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Saturday 24 August 2019

धुंध

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

दबी सी आहटों में, आपका आना,
फिर यूँ, कहीं खो जाना,
इक शमाँ बन, रात का मुस्कुराना,
पिघलते मोम सा, गुम कहीं हो जाना,
भर-भरा कर, बुझी राख सा,
आगोश में कहीं,
बिखर जाना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

अक्श बन कर, आईने में ढ़लना,
रूप यूँ, पल में बदलना,
पलकों तले, इक धुंध सा छाना,
टपक कर बूँद सा, आँखों में आना,
टिम-टिमा कर, सितारों सा,
निगाहों में कहीं,
विलुप्त होना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

दिवा-स्वप्न सा, हर रोज छलना,
संग यूँ, कुछ दूर चलना,
उन्हीं राह में, कहीं बिछड़ना,
विरह के गीत में, यूँ ही ढ़ल जाना,
निकल कर, उस रेत सा,
इन हाथों से कहीं,
फिसल जाना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 27 July 2019

झूले

ऐसे न थे, पहले कभी, सावन के ये झूले!

अब तो उम्र ढ़ली,
बूँदों में पली, फिर भी सावन ये जली,
है भीगी सी, ये नजर
बस, सूने से हैं, दिल के मंज़र,
क्यूं, हो तुम भूले,
सजन, बूूंदों के है मेले!
पर, चुपचुप से हैं, सावन के ये झूले!

न जाने वो तितली,
इक पल को मिली, कहीं उड़ चली,
है भीगी सी, ये नजर,
बस, सूखे से है, मन के शहर,
क्यूं, यादों के तले,
ये सावन, ये सांझ ढ़ले!
पर, चुपचुप से हैं, सावन के ये झूले!

सांझें, हैं ये धुंधली,
हैं थके से कदम, साँसें हैं उथली,
है भींगा सा, ये मंजर,
बस, हैं रूठे, सपनों के नगर,
क्यूं, वादों के तले,
भीगे से, ये बारात चले!
पर, चुपचुप से हैं, सावन के ये झूले!

ऐसे न थे, पहले कभी, सावन के ये झूले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 25 May 2019

अधूरे ख्वाब

सत्य था, या झूठ था, तलाश बस वो एक था,
द्वन्द के धार मे, नाव बस एक था,
वही प्रवाह है, वही दोआब है....

संदली राह, मखमली चाह, मदभरी निगाह है,
अनबुझ सी, वही इक प्यास है,
अधूरा सा है, वही ख्वाब है...

बुन लाता ख्वाब सारे, चुन लाता मैं वही तारे,
बस, स्याह रातों सा हिजाब है,
बवंडर सा है, इक सैलाब है...

यूँ ही रहे गर्दिशों में, बेरहम वक्त के रंजिशो में,
उभरते से रहे, वो ही तस्वीरों में,
एक अक्श है, वही निगाह है....

जल जाते हैं वो, जुगनुओं सा चिराग बनकर,
उभर आते हैं, कोई याद बन कर,
एक जख्म है, वही रिसाव है...

वक्त के इस मझधार में, पतवार बस एक था,
उफनती धार में, नाव बस एक था,
वो ही भँवर है, वही प्रवाह है....

सत्य था, या झूठ था, तलाश बस वो एक था,
द्वन्द के धार मे, नाव बस एक था,
वही प्रवाह है, वही दोआब है....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा