Saturday 2 May 2020

लाॅकडाउन

उलझे ये दिन है, कितने सवालों में!
घिर कर, अपने ही उजालों में, 
जीवन के जालों में!

बीता हूँ कितना, कितना मैं बचा हूँ?
कितना, मैं जीवन को जँचा हूँ,
हूँ शेष, या अवशेष हूँ,
भस्म हूँ या भग्नावशेष हूँ,
या हवन की रिचाओं में रचा हूँ!

उलझाते रहे, बीतते लम्हों के हिस्से,
छीनते रहे, मुझको ही मुझसे,
मेरे, जीवन के किस्से,
कैद हो चले, मेरे वो कल,
बचे हैं शेष, आखिरी ये हिस्से!

कतई ऐसा न था, जैसा मैं आज हूँ,
जैसे पहेली, या मैं इक राज हूँ,
बिल्कुल, अलग सा,
तन्हा, सर्वथा लाॅकडाउन हूँ,
बुत इक अलग , मैं बन गया हूँ !

सम्भाल लूँ अब, जो थोड़ा बचा हूँ!
जो उनकी, किस्सों में रचा हूँ,
बीत जाना, भी क्या?
तनिक शेष, रह जाऊँ यहाँ,
यूँ ही व्यतीत हो जाना भी क्या?

उलझे ये दिन है, कितने सवालों में!
घिर कर, अपने ही उजालों में, 
जीवन के जालों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

10 comments:

  1. बीता हूँ कितना, कितना मैं बचा हूँ?
    कितना, मैं जीवन को जँचा हूँ,
    हूँ शेष, या अवशेष हूँ,
    भस्म हूँ या भग्नावशेष हूँ,
    या हवन की रिचाओं में रचा हूँ!
    बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति।

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    1. आभारी हूँ आदरणीया अनुराधा जी। विनम्र नमन।

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    1. आभारी हूँ आदरणीय मयंक जी। विनम्र नमन।

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  3. जब ज्खुद से खुद का सामना रोज़ हो ... खुद के सवाल और जवाब भी खुद से हों तो असल समझ ही काम आती है ...
    बहुत खूब लिखा है ...

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    1. आभारी हूँ आदरणीय नसवा जी। विनम्र नमन।

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  4. आदरणीया/आदरणीय आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर( 'लोकतंत्र संवाद' मंच साहित्यिक पुस्तक-पुरस्कार योजना भाग-३ हेतु नामित की गयी है। )

    'बुधवार' ०६ मई २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य"

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    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'बुधवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।


    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'

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    1. इस सम्मान हेतु आभारी हूँ आदरणीय एकलव्य जी।

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  5. सम्भाल लूँ अब, जो थोड़ा बचा हूँ!

    जो उनकी, किस्सों में रचा हूँ,

    बीत जाना, भी क्या?

    तनिक शेष, रह जाऊँ यहाँ,

    यूँ ही व्यतीत हो जाना भी क्या?
    बहुत खूब...सारगर्भित अभिव्यक्ति 👌👌👌

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