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Saturday 8 February 2020

सपने

अजीब होते हैं, ये कितने...
बंद होते ही आँखें, तैरने लगते हैं सपने!
क्षण-भर को, कितने लगते ये अपने,
समाए कब, खुली पलकों में,
जागे से पल में, गैर लगे ये कितने!
विस्मित करते, ये सपने!

सपने ना होते, तो होती ना आशा,
कहीं ना रहता, ये मन बंधा सा,
उभरते ना, रंग कहीं उन ख्वाबों में,
रोशनी, होती न अंधियारों में,
यूँ, कल्पनाओं में, गोते ना खाते,
यूँ गीत कोई, पंछी ना गाते,
यूँ, खिलती ना कलियाँ, 
यूँ भौंरे, डोल-डोल न उन पर आते,
फूल कोई, फिर यूँ ना शर्माते,
सजती ना, फूलों से डोली, 
आती ना, लौटकर होली,
यूँ, गूंजती ना, कोयल की बोली,
संजोती ना, दुल्हन,
नैनों में रुपहले, सपने!

अजीब होते हैं, ये कितने....
दिग्भ्रमित कभी, कर जाते हैं ये सपने!
राह कहीं भटकाते, बन कर अपने,
समाए कब, पनाहों में सारे,
टूटे बिखरे, जैसे आसमां के तारे!
व्यथित करते, ये सपने!

सपने ना होते, पनपती ना निराशा,
उड़ता ये मन, आजाद पंछी सा,
न कैद होते, ये पंख किसी पिंजरे में,
हर वक्त, न होते इक पहरे से,
यूँ, आशाओं के, टुकड़े ना होते,
यूँ, टूट कर, काँच ना चुभते,
यूँ, बिखरते ना ये अरमाँ,
यूँ,भभक-भभक, जलती ना शमां,
यूँ, दूर कोई, विरहा ना गाता,
टूटती ना, फूलों की माला,
यूँ कोई, पीता ना हाला,
बिलखती ना, वो दुल्हन नवेली,
आँसुओं में, बहकर,
ना ढ़ल जाते, ये सपने!

अजीब होते हैं, ये कितने...
बहा ले जाते, कहीं छोड़ जाते ये सपने!
क्षण-भर ही, करीब होते जैसे अपने,
कभी करते, संग गलबहियाँ,
दूर हुए जब ये, गैर लगे ये कितने!
अतिरंजित से, ये सपने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 26 May 2019

कैसे याद रहे?

जितने पल, व्यतीत हुए इस जीवन के,
उतने ही पल, तुम भी साथ रहे,
शैशव था छाया, जाने कब ये पतझड़ आया,
फिर, कैसे याद रहे?

था श्रृंगार तुम्हारा, या चटकी कलियाँ?
रंग तुम्हारा, या रंग-रंलियाँ?
आँचल ही था तेरा, या थी बादल की गलियाँ,
फिर, कैसे याद रहे?

अस्त हुआ कब दिनकर, कब रात हुई,
तारों को तज, तेरी ही बात हुई,
चाँदनी थी छाई, या थी तेरी ही दुग्ध परछाई,
फिर, कैसे याद रहे?

वृद्ध होंगे कल हम, बृथा था मेरा भ्रम,
यौवन संग, शैशव का संगम,
सप्त-दल से थे तुम,या थे अलि-दल से हम,
फिर, कैसे याद रहे?

कहो ना, तुझको प्रतीत हुआ कैसा?
अंतराल, व्यतीत हुआ कैसा?
अनुपालन, मन के अनुबंधों का था जैसा,
फिर, कैसे याद रहे?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 21 April 2019

प्यार

न जाने, कितनी ही बार,
चर्चा का विषय, इक केन्द्र-बिंदु, रहा ये प्यार!
जब भी कहीं, अंकुरित हुई कोमलता,
भीगी, मन की जमीन,
अविरल, आँखों से फूटा इक प्रवाह,
बह चले, दो नैन,
दिन हो या रैन, मन रहे बेचैन,
फिर चर्चाओं में,
केन्द्र-बिंदु बन कर, उभरता है ये प्यार!

हर दिन, क्षितिज के पार,
उभरता है सूरज, जगाकर संभावनाएं अपार!
झांकता है, कलियों की घूँघट के पार,
खोल कर, उनके संपुट,
सहलाकर किरणें, भर देती हैं उष्मा,
विहँसते हैं शतदल,
खिल आते हैं, करोड़ों कमल,
अद्भुत ये श्रृंगार,
क्यूँ न हो, चर्चा के केन्द्र-बिन्दु में प्यार!

