Thursday 8 June 2017

कुछ और दूरियाँ

अंततः चले जाना है हमें, इस जहाँ से कहीं दूर,
शाश्वत सत्य व नि:शब्द चिरशांति के पार,
उजालों से परिपूर्ण होगी वो अन्जानी सी जगह,
चाह की चादर लपेटे धूलनिर्मित इस देह को बस,
चलते हुए कुछ और दूरियाँ करनी है तय।

अंततः लिपट जाना है हमें, धू-धू जलती आग में,
धुआँ बन उड़ जाना है नील गगन के पार,
छोड़ कर तन, कर भाग्य मोह पाश को खंडित,
मन गगन को इस अग्निपथ पर साथ लेकर बस,
चलते हुए कुछ और दूरियाँ करनी है तय।

अंततः मिल जाना है हमें, अग्निरंजित मृत जरा में,
सारगर्भित बसुंधरा के कण-कण के पार,
सज सँवर काल के गतिमान रथ पर हो आरूढ,
उस लोक तक की दूरियाँ, मैं तय करूँगा बस,
चलते हुए कुछ और दूरियाँ करनी है तय।

अंततः बिखर जाना है हमें, परमेश्वरीय आलोक में,
होकर अकिंचन, चाह, ऐश्वर्य, वैभव के पार,
न रहेगा भाग्य संचित, न ही होगी कोई चाह किंचित,
न दुख होगा, न तो सुख, न ही कोई आह, बस,
चलते हुए कुछ और दूरियाँ करनी है तय।

अंततः टूट छोटे से कणों में, लाल लपटों से धुएँ में,
नैनों के नीर रंजित से अरु अश्रुओं के पार,
भावनाओं के सब बांध तोड़ ओस बन कर गिरूंगा,
फिर बिखर कर यहीं चहुंओर मैं महकूँगा, बस,
चलते हुए कुछ और दूरियाँ करनी है तय।

Sunday 28 May 2017

प्रेम के कल्पवृक्ष

ऐ नैसर्गिक प्रेम के मृदुल एहसास,
फैल जाओ तुम फिर इन धमनियों में रक्त की तरह,
फिर लेकर आओ वही मधुमास,
के देखूँ जिधर भी मैं दिशाओं में मुड़कर,
वात्सल्य हो, सहिष्णुता हो, हर आँखों मे हो विश्वास,
लोभ, द्वेश, क्लेश, वासना, तृष्णा का मन जले,
कण-कण में हो सिर्फ प्रेम का वास.....

प्रेम ...!
न जाने कितनी ही बार,दुहराया गया है यह शब्द,
कितनी बार रची गई है कविता,
कितनी बार लिखा गया है इतिहास ढाई आखर का
जिसमें सिमट गई है....
पूरी दुनिया, पूरा ब्रह्माँड, पूरा देवत्व,
रचयिता तब ही रच पाया होगा इक कल्पित स्वर्ग...

अब ...! प्रेम वात्सल्य यहीं कहीं गुम-सुम पड़ा है,
पाषाण से हो चुके दिलों में,
संकुचित से हो चुके गुजरते पलों में,
इन आपा-धापी भरे निरंकुश से चंगुलों में,
ध्वस्त कर रचयिता की कल्पना, रचा है हमने नर्क...

सुनो..! चाहता हूँ मैं फिर लगाऊँ वात्सल्य के कल्पवृक्ष,
ठीक वैसे ही जैसे....
समुद्र के बीच से जगती है ढेह सी लहरें
बादलों की छाती से फूट पड़ते है असंख्य बौछारें
शाम की धुली अलसाई हवा कर जाती है रूमानी बातें,
अचानक सूखते सोते भर जाते हैं लबालब....

क्युँ न ..!
एक बार फिर से रक्त की तरह हमारे धमनियों में,
दौड़ जाए प्रेम की नदी !
और खिल जाएँ प्रेम के कल्पवृक्ष.....

