Wednesday 13 January 2016

अधूरा स्वप्न

बिखरे थे राहों में कुछ फूलों जैसे शय,
दुर्दशा देख द्रवित हो रूंध उठा हृदय,
हुई विह्वल आँखें मन को बांधु तो कैसे,
भाव प्रवण दामन मे समेट लिया ऐसे।

बसा लिया उस फूल को फिर हमने,
हृदय के अन्दर सुदूर कोने में कहीं,
महसूस हुआ स्पर्श उन फूलों सा ही,
व्यथा उसके मन की है अब मेरी ही।

भ्रम टूटा जब चुभन काँटो की हुई,
उसकी भी अपनी कोई आपबीती,
भूत के गर्त से निकल समक्ष आई,
सपन मृदु टूटे आँखे विह्वल हो आईं।

मृदुलता के कुछ क्षण साथ हमने थे बाँटे,
चुपके से दामन मे चुभ गए थे कुछ काँटे,
संशय भ्रम उन स्वप्नों के पर अब हैं छूटे,
क्या हुआ जब दिल किसी बात पर टूटे।

हाथों की रेखाएँ

चकित भाव से रह-रह वो देखता,
हाथों को रेखाओं को और सोचता,
क्या वश में है मेरी भाग्य रेखा?
क्या आज शेष बची है जीवन रेखा?

रेखाएँ मस्तिस्क की भी होती हाथों मे,
हृदय रेखा भी कुछ आरी-टेढ़ी,
फिकर कहाँ हृदय, मस्तिस्क रेखा की,
मति मस्तिस्क की खुद ही है खोई,
क्या देख पाएगा वो मस्तिस्क की रेखा?

वो वश करना चाहता रेखाओं में,
व्योम के तारे, वसुधा के सारे धन,
पर फिकर कहाँ मन के तम की,
मन तो खुद ही स्वप्न मे खोया,
क्या तोड़ बंध बना सकेगा प्रभा रेखा?

भाग्य,जीवन गर करना हो वश मे,
ज्योति वृत्त बना पथ वश में करो तुम,
चलो जहाँ मन, मस्तिस्क, प्राण चलते हैं,
संकल्प करो सोए मस्तिष्क जगा तुम,
क्या वश कर सकेगा तू जीवन भाग्य रेखा?

Tuesday 12 January 2016

टूटते संबंध

संबंध आपसी विश्वास और समर्पण की मजबूत नींव पर प्रगाढ होते और बढ़ते है। एहसास, जज्बात, संवेदना इन्हें और मजबूत बनाते हैं। समर्पण समय की मांग करता है और निजी उपलब्धियों की कु्र्बानी भी।

विश्वास पनपते है एहसासों के दामन मे, संवेदनाओं की कोख मे विश्वास छुपा होता है। जब एहसास और संवेदनाए मर चुकी हों, तब विश्वास की उम्मीद भी नही दिखती।

आज की अँधी दौर में इन्सान की मंजिल जीवन में कुछ हासिल कर लेना है सिर्फ, जज्बात और संवेदनाएँ दिखावे के है मात्र। अपने सहकर्मी को हम झूठी तसल्ली या झूठे दिखावे के अभिवादन कर बनावटी हसी दिखा देना मात्र संवेदना नही है।

निजी जीवन के निजी संबंध इन झूठे एहसासों से कही अधिक संवेदनशील होते हैं। 

हमारी जीवन में कुछ पाने की चाह में जब हम निजी संबंधों को कुचलने लगते है तब ये संबंध स्वतः ही मर जाते हैं, कहीं कोई शोर-शराबा नही होता, बस आत्मा मर जाती है एक।

संबंध शायद इन्ही वजहों से टूटते हैं। आज की असफल निजी पारिवारिक संबंथों के पीछे यही है शायद। मन की कराह पीड़ा रातों को हमे जगने पर मजबूर करते है।

दिल ढूंढता वो अफसाना

वो इक अफसाना,
सदियों से हृदय मे अंकित,
दिल की वादियों मे फूलों सा लहराता,
तेरी स्पर्श का मीठा अहसास देता,
सुकून मिल जाता।

