मैला ये तन ही क्यूं?
शायद!
ये अभिमानी मन भी हो!
वहम है या इक भ्रम है, हर इक मन,
है श्रेष्ठ वही इक, बाकि सारे हैं धूल-कण,
भूला है, शायद इस भूल-भुलावे में,
ये अभिमानी मन!
माटी के पुतले हम, है माटी का तन,
गुण-अवगुण दोनों, हैं गुंधे माटी के संग,
न जाने, फिर पलता किस भ्रम में,
ये अभिमानी मन!
कर के लाख जतन, साफ किए तन,
दोषी है खुद, पर करता है दोषा-रोपण,
झांके ना, खुद को ही इस दर्पण में,
ये अभिमानी मन!
औरों की गलती पर, हँसता है जग,
भूल करे जब खुद, होता है राग अलग,
न जाने, भटका किस संगत में,
ये अभिमानी मन!
भ्रम में तन ही क्यूं?
शायद!
ये अभिमानी मन भी हो!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
शायद!
ये अभिमानी मन भी हो!
वहम है या इक भ्रम है, हर इक मन,
है श्रेष्ठ वही इक, बाकि सारे हैं धूल-कण,
भूला है, शायद इस भूल-भुलावे में,
ये अभिमानी मन!
माटी के पुतले हम, है माटी का तन,
गुण-अवगुण दोनों, हैं गुंधे माटी के संग,
न जाने, फिर पलता किस भ्रम में,
ये अभिमानी मन!
कर के लाख जतन, साफ किए तन,
दोषी है खुद, पर करता है दोषा-रोपण,
झांके ना, खुद को ही इस दर्पण में,
ये अभिमानी मन!
औरों की गलती पर, हँसता है जग,
भूल करे जब खुद, होता है राग अलग,
न जाने, भटका किस संगत में,
ये अभिमानी मन!
भ्रम में तन ही क्यूं?
शायद!
ये अभिमानी मन भी हो!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 22 जुलाई 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (23-07-2019) को "बाकी बची अब मेजबानी है" (चर्चा अंक- 3405) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ।
Deleteबेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteवाह !बेहतरीन सर 👌👌
ReplyDeleteप्रणाम
सादर
सादर आभार आदरणीय
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteकर के लाख जतन, साफ किए तन,
ReplyDeleteदोषी है खुद, पर करता है दोषा-रोपण,
झांके ना, खुद को ही इस दर्पण में,
ये अभिमानी मन!
बहुत खूब रचना आदरणीय पुरुषोत्तम जी | यदि हर कोई अपने मन की मलिनता के प्रति यूँ ही सचेत हो तो मन को निष्कलुष होते देर नहीं लगेगी | एक प्रबुद्ध कवि के पारदर्शी भाव उजागर हो रहे है मर्मस्पर्शी रचना में | सादर --
आदरणीया रेणु जी, ब्लॉग पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद । स्नेह बनाए रखें ।
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