कल्पना, होती हैं साकार,
जब सप्तरंगों में, इन्द्रधनुष ले लेता है आकार!
मन चाहे, रख लूँ उसे ज़मीं पर उतार,
बिखर कर, निखरती बूंदें,
किरणों पर, टूट कर नाचती वो बूंदें,
भींगता, वो मौसम,
फिजाओं में, पिघली वो धूप,
शीतल वो रूप,
चर्चाओं के केन्द्र-बिंदु, क्यूँ न बने ये प्यार!

न जाने, कितनी ही बार,
चर्चा का विषय, इक केन्द्र-बिंदु, रहा ये प्यार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 30 January 2019

सौगातें

ले आती है वो, कितनी ही सौगातें!
सुप्रिय रूप, कर्ण-प्रिय वाणी, मधु-प्रिय बातें!

हो उठता हैं, परिभाषित हर क्षण,
अभिलाषित, हो उठता है मेरा आलिंगन,
कंपित, हो उठते हैं कण-कण,
उस ओर ही, मुखरित रहता है ये मन!

लेकर आती है वो, कितनी ही सौगातें.......

रंग चटक, उनसे लेती हैं कलियाँ,
फिर मटक-मटक, खिलती हैं पंखुड़ियां,
और लटक झूलती ये टहनियाँ,
उस ओर ही, भटक जाती है दुनियाँ!

लेकर आती है वो, कितनी ही सौगातें.......

स्वर्णिम सा, हो उठता है क्षितिज,
सरोवर में, मुखरित हो उठते हैं वारिज,
खुश्बूओं में, वो ही हैं काबिज,
हर शै, होता उनसे ही परिभाषित!

लेकर आती है वो, कितनी ही सौगातें.......

उनकी बातें, उनकी ही धड़कन,
उनकी होठों का, कर्ण-प्रिय सा कंपन,
मधु-प्रिय, चूड़ी की खन-खन,
हर क्षण सरगम, लगता है आंगन!

ले आती है वो, कितनी ही सौगातें!
सुप्रिय रूप, कर्ण-प्रिय वाणी, मधु-प्रिय बातें!

Thursday 25 October 2018

यही थे राह वो

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो.....

वक्त के कदमों तले, यही थे राह वो,
गुमनाम से ये हो चले अब,
है साथ इनके, वो टिमटिमाते से तारे,
टूटते ख्वाबों के सहारे,
ये राह सारे, अब है पतझड़ के मारे.....

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो.....

बिछड़े है जो कही, यही थे राह वो,
संग मीलों तक चले जो,
किस्से सफर के सारे, है आधे अधूरे,
तन्हा बातों के सहारे,
ये राह सारे, अब है पतझड़ के मारे.....

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो.....

बदलते मौसमों मे, यही थे राह वो,
बहलाती हैं जिन्हें टहनियाँ,
अधखिले से फूल, सूखी सी कलियाँ,
शूल-काटो के सहारे,
ये राह सारे, अब है पतझड़ के मारे.....

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो....

Wednesday 13 April 2016

तुम भी गा देते

फिर छेड़े हैं गीत,
पंछियों नें उस डाल पर,
कलरव करती हैं,
मधु-स्वर में सरस ताल पर,
गीत कोई गा देते,
तुम भी,
जर्जर वीणा की इस तान पर।

डाली डाली अब,
झूम रही है उस उपवन के,
भीग रही हैं,
नव सरस राग में,
अन्त: चितवन के,
आँचल सा लहराते,
तुम भी,
स्वरलहर बन इस जीवन पर।

फिर खोले हैं,
कलियों ने धूँघट,
स्वर पंछी की सुनकर,
बाहें फैलाई हैं फलक नें
रूप बादलों का लेकर,
मखमली सा स्पर्श दे जाते,
तुम भी,
स्नेहमयी दामन अपने फैलाकर।

Sunday 10 April 2016

मोहब्बत चीज क्या?

ये मोहब्बत है या ये नशा है कोई?
पल दो पल तो इस जाम में डूबे है सभी,
है चीज क्या ये मोहब्बत सिखा दे कोई?
क्युँ बिखरे है प्यार में दिल ये बता दे कोई?

क्युँ गुनगुनाता है भँवरा कलियों पे कहीं?
क्युँ खिल जाती है कलियाँ बाग में फिर वहीं?
क्युँ जान देते है पतंगे उन दियों पे कहीं?
क्युँ मरते हैं प्यार मे जवाँ दिल ये बता दे कोई?

उधर शाख पर पत्तियाँ लहलहाती हैं क्युँ?
उन कटीली टहनियों पर फूल मुस्कुराती है क्युँ?
धूप की ओर सुरजमुखी घूम जाती है क्युँ?
क्युँ जल उठते है दिए प्यार में ये बता दे कोई?

ये मोहब्बत है या ये नशा, ये मुझको बता दे कोई?