ऐसे न थे, पहले कभी, सावन के ये झूले!
अब तो उम्र ढ़ली,
बूँदों में पली, फिर भी सावन ये जली,
है भीगी सी, ये नजर
अब तो उम्र ढ़ली,
बूँदों में पली, फिर भी सावन ये जली,
है भीगी सी, ये नजर
बस, सूने से हैं, दिल के मंज़र,
क्यूं, हो तुम भूले,
सजन, बूूंदों के है मेले!
सजन, बूूंदों के है मेले!
पर, चुपचुप से हैं, सावन के ये झूले!
न जाने वो तितली,
इक पल को मिली, कहीं उड़ चली,
है भीगी सी, ये नजर,
बस, सूखे से है, मन के शहर,
क्यूं, यादों के तले,
ये सावन, ये सांझ ढ़ले!
पर, चुपचुप से हैं, सावन के ये झूले!
सांझें, हैं ये धुंधली,
हैं थके से कदम, साँसें हैं उथली,
है भींगा सा, ये मंजर,
बस, हैं रूठे, सपनों के नगर,
क्यूं, वादों के तले,
भीगे से, ये बारात चले!
न जाने वो तितली,
इक पल को मिली, कहीं उड़ चली,
है भीगी सी, ये नजर,
बस, सूखे से है, मन के शहर,
क्यूं, यादों के तले,
ये सावन, ये सांझ ढ़ले!
पर, चुपचुप से हैं, सावन के ये झूले!
सांझें, हैं ये धुंधली,
हैं थके से कदम, साँसें हैं उथली,
है भींगा सा, ये मंजर,
बस, हैं रूठे, सपनों के नगर,
क्यूं, वादों के तले,
भीगे से, ये बारात चले!
पर, चुपचुप से हैं, सावन के ये झूले!
ऐसे न थे, पहले कभी, सावन के ये झूले!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
ऐसे न थे, पहले कभी, सावन के ये झूले!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
सांझें, हैं ये धुंधली,
ReplyDeleteहैं थके से कदम, साँसें हैं उथली,
है भींगा सा, ये मंजर,
बस, हैं रूठे, सपनों के नगर,
क्यूं, वादों के तले,
भीगे से, ये बारात चले!
पर, चुपचुप से हैं, सावन के ये झूले!
बहुत ही मर्मस्पर्शी सृजन आदरणीय पुरुषोत्तम जी !!!!!
जीवन से गम हुए हरियाले सावन की मधुर यादों को अब मन कैसे और कहाँ पाए ? सुंदर भावपूर्ण रचना आपके अपने अंदाज वाली | सादर
आभारी हूँ आदरणीया रेणु जी।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (29-07-2019) को "दिल की महफ़िल" (चर्चा अंक- 3411) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ।
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