Saturday 27 May 2017

कोरी सी कल्पना

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

कविताओं में मैने उसको हरपल विस्तार दिया,
मन की भावों से इक रूप साकार किया,
हृदय की तारों से मैने उसको स्वीकार किया,
अभिलाषा इक अपूर्ण सा मैने अंगीकार किया...

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

कभी यूँ ही मुलुर मुलुर तकते मुझको वो दो नैन,
वो प्रखर से शब्द मुझको करते हैं बेचैन,
फिर मूक वधिर बन कभी लूटते मन का चैन,
व्यथा में बीतते ये पल, न कटते ये दिन न ये रैन.....

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

कभी निर्झरणी सी बह गई वो नैनों से अश्रुधार बन,
स्तब्ध मौन रही कभी नील गगन बन,
या रिमझिम बारिश सी भिगो गई तन्हा ये मन,
खलिश है ये कोई, या है ये कई जन्मों का बंधन.....

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

Friday 26 May 2017

मदान्ध

होकर मदान्ध सौंदर्य में, तू क्यों इतना इतराए रे....

ऐ पुष्प तू है कोमल, तू है इतनी स्निग्ध,
गिरी टूटकर जो शाखाओ से, है तेरा बचना संदिग्ध,
हो विकसित नव प्रभात में, संध्या तू कुम्हलाए रे,
चटकीली रंगों पर फिर क्युँ इतना इठलाए रे।

होकर मदान्ध सौंदर्य में, तू क्यों इतना इतराए रे....

वो देखो पंखुड़ियों के, बिखरे है अवशेष,
तल्लीन होकर जरा तू पढ़ ले, है इनमें कुछ सन्देश,
शालीन प्रारम्भ के अंतस्थ ही तो अंत समाया रे,
क्षणभंगुर उपलब्धि पर क्युँ इतना इठलाए रे।

होकर मदान्ध सौंदर्य में तू क्यों इतना इतराए रे....

अस्त होते ही दिनकर,जीवन होगा व्यतीत,
किन्तु कहना इस अंतराल में तुम्हे कैसा हुआ प्रतीत,
अलिदल का गूंज बृथा था, जिसने गंध चुराया रे,
सप्तदल इक मृषा था फिर तू क्यूँ इठलाए रे।

होकर मदान्ध सौंदर्य में तू क्यों इतना इतराए रे....

Tuesday 23 May 2017

यादों के परदेश से

जब शाम ढली, इक नर्म सी हवा चली,
अभिलाषा की इक नन्ही कली फिर से मन मे खिली,
जाने कैसे मन यादों में बहक गया,
सिसकी भरते अन्तर्मन का अंतर्घट तक रीत गया,
तेरी यादों का ये मौसम, तन्हा ही बीत गया....

तब जेठ हुई, इक गर्म सी हवा चली,
झुलसी मन के भीतर ही अभिलाषा की वो नन्ही कली,
जाने कैसे ये प्यासा तन दहक गया,
पर उनकी सांसो की आहट से ये सूनापन महक गया,
यादों का ये मौसम, शरद चांदनी सा चहक गया....

आस जगी, जब बर्फ सी जमी मिली,
फिर धड़कन में मुस्काई अभिलाषा की वो नन्ही कली,
जाने कैसे ये सुप्तहृदय प्रखर हुआ,
विकल प्राण विहग के गीतों से अम्बर तक गूंज गया,
यादों के परदेश से लौटा, मन का जो मीत गया....

Tuesday 16 May 2017

भूल चुका था मैं

भूल सा चुका था मैं, न गया था मैं मुड़कर उन्हे देखने...

किताबों में दबी उन सूखी सी पत्तियों को...
वर्जनाओं की झूठी सी परत में दबी उन बंदिशों को,
समय की धूल खा चुकी मृत ख्वाहिशों को,
क्षण भर को मन में हूक उठाती अभिलाषाओं को.....
वो ख़्वाब, उम्मीद, तमन्नाएँ, ताल्लुक, रिश्ते, सपने,
भूल सा चुका था मैं, न गया था मैं मुड़कर उन्हे देखने...

