Showing posts with label फलक. Show all posts
Showing posts with label फलक. Show all posts

Monday 16 January 2023

दिल न जाने कहां


दिल था यहीं, अब न जाने कहां?
आ ही उतरा, जमीं पर,
वो आसमां!

कैसे मूंद लूं, ये दो, पलकें,
रोक लूं कैसे, ये आंसू जो छलके,
सम्हाले, न संभले,
ले चला, मुझको किधर!
वो कारवां!

दिल था यहीं, अब न जाने कहां?

ख़ामोश है, कितनी दिशा,
चीखकर, कभी, गूंजती है निशा,
चुप रौशनी के साये,
यूं बुलाए, मुझको किधर!
वो कहकशां!

दिल था यहीं, अब न जाने कहां?

हो शायद, वो फलक पर!
लिए तस्वीर, उनकी पलक पर!
सम्हाले, आस कोई,
ले चला, मुझको किधर!
वो बागवां!

दिल था यहीं, अब न जाने कहां?
आ ही उतरा, जमीं पर,
वो आसमां!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 28 August 2021

दो अलग बातें

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

चुप से, वो कहकहे, सारे अनकहे,
गूंजता वो आंगन, बहका सा ये सावन,
लरजते दो लब, सहमे वो दो पल,
उन पलों की, ये सौगातें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

गुजर से गए जब, उभर आए तब,
नजरों से दूर, उभर आए नजरों में पर,
ख्यालों में तय, हो चले ये फासले,
हैरां करे, वो सारी यादें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

करे कैद, टिम-टिमाते वो सितारे,
टँके फलक पर, उन्हें अब कैसे उतारें,
यूँ ही देखते, बस रह से गए वहीं,
तन्हा, गुजरती रही रातें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

छूकर गईं, फिर, उनकी ही सदा,
भूलें कैसे? ओ जाते पल, तू ही बता,
छू लें कैसे! बहती सी वो है हवा,
टूटी, यहाँ कितनी शाखें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 14 August 2021

गुनाह

ऐ जिन्दगी! तू कोई गुनाह तो नहीं,
पर, लगे क्यूँ, किए जा रहा मैं,
गुनाह कोई,
और गुनाह कितने, 
करवाएगी, ऐ जिन्दगी!

कौन सी ख्वाहिश के, पर दूँ कतर,
कैसे फेर लूँ, किसी की, उम्मीदों से नजर,
कर्ज एहसानों के, लिए यूँ उम्र भर,
तेरी ही गलियों से, रहा हूँ गुजर,
बाकि रह गई, राह कितनी, जिन्दगीं!

और गुनाह कितने, 
करवाएगी ऐ जिन्दगी!

शक भरी निगाहों से, तू देखती है,
दलदल में, गुनाहों के, तू ही धकेलती है,
सच भी कहूँ, तू झूठ ही तोलती है,
उस शून्य में, झांकती है नजर,
खाली है आकाश कितनी, जिन्दगीं!

और गुनाह कितने, 
करवाएगी ऐ जिन्दगी!

रिश्ते बिक गए, तेरी ही बाजार में,
फलक संग, रस्ते बँट गए इस संसार में,
बाकि रह गया क्या, अधिकार में,
टीस बन कर, आते हैं उभर,
गुनाहों के विस्तार कितने, जिन्दगी!

ऐ जिन्दगी! तू कोई गुनाह तो नहीं,
पर, लगे क्यूँ, किए जा रहा मैं,
गुनाह कोई,
और गुनाह कितने, 
करवाएगी, ऐ जिन्दगी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 7 August 2021

उड़ता आँचल

उड़ता सा, कोई आँचल हो तुम,
छल जाए, मन को, वो इक, बादल हो तुम!

कभी, किरणों संग, उतर कर, 
चली आई, जमीं पर,
झूल आई, कभी आसमां पर,
कभी, सितारों का इक,
कारवाँ हो तुम!

छल जाए, मन को...

सांझ सा, एक बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा,
पर, गुजारे हैं, पल सारे यहीं,
रूठी हुई, उम्मीदों का,
सहारा हो तुम!

