Sunday, 10 April 2016

लब्जों मे बयाँ

लब्जों में बयाँ जो हम कर न सके,
अल्फाज वो ही दिलों में दबी रह गई,
वो फसाना बहुत खूबसूरत सा था,
बात गुजरे जमाने की अब वो हो गई।

वो अल्हड़ सी उनकी नादानियाँ,
शब्दों में लिखी जैसे अनकही कहानियाँ,
लब्जों पे रुकी लहर सी कहीं,
अब गुनगुनाती हुई कोई गजल बन गईं।

जुल्फ खुल के कभी लहराए थे,
खुली गेसुओं में कुछ धुंधले से साये भी थे,
सीरत-ए-बयाँ ये लब्ज कर न सके,
वो लहराते से मंजर अब यादों में बस गईं।

छलके नैनों में अब अक्श एक ही,
उन खुले नैनों में उभरी है इक तस्वीर वही,
नीर नैनों के लब्जों पे बह न सके,
वो छलकते से नैन अब जाम में ढ़ल गई।

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