कभी सहेजकर जिसे रख दी थी यथावत मैने,
वो चंद अपूरित तिलमिलाती सी झंकृत ख्वाहिशें,
वो खुली आँखो से देखे मेरे जागृत से सपने,
वो कुछ सोई सी दिल में पलती हुई अधूरी हसरतें,
वो क्षणिक कंपित सी संकुचित हो चुकी अभिलाषाएँ,
वो ख़्वाब, उम्मीद, तमन्नाएँ, ताल्लुक, रिश्ते, सपने,
फिर न जाने क्यूँ ये मुझे देखकर लगे हैं हँसने....
भूल सा चुका था मैं, न गया था मैं मुड़कर उन्हे देखने...

सोचता हूँ मैं, शायद मै तो था ही इक मूरख,
उन अभिलाषाओं का बना ही क्यूँ मैं अनुगामी?
गर लग जाती मुझको पहले ये खबर.....कि,
ये ख़्वाब, उम्मीद, तमन्नाएँ, ताल्लुक, रिश्ते, सपने,
जान ले लेते हैं आख़िर ये सारे जीने के सहारे,
मुस्कुराते हैं ये अक्सर नयन में अश्रुबिन्दु छिपाए,
टीस देकर अंतर्मन को ये हरपल सताए,
तो, न सहेजता कभी मैं उन पत्तियो को किताबों में....

भूल सा चुका था मैं, न गया था मैं मुड़कर उन्हे देखने...

Sunday 14 May 2017

पति की नजर से इक माँ

इक झलक पति की नजर से पत्नी में समाई "माँ"......

कहता है ये मन, स्नेहिल सी माँ है वो बस इक प्रेयसी नहीं,
है इक कोरी सी कल्पना, या है वो इक ममता की छाँव..

वो खूबसूरत से दो हाथ, वो कोमल से दो पाँव,
वो ऊँगलियों पर बसा मेंहदी का इक छोटा सा गाँव,
है वो इक धूप की सुनहरी सी झिलमिल झलक,
या है वो लताओं से लिपटी, बरगद की घनेरी सी छाँव...

कहता है ये मन, वो महज इक कोरी सी कल्पना नहीं,
वो तन, वो मन है इक पीपल की भीनी सी छाँव....

निखरी है मेंहदी, उन हथेलियों पर बिखरकर,
खुश हैं वो कितनी, उन पंखुरी उँगलियों को सजाकर,
ऐ मेरे व्याकुल से मन, तू भी रह जा उनके गाँव,
यूँ ही कुछ पल जो बिखरेगा, क्षण भर को पाएगा ठाँव...

कहता है ये मन, वो है इक कोमल सा हृदय निष्ठुर नहीं,
है किसी सहृदय के हाथों का यह मृदुल स्पर्शाभाव...

14 मई, मातृ दिवस पर विशेष....

Saturday 13 May 2017

कोणार्क

लो मैं चली कोणार्क, हूँ मैं अपने साजन की दुल्हन....
ओ री बहकती चिलचिलाती लहकती सी किरण,
है ये कोणार्क, न बढा अपनी ये तपिश अपनी ये जलन,
कर दे जरा छाँव, मिटे तन की ये दहकती सी तपन,
ओ री सुलगती तपतपाती दहकती सी किरण....

आज यूँ न तू जल मुझसे, आ जा सहेली तू मेरी बन,
कर जरा छाँव घनी, दूर जा बैठा है मेरा साजन,
है ये कोणार्क, तू घटा अपनी तपिश अपनी ये जलन,
तू जा कह जरा उनसे, फिर न वापस आएगी ये छुअन,
ओ री सुलगती तपतपाती दहकती सी किरण....

लो मैं चली कोणार्क, हूँ मैं अपने साजन की दुल्हन....
संस्मरण 11 मई 2017
रचयिता :    अनु