छल जाए, मन को...

भटका सा, कोई आवारा घटा,
चुरा ना ले, तेरी छटा,
स॔भाल दूँ, आ ये आँचल जरा,
एक अल्हड़ सी कोई,
रवानी हो तुम!

छल जाए, मन को...

जरा देख लूँ, तुझे निष्पलक,
निहार लूँ, अ-पलक,
बदलता, बहुरूपिया फलक,
आकाश में, घुली सी,
चाँदनी हो तुम!

उड़ता सा, कोई आँचल हो तुम,
छल जाए, मन को, वो इक बादल हो तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 16 May 2021

गूढ़ बात

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

उनींदी सी, खुली पलक,
विहँसती, निहारती है निष्पलक,
मूक कितना, वो फलक!
छुपाए, वो कोई, 
इक राज है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

लबों की, वो नादानियाँ,
हो न हो, तोलती हैं खामोशियाँ,
सदियों से वो सिले लब!
दबाए, वो कोई,
इक बात है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

हो प्रेम की, ये ही भाषा,
हृदय में जगाती, ये एक आशा,
यूँ ना धड़कता, ये हृदय!
बजाए, वो कोई,
इक साज है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 20 December 2020

कोहरे

धुंधले ये कोहरे हैं, या दामन के हैं घेरे,
रुपहली क्षितिज है, या रुपहले से हैं चेहरे,
ठंढ़ी पवन है, या हैं सर्द आहों के डेरे,
सिहरन सी है, तन-मन में,
इक तस्वीर उभर आई है, कोहरों में!

सजल ये दो नैन हैं, या हैं बूंदों के डेरे,
वो आँचल हैं ढ़लके से, या हैं बादल घनेरे,
वो है चिलमन, या हैं हल्के से कोहरे,
हलचल सी है, तन-मन में,
वही रंगत उभर आई है, कोहरों में!

उसी ने, रंग अपने, फलक पर बिखेरे,
रंगत में उसी की, ढ़लने लगे अब ये सवेरे,
वो सारे रंग, जन्नत के, उसी ने उकेरे,
छुवन वो ही है, तन-मन में,
वही चाहत उभर आई है, कोहरों में!

बुनकर कोई धागे, कोई गिनता है घेरे,
चुन कर कई लम्हे, कोई संग लेता है फेरे,
किसी की रात, किन्हीं यादों में गुजरे,
कोई बन्धन है, तन-मन में,
इक तावीर उभर आई है, कोहरों में!

धुंधले ये कोहरे हैं, या दामन के हैं घेरे,
रुपहली क्षितिज है, या रुपहले से हैं चेहरे,
ठंढ़ी पवन है, या हैं सर्द आहों के डेरे,
सिहरन सी है, तन-मन में, 
इक तस्वीर उभर आई है, कोहरों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 31 August 2020

रुक जरा

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

चुप-चुप, ये गुनगुनाता है कौन?
हलकी सी इक सदा, दिए जाता है कौन?
बिखरा सा, ये गीत है!
कोई अनसुना सा, ये संगीत है!
है किसकी ये अठखेलियाँ,
कौन, न जाने यहाँ!

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

उनींदी सी हैं, किसकी पलक?
मूक पर्वत, यूँ निहारती है क्यूँ निष्पलक?
विहँस रहा, क्यूँ फलक?
छुपाए कोई, इक गहरा सा राज है!
कौन सी, वो गूढ़ बात है?
जान लूँ, मैं जरा!

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

कोई लिख रहा, गीत प्यार के!
यूँ हवा ना झूमती, प्रणय संग मल्हार के?
सिहरते, न यूँ तनबदन!
लरजते न यूँ, भीगी पत्तियों के बदन!
यूँ ना डोलती, ये डालियाँ!
कैसी ये खामोशियाँ!

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 26 July 2020

उसी पथ पर

सर्वदा, तय पथ पर, तन्हा वो सूरज चला!
बिखेर कर, दिन के उजाले,
अंततः, छोड़ कर,
तम के हवाले!
बे-वश, वो सूरज ढ़ला!

