अन्तर्मन हुई थी, हलकी सी चुभन!
कटते भी कैसे, विछोह के हजार क्षण?
हर क्षण, मन की पर्वतों का स्खलन!
सोच-कर ही, कंपित सा था मन!
पर कहीं दूर, नहीं हैं वो किसी क्षण!
कण-कण, हर शै, में हैं उन्हीं के स्पंदन!
पाजेब उन्हीं के, यूँ बजते है छन-छन,
छू कर गुजरते हैं, वो ही हर-क्षण!
बदलते मौसमों में, हैं उनके ही रंग,
यूँ ही कुहुकुनी , कुहुकती न अकारण,
यूँ व्याकुल पंछियाँ, करती न चारण,
यूँ न कलियाँ, चटकती अकारण!
स्पन्दित है सारे, आसमान के तारे,
यूँ ही लहराते न बादल, आँचल पसारे,
यूँ हीं छुपते न चाँद, बादल किनारे,
कटते भी कैसे, विछोह के हजार क्षण?
हर क्षण, मन की पर्वतों का स्खलन!
सोच-कर ही, कंपित सा था मन!
पर कहीं दूर, नहीं हैं वो किसी क्षण!
कण-कण, हर शै, में हैं उन्हीं के स्पंदन!
पाजेब उन्हीं के, यूँ बजते है छन-छन,
छू कर गुजरते हैं, वो ही हर-क्षण!
बदलते मौसमों में, हैं उनके ही रंग,
यूँ ही कुहुकुनी , कुहुकती न अकारण,
यूँ व्याकुल पंछियाँ, करती न चारण,
यूँ न कलियाँ, चटकती अकारण!
स्पन्दित है सारे, आसमान के तारे,
यूँ ही लहराते न बादल, आँचल पसारे,
यूँ हीं छुपते न चाँद, बादल किनारे,
उनकी ही आखों के, हैं ये इशारे!
नजदीकियाँ, दूरियों में हैं समाहित,
समय, काल-खंड, उन्हीं में है प्रवाहित,
ये काल, हर-क्षण, उनसे है प्रकम्पित,
यूँ रोम-रोम, पहले न था स्पंदित!
अन्तर्मन जगी है, मीठी सी चुभन!
कट ही जाएंगे, विछोह के हजार क्षण,
क्यूँ हो मन की पर्वतों पर विचलन?
नजदीकियाँ, दूरियों में हैं समाहित,
समय, काल-खंड, उन्हीं में है प्रवाहित,
ये काल, हर-क्षण, उनसे है प्रकम्पित,
यूँ रोम-रोम, पहले न था स्पंदित!
अन्तर्मन जगी है, मीठी सी चुभन!
कट ही जाएंगे, विछोह के हजार क्षण,
क्यूँ हो मन की पर्वतों पर विचलन?
उस स्पंदन से ही, गुंजित है मन!
(इस पटल पर यह मेरी 1101वीं रचना है। आप सभी के प्रेम और स्नेह बिना यह संभव नहीं था। आभार सहित स्नेह-नमन)
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
मुबारक हो।
ReplyDeleteयूं ही कविताओं के शतक मारते जाओ।
आपकी इस रचना में प्रकृति का बेहद सुंदर ढंग से मानवीकरण करके महबूब से तुलना अतुलनीय है।
चाँद छुपते नही बादल किनारे... उफ्फ ये आंखों के इशारे।
कमाल कमाल कमाल।
मेरी नई पोस्ट पर स्वागत है जागृत आँख
सराहना हेतु हृदयतल से आभार
Deleteबदलते मौसमों में, हैं उनके ही रंग,
ReplyDeleteयूँ ही कुहुकुनी , कुहुकती न अकारण,
यूँ व्याकुल पंछियाँ, करती न चारण,
यूँ न कलियाँ, चटकती अकारण
बहुत सुंदर पुरुषोत्तम जी !!! सारे उपक्रम प्रेम के नाम !!!आपकी लेखनी ने साहित्य सृजन के शिखर अंक को छूटे हुए भी अपनी रचनाधर्मिता के उच्च स्तर को बनाकर रखा है | हार्दिक शुभकामनायें इस शुभ अंक वाली प्यारी सी रचना के लिए |
सराहना हेतु हृदयतल से आभार
Deleteकृपया छुते हुये पढ़ें। 🙏🙏
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 07 नवम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभार आदरणीया दी
Delete1101 वी रचना के लिए बहुत बहुत बधाई, पुरुषोत्तम भाई। आप इसी तरह शतक लगाते रहे....
ReplyDeleteसराहना हेतु हृदयतल से आभार
Deleteआपने भाई कहा, मन आह्लादित हो उठा। सदा के लिए आप मेरी बहन हो। शुभाशीष शुभकामनाएं
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (08-11-2019) को "भागती सी जिन्दगी" (चर्चा अंक- 3513)" पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं….
-अनीता लागुरी 'अनु'
आभार
Delete"...
ReplyDeleteस्पन्दित है सारे, आसमान के तारे,
यूँ ही लहराते न बादल, आँचल पसारे,
यूँ हीं छुपते न चाँद, बादल किनारे,
उनकी ही आखों के, हैं ये इशारे!
..."
बहुत खुबसूरत रचना। इसमें कितने सारे शब्द हैं! आप लाजवाब हैं। अब आपसे मिलने की इच्छा जग गई है।
और हाँ...
इस उपलब्धि (1101वीं रचना) के लिए बहुत-बहुत बधाई आपको।
सराहना हेतु हृदयतल से आभार
Deleteअन्तर्मन जगी है, मीठी सी चुभन!
ReplyDeleteकट ही जाएंगे, विछोह के हजार क्षण,
क्यूँ हो मन की पर्वतों पर विचलन?
उस स्पंदन से ही, गुंजित है मन! बेहद खूबसूरत रचना। वाह
1101रचनाएं। बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं आदरणीय।💐💐💐💐
सराहना हेतु हृदयतल से आभार
Deleteबहुत सुन्दर कविता ! कविता के 11 शतक बनाने पर आपको हार्दिक बधाई!
ReplyDeleteसराहना हेतु हृदयतल से आभार
Deleteखूबसूरत कविताओं के साथ इतनी आगे तक आ गए आप इसकी आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएं
ReplyDeleteसराहना हेतु हृदयतल से आभार
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