झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!
गहराता वो क्षितिज, हर क्षण बुलाता है उधर,
खींच कर, जरा सा आंचल में भींच कर,
कर जाता है, सराबोर,
उड़ चलते हैं, मन के सारे उत्श्रृंखल पंछी,
गगन के सहारे, क्षितिज के किनारे,
छोड़ कर, मुझको,
ओढ़ कर, वो ही रुपहला सा आंगन,
भूल जाता हूं खुद को!
झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!
वो टूटा सा बादल, विस्तृत नीला सा आंचल,
सिमटे पलों में, अजब सी, एक हलचल,
चहुं ओर, फैली दिशाएं,
टोक कर, मुझको, उधर ही बुलाए,
पाकर, रंगी इशारे,
देख कर, वादियों का पिघलता दामन,
भूल जाता हूं खुद को!
झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-07-2022) को चर्चा मंच "दिल बहकने लगा आज ज़ज़्बात में" (चर्चा अंक-4492) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार
Deleteझूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
ReplyDeleteभूल जाता हूं खुद को!
स्मृतियाँ जब इतनी खूबसूरत हों तो क्या याद रखना खुद को
लाजवाब सृजन
वाह!!!
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया सुधा जी
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