लगता है जैसे,
कल की ही बात है अभी,
यादों की दृष्टिपटल पर उभर आता,
पलकें मूँद फिर मन को सहलाता,
सुकून मिल जाता।

दिल फिर ढूंढता,
वही हसरतों के खूबसूरत पल,
बेपरवाह हँसी, मधुमय बातों के सिलसिले,
मन की गुफाओं मे कैद वो अफसाना,
दिल को बेचैन कर जाता।

वो इक खूबसूरत अफसाना,
सदियों से दिल की वादियों मे लहराता।

Monday 11 January 2016

ठहरा हुआ पल

पल जो इक ठहर गया,
सिलसिले थम से गए,
मिलने जुलने और बातों के,
रास्ते गुम हुए कोहरो की धुंध में,
तुफान थम गए हसरतों के,
वक्त ठहर सा गया है यहीं,
उस पल की तानाइयों मे।

यादों के धुंधले से कारवाँ,
नजरों से गुजरती झीनी परदों सी,
उस पल की भीनी खुशबु,
अब भी फैल जाती है सासों मे,
जम सी जाती हंदयस्पंदन,
गति धड़कनों की थमी,
वक्त ठहर सा गया है कहीं,
उन पल की अमराइयों मे।

मंद बयार चल पडे थे उस पल,
बहक से गए जो तुमको छुकर,
अब तक बह रही ख्यालों में,
सप्तरंग घुले दिल की फजाओं में,
जेहन में बिखर गहरा गए है वो,
अटखेलियाँ उन लम्हों की
महफूज है दिल के कोने मे,
संगमरमर के मूरत की तरह,
वक्त ठहर सा गया है,
उस पल की अंगराइयों मे।

वो यतीम बच्चा

वो दूधपीता बच्चा,
वह छोटा मासूम सा,
नन्हीं टांगों से बेपरवाह,
अटखेलियाँ करता,
स्टेशन के दूसरे किनारे पर,
आती जाती ट्रेन को देख,
कभी थोड़ा खुश हो जाता,
फिर अगले ही पल,
निगांहे इधर उधर दौड़ाता,
फिर भूख से बिलख पड़ता।

तेज घूप चेहरे पर पड़ती
परेशान हो जाता वो,
भूख-प्यास की
तड़प बढ जाती,
अंदर तक उसे सता जाती,
शायद ममता की छांव
से बहुत दूर था वो,
सहसा अंधेरे में एक कदम देख,
चेहरा खिल सा उठा उसका,
आँखों में चमक आ गई,
तभी एक साए ने उसे गोद मे ले
सीने से लगा लिया।

मैंने सोचा शायद वो,
काम मे कहीं अटकी होगी,
पर ये क्या? मंजर बदल गया!
अगले ही कुछ पलों मे,
आँखें पोछती वो वापस जा चुकी थी!

भिखारियों के एक झुंड ने मोहवश,
उस बच्चे को गोद ले लिया,
उत्सुकतावश मैंने
उस बच्चे के बारे में पूछा,
जवाब मिला, "यतीम भाई है अपना"
मैं सन्न सा सोचता रह गया ।

प्रभात आभा

झांक रहा है सूरज दूर मुंडेड़ से पहाड़ के,
रंग पीला और गुलाबी आसमां पे डाल के।

बादलों में बिखेर जाती रश्मि प्रभा सतरंगी,
रूप सवाँरती धरा का देकर छटा अठरंगी।

सौन्दर्य आकाश के सँवारती विविध रंगों से,
मानो खेल रहा होली वो बादल के अंगो से।

हिमगिरि के शीष पे बिखर गई है किरण,
छिटक गई बर्फ की वादियों पर बन स्वर्ण।

कलियों ने स्वागत मे खोल दिए घूँघट सोपान,
कलरव करती पंछियों ने छेड़े हैं स्वागत गान।

