November 2024

दफ्न


अधीर मन, सुने कहां!
नित छेड़े, दफ्न कोई दास्तां.....

कारवां सी, बहती ये नदी,
अक्श, बहा ले जाती,
बह जाती, सदी,
बहते कहां, सिल पे बने निशां,
बहते कहां, दास्तां!

अधीर मन, सुने कहां....

लगे दफ्न सी, कहीं दास्तां,
ज्यूं, ओझल कहकशां,
रुकी सी कारवां,
चल पड़े हों, जगकर सब निशां,
सुनाते इक, दास्तां!

अधीर मन, सुने कहां.....

खींच लाए, फिर उसी तीर,
बहे जहां, धार अधीर,
जगाए, सोेए पीर,
जगाए सारे, दफ्न से हुए निशां,
सुनाए वही, दास्तां!

अधीर मन, सुने कहां....

पर न अब, उस ओर जाएंगे,
जरा उसे भी समझाएंगे,
सोचूं, नित यही,
पर, कब सुने मन जिद पे अड़ा,
सुनाए वही, दास्तां!

अधीर मन, सुने कहां!
नित छेड़े, दफ्न कोई दास्तां.....

Tuesday, 5 November 2024

कसर

गुजरते मंजर के सारे निशां, सर-बसर,
बस रही, इक तेरी कसर!

बहती हवा, कहती रही तेरा ही पता,
ढ़लती किरण, उकेरती गई तेरे ही निशां,
यूं उभरते तस्वीर सारे, सर-बसर,
बस रही, इक तेरी कसर!

कब हुआ खाली, पटल आसमां का,
उभर आते अक्श, यूं गुजरते बादलों से,
छुपकर झांकते नजारे, सर-बसर,
बस रही, इक तेरी कसर!

टूटे पात, लगे पतझड़ से ये जज्बात,
बहते नैन, इस निर्झर में पलते कब चैन,
निर्झर सी ये जज्बातें, सर-बसर,
बस रही, इक तेरी कसर!

गुजरते मंजर के सारे निशां, सर-बसर,
बस रही, इक तेरी कसर!

Sunday, 27 October 2024

वो

वो हैं मंजिल, वो हैं शामिल रास्तों में,
पर ढूंढ़ती, उनको ही नजर,
धूप की, तिलमिल, करवटों में,
रंगी सांझ की, झिलमिल सी आहटों में,
वक्त की, धूमिल सी सिलवटों में,
घुल चले जो कहीं!

क्षितिज के उतरते, सीढ़ियों पर,
पसरते, दिन तले,
बिखरते हैं जब, ख्यालों के उजले सवेरे,
नर्म, एहसासों को समेटे,
ढूंढ़ता हूं मैं,
ओस की, उन सूखती बूंदोंं को,
उड़ चले जो, कहीं!

गहराते, रात के, ये घनेरे दामन,
सिमटता सा, पल,
पंख फैलाए, विस्तृत खुला सा आंगन,
देता रहा, कोई निमंत्रण,
पर वो किधर,
ढूंढ़ती, हर ओर उनको नजर,
छुप चले जो कहीं!

वो हैं मंजिल, वो हैं शामिल रास्तों में,
हर फिक्र में, वो हैं शामिल,
जिक्र, दिल की हर धड़कनों में,
बनकर एक खुश्बू, बह रहे, गुलशनों में,
बंद पलकों की, इन चिलमनों में,
बस चले जो कहीं!

Monday, 21 October 2024

दो पल


बहला गया, पल कोई, दो पल,
कुछ समझा गया, 
मन को!

वो सपना, बस इक सपन सलोना,
पर लगता, वो जागा सा!
बंधा, इक धागा सा,
संजो लेना,
अधीर ना होना, ना खोना,
मन को!

बहला गया, पल कोई, दो पल,
कुछ समझा गया, 
मन को!

पर जागे से ये पल, जागे उच्छ्वास,
जागी, उनींदी सी ये पलकें,
सोए, कैसे एहसास?
पिरोए रखना,
धीरज के, उन धागों ‌से,
मन को!

बहला गया, पल कोई, दो पल,
कुछ समझा गया, 
मन को!