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Wednesday 6 November 2019

स्पंदन (1101 वीं रचना)

अन्तर्मन हुई थी, हलकी सी चुभन!
कटते भी कैसे, विछोह के हजार क्षण?
हर क्षण, मन की पर्वतों का स्खलन!
सोच-कर ही, कंपित सा था मन!

पर कहीं दूर, नहीं हैं वो किसी क्षण!
कण-कण, हर शै, में हैं उन्हीं के स्पंदन!
पाजेब उन्हीं के, यूँ बजते है छन-छन,
छू कर गुजरते हैं, वो ही हर-क्षण!

बदलते मौसमों में, हैं उनके ही रंग,
यूँ ही कुहुकुनी , कुहुकती न अकारण,
यूँ व्याकुल पंछियाँ, करती न चारण,
यूँ न कलियाँ, चटकती अकारण!

स्पन्दित है सारे, आसमान के तारे,
यूँ ही लहराते न बादल, आँचल पसारे,
यूँ हीं छुपते न चाँद, बादल किनारे,
उनकी ही आखों के, हैं ये इशारे!

नजदीकियाँ, दूरियों में हैं समाहित,
समय, काल-खंड, उन्हीं में है प्रवाहित,
ये काल, हर-क्षण, उनसे है प्रकम्पित,
यूँ रोम-रोम, पहले न था स्पंदित!

अन्तर्मन जगी है, मीठी सी चुभन!
कट ही जाएंगे, विछोह के हजार क्षण,
क्यूँ हो मन की पर्वतों पर विचलन?
उस स्पंदन से ही, गुंजित है मन!

(इस पटल पर यह मेरी 1101वीं रचना है।  आप सभी के प्रेम और स्नेह बिना यह संभव नहीं था। आभार सहित स्नेह-नमन)

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 11 May 2019

मशकूक

तन के कंपन, ये हृदय के स्पंदन,
है उनके ही कारण....

हम तो बस, मशकूक हैं,
निशाने, उनकी नजर के अचूक हैं,
उनके ही मकरूक हैं,
उनकी ही, ख्वाब में मशरूफ हैं,
महसूस करता हूँ, मैं अपनी धड़कन,
उनके ही कारण....

हर तरफ, हैं उनके नजारे,
बन कर पवन, छू ले, वो ही पुकारे,
वहाँ, जो वो न होते,
न होते, स्पंदन उन वादियों में, 
धड़कती है ये धड़कनें, गूंज बनकर,
उनके ही कारण.....

नेकियां, सब उसने किए,
यहाँ मशकूक तो, बस हम ही हुए,
पहले थे गुमनाम हम,
चर्चे मेरी नाम के, अब आम हैं,
नजर में उनकी भी, हम बदनाम हैं,
उनके ही कारण....

तन के कंपन, ये हृदय के स्पंदन,
है उनके ही कारण....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 2 February 2018

जो मन को भाता है

वो, जो मन को भाता है,
कहीं मुझको मीलों दूर लिए जाता है.......

हौले से छू जाता है,
नीरव पल में सहलाता है
काल समय सीमा के परे,
स्पंदन बन जाता है....

वो, जो मन को भाता है,.......

कभी मन ये दूर निकल जाता है,
तन्हा फिर भी रह जाता है,
मरुभूमि से सूने आंगण में काँटों सा,
जब नागफनी डस जाता है,
नीरवता के उस बीहड़ जंगल में,
व्याकुल सा ये मन जब घबरा जाता है,
फिर करता है अपने मन की,

वो, जो मन को भाता है,.......

जब कोई भी लम्हा तड़पाता है,
सुख चैन भटक सा जाता है,
छूट जाती है जब मंजिल की आशा,
और हताश पल डस जाता है,
जीवन के उस बिखरे से प्रांगण में,
विह्वल मन जब खुद को तन्हा पाता है,
करता है फिर अपने मन की,

वो, जो मन को भाता है,.......
नीरवता से कहीं दूर, मीलों दूर, .......

हौले से छू जाता है,
नीरव पल में सहलाता है
काल समय सीमा के परे,
स्पंदन बन जाता है....

वो, जो मन को भाता है,.......
कहीं मुझको मीलों दूर लिए जाता है.......

Wednesday 10 May 2017

मोहब्बत

शब्दों की शक्ल में ढलती रही, इक तस्वीर सी वो!

युँ ही कुछ लिखने लगा था मैं,
शब्दों से कुछ भाव मन के बुनने लगा था मैं,
दूर...खुद से कहीं दूर होने लगा था मैं,
फिर याद नहीं, ये क्या लिखने लगा था मै?

तस्वीर से निकल दबे पाँव, तावीर में ढली सी वो!

युँ ही कुछ कहने लगी थी वो,
जरा सा भाव उस मन के सुनने लगा था मैं,
न जाने क्युँ कुछ खोने सा लगा था मैं,
फिर याद नहीं, ये क्या लिखने लगा था मै?

शायद शब्दों से निकल, किसी बुत में ढली सी वो!

युँ ही अब कुछ करीब थी वो,
महसूस बुत की धड़कनें करने लगा था मैं,
शायद अब मोहब्बत करने लगा था मैं,
फिर याद नहीं, ये क्या लिखने लगा था मै?

शब्दों की स्पंदनो में ढलती रही, इक तावीर सी वो!