ऐसी मधुर प्रभात की आभा मै भी निहार लूँ,
संग मेरे तू आ सजनी, प्रीत का नव हार लूँ।

Sunday 10 January 2016

इक नया आसमा

इक नया आसमाँ नित इक नई मंजिल,
पाना चाहते बेखबर ये दो दिल बार-बार,
अनोखा इक नया गीत, मधुरतम इक नई संगीत,
धड़कनों के धड़कने की अनोखी इक नई रीत,
सुनाना चाहते दुनिया को ये दो दिल हर बार।

जैसे लहरें समुन्दर की झूम कर आती साहिल पर,
टूटकर बिखर जाती दामन में इसके बार-बार,
छेड़ जाती धुन एक नई प्यार की,
रूप अनोखा दे, करती फिर नया इक वादा,
लौट आऊंगा मचल फिर करने प्यार हर बार।

जैसे सूरज रोज आता बादलों के पीछे से,
रंग वसुधा को दे करता इजहारे प्यार बार-बार,
जलाता तपिश से उसे रंग मे अपनी रंग लेता,
लौट जाता फिर कर इक नया वादा,
रोज आऊंगा देने तुझे इक नई तपिश हर बार।

जैसे हवाएँ रोज आती पेड़ों के दामन में,
पत्तियों को छू करती प्यार का इजहार बार-बार,
झकझोर जाती शाखों को सरसराहट से,
गुजरती कोर से करती रोज इक नया वादा,
सँवर-निखर तू आऊँगा छेड़ने तुझको हर बार।

प्यार का इक नया आसमाँ पाना चाहते ये दो दिल।

इन्द्रधनुष: धुन और रंग

सोंचता हूँ कभी!

किसने सीमित की?
जीवन के विविध धुनों को,
सात अारोह-अवरोह के स्वरो.....
सा, रे, ग, म, प, ध नी, सा,....में,
किसने कोशिश की जीवन धुन को 
परिमित करने की?
जीवन के धुन तो हैं अपरिमित,
संभव नही कर पाना,
इनकी जटिलताओं को सीमित!

सोंचता हूँ कभी!

किसने सीमित की
जीवन के विविध रंगों को,
इन्द्रधनुष के सात रंगों......
बै, नी, आ, ह, पी, ना, ला....,में,
किसने कोशिश की जीवन रंग को 
सीमित करने की?
जीवन के रंग तो हैं असीमित,
संभव नही कर पाना,
इनकी विविधताओं को सीमित!

सोंचता हूँ कभी! जीवन के रंग, धुन तो हैं अनंत!

दर्द की दास्तान

चौराहे पर गाड़ियों की कतार में,
रुकी मेरी कार के शीशे से,
फिर झांकती वही उदास आँखें!

जानें कितनी कहानियाँ,
हैं उन आँखो मे समाई,
कितने दर्द उन लबों पर सिले,
चेहरों की अनगिनत झुर्रियों मे,
असंख्य दु:ख के पलों के एहसास समेटे,
झुकी हुई कमर दुनिया भर के बोझ से दबी,
तन पर मैले फटे से कपड़े,
मुश्किल से बदन ढकने को काफी,
हाथों मे लाठी का सहारा लिए,
किसी तरह कटोरा पकड़े,
कहती, "कुछ दे दो बाबू"!

तभी हरी सिग्नल देख,
चल पड़ती गाड़ियों के कारवाँ,
मैं भौचक्का सा!
उसे देखता रह जाता!
फिर पीछे से तेज हार्न में,
मैं भी आगे बढ़ जाने को विवश!

पर मन में उठते कई प्रश्न,
क्या इंसान की कीमत सिर्फ इतनी?
क्या अभाव मे बुजुर्ग हो जाना है गुनाह?
क्या हम इतने भावविहीन हो चुके है?
समाज के प्रति हमारी संवेदना कहाँ है?
क्या मेरा व्यक्तिगत प्रयास काफी होगा?

सोचता मैं बढ़ जाता आगे,
पर अगले चौराहे पर देखता,
झांकती फिर वैसी ही उदास आँखें!
जीवन के दर्द की दूसरी दास्तान समेटे!
फफक-फफक कर रो पड़ता मन,
उनकी मदद कर पाने में,
खुद को असह्य अक्षम पाकर।