Sunday 28 May 2017

प्रेम के कल्पवृक्ष

ऐ नैसर्गिक प्रेम के मृदुल एहसास,
फैल जाओ तुम फिर इन धमनियों में रक्त की तरह,
फिर लेकर आओ वही मधुमास,
के देखूँ जिधर भी मैं दिशाओं में मुड़कर,
वात्सल्य हो, सहिष्णुता हो, हर आँखों मे हो विश्वास,
लोभ, द्वेश, क्लेश, वासना, तृष्णा का मन जले,
कण-कण में हो सिर्फ प्रेम का वास.....

प्रेम ...!
न जाने कितनी ही बार,दुहराया गया है यह शब्द,
कितनी बार रची गई है कविता,
कितनी बार लिखा गया है इतिहास ढाई आखर का
जिसमें सिमट गई है....
पूरी दुनिया, पूरा ब्रह्माँड, पूरा देवत्व,
रचयिता तब ही रच पाया होगा इक कल्पित स्वर्ग...

अब ...! प्रेम वात्सल्य यहीं कहीं गुम-सुम पड़ा है,
पाषाण से हो चुके दिलों में,
संकुचित से हो चुके गुजरते पलों में,
इन आपा-धापी भरे निरंकुश से चंगुलों में,
ध्वस्त कर रचयिता की कल्पना, रचा है हमने नर्क...

सुनो..! चाहता हूँ मैं फिर लगाऊँ वात्सल्य के कल्पवृक्ष,
ठीक वैसे ही जैसे....
समुद्र के बीच से जगती है ढेह सी लहरें
बादलों की छाती से फूट पड़ते है असंख्य बौछारें
शाम की धुली अलसाई हवा कर जाती है रूमानी बातें,
अचानक सूखते सोते भर जाते हैं लबालब....

क्युँ न ..!
एक बार फिर से रक्त की तरह हमारे धमनियों में,
दौड़ जाए प्रेम की नदी !
और खिल जाएँ प्रेम के कल्पवृक्ष.....

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