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Sunday, 27 October 2019

दीप मेरा

ढ़ल ही जाएगी, तम की, ये भी रात!

करोड़ों दीप, कर उठे, एक प्रण,
करोड़ों प्राण, जग उठे, आशा के क्षण,
जल उठे, सारे छल, प्रपंच,
लुप्त हुए द्वेष, क्लेश, मन के दंश,
अब ये रात क्या सताएगी?
तम की ये रात, ढ़ल ही जाएगी!

यूँ तो, सक्षम था, एक दीप मेरा,
था विश्वस्त, हटा सकता है वो अंधेरा,
जला है, ये दीप, हर द्वार पर,
है ये भारी, तम के हरेक वार पर,
अब ये रात क्या डराएगी?
विध्वंसी ये रात, ढल ही जाएगी!

अंत तक, जलेगा ये दीप मेरा,
विश्वस्त हूँ मैं, होगा कल नया सवेरा,
होंगे उजाले, ये दिल धड़केगे,
टिमटिमाते, आँखों में सपने होंगे,
अब ये राह क्या भुलाएगी?
निराशा की रात, ढ़ल ही जाएगी!

तम की ये भी रात, ढ़ल ही जाएगी!

दीपावली की अनन्त शुभकामनाओं सहित.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 7 September 2016

बनफूल

बनफूल..उग आया था एक, मेरे बाग के कोने में कहीं।

चुपचाप ही! अचानक!...न जाने कब से..!
आया वो....न जाने कहाँ से..., किस घड़ी में.....
पड़ी जब मेरी नजर पहली बार उसपर,
मुस्कुराया था खुशी से वो बनफूल, मुझे देखकर...
जैसे था उसे इन्तजार मेरा ही कहीं ना कहीं....!

बनफूल..उग आया था एक, मेरे बाग के कोने में कहीं।

अपनत्व सी जगी उस मासूम सी मुस्कान से,
खो गया कुछ देर मैं..उसके अपनत्व की छाँव में...
पुलकित होता रहा कुछ देर मैं उसे देखकर,
उसकी अकेलेपन का शायद बना था मैं हमसफर...
बेखबर था मैं, द्वेष से जल उठी थी सारी कली....!

बनफूल..उग आया था एक, मेरे बाग के कोने में कहीं।

अचानक ही!....जोर से....न जाने किधर से...!
प्रबल आँधी.. द्वेष की बह रही थी बाग में किधर से,
बनफूल था दुखी बाग की दुर्दशा देखकर,
मन ही मन सोचता, न आना था कभी मुृझको इधर...
असह्य पीड़ा लिए, हुआ था दफन वो वहीं कहीं....!

बनफूल..उग आया था एक, मेरे बाग के कोने में कहीं।