चंचल सी ये बूंदें,
सिमटी हैं अब घन बनकर,
नभ पर निखरी हैं ये,
अपनी चंचलता तजकर,
धरा पर बिछ जाने को,
हैं अब ये बूँदे आतुर,
उमर पड़े है अब घन,
चंचलता उन बूंदो से लेकर।
बह चली मंद सलिल,
पूरबैयों के झौंके बनकर,
किरण पड़ी है निस्तेज,
घन की जटाओं में घिरकर,
ढ़क चुके हैं भाल,
विशाल पर्वत के अभिमानी शिखर,
घनेरी सी घन की,
घनपाश भुजाओं में घिरकर।
बूँदे हो रहीं अब मुखर,
शनैः शनैः घन लगी गरजने,
धुलकर बिखरे हैं नभ के काजल,
बारिश की बूंदों में ढ़लकर,
बिखरी हैं बूँदे, धरा पर अब टूटकर,
कण-कण ने किया है श्रृंगार,
चंचल बूंदों की संगत पाकर।
सिमटी हैं अब घन बनकर,
नभ पर निखरी हैं ये,
अपनी चंचलता तजकर,
धरा पर बिछ जाने को,
हैं अब ये बूँदे आतुर,
उमर पड़े है अब घन,
चंचलता उन बूंदो से लेकर।
बह चली मंद सलिल,
पूरबैयों के झौंके बनकर,
किरण पड़ी है निस्तेज,
घन की जटाओं में घिरकर,
ढ़क चुके हैं भाल,
विशाल पर्वत के अभिमानी शिखर,
घनेरी सी घन की,
घनपाश भुजाओं में घिरकर।
बूँदे हो रहीं अब मुखर,
शनैः शनैः घन लगी गरजने,
धुलकर बिखरे हैं नभ के काजल,
बारिश की बूंदों में ढ़लकर,
बिखरी हैं बूँदे, धरा पर अब टूटकर,
कण-कण ने किया है श्रृंगार,
चंचल बूंदों की संगत पाकर।
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