पल, थे वो गम के, जो सांझ बन के ढ़ला!
रुपहले से, उस फलक पर,
बिखरे, रंग काले,
धूमिल उजाले,
बे-रंग, हो सूरज ढ़ला!

हठात् था मैं खड़ा, उसी की सोंच में भूला!
उन्हीं अंधेरों में, खड़ा-खड़ा,
डरा था जरा-जरा,
मन था भरा,
निःशब्द, वो सूरज ढ़ला!

आस कल की लिए, उसी पथ मैं भी चला!
पीछे, क्षितिज पर, उसी के,
जा, मिलने उसी से,
उसे ही बुलाने,
बे-वश, जो सूरज ढ़ला!

सर्वथा, उसी पथ पर, अधखिला वो मिला!
प्रकीर्ण, प्रखर व स्थिर-चित्त,
खोले, दो बाहें पसारे,
गगन के पार,
हँस के, वो सूरज खिला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 18 July 2020

बंजारे ख्वाब

सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

मन के फलक, धुंधलाए हैं, हल्के-हल्के,
दूर तलक, साए ना कल के,
सांध्य प्रहर, कहाँ किरणों का गुजर,
बिखरे हैं, टूट कर ख्वाब कई,
रख लूँ चुन के!

सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

हम-उम्र कोई होता, तो ख्वाब पिरो लेता,
पर, ख्वाबों के ये उम्र नहीं,
संजोये ख्वाब कोई, वो हम-उम्र नहीं,
छलके हैं, रख लूूँ ख्वाब वही,
आँखों में भर के!

सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

पर, ख्वाबों के वो तारे, हो चले हैं बंजारे,
थे कल तक, जो नैन किनारे,
छोड़ चले हैं वो, इस मझधार सहारे,
रहते है, जो अब भी साथ यहीं,
बेगाने से बन के!

सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 6 May 2020

प्याले

कल तलक, छलक ही जाते थे ये प्याले,
होठों तलक, यूँ आते-आते!
कोलाहल, वो कल के,
खन-खन वो, हल्के-हल्के से,
ठहाकों के गूंज, थे जो दो पल के,
विस्मित से, कर गए वो पल,
विस्तृत हुए ये अस्ताचल,
सिमटने लगे फलक!

चुप भी करो, बस यूँ ही, तसल्ली न दो,
हो चले हैं, खाली ये प्याले,
छलकेंगे, अब ये कैसे,
छू लूँ, तो खनक ही जाएंगे!
हैं गम से ये भरे, टूट ही जाएंगे,
थम जाने दो, ये कोलाहल,
पी चुके, हम, हलाहल,
सर्द आहें न भरो!

गर हो संभव, अतीत, वो ही लौटा दो,
मिटा दो, व्यतीत पलों को,
मोड़ दो, वक्त के रुख,
ये टुकड़े, हृदय के, जोड़ दो,
फिर से छलकाओ, वो ही प्याले,
ठहर जाएं, बहते ये पल,
आए ना, अस्ताचल,
गर हो ये संभव!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 9 June 2019

डूबता सूरज

उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......

आकर जमीं पर,
क्षितिज को,
क्यूँ चूम जाता है सूरज!
लाल से हैं भाल,
वो गगन है या है ताल,
है आँखों में हया, या नींद में ऊँघ जाता है सूरज!

उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......

या है ये प्रीत की ही,
रंग-रंगीली सी,
रीत कोई!
या सज कर,
उस सुनहरे मंच पर,
क्षितिज को,
वो सुनाता है गीत कोई!
क्या मिलन की चाह में, रोज ढ़ल जाता है सूरज!

उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......

या है मिलन की शाम ये,
या है विरह का,
टूटा जाम ये!
बिखरे हैं,
जो उस फलक पर,
छलकते हैं,
जो पैमानों में उतर कर!
या दीवानों सा, फलक पर बिखर जाता है सूरज!

उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......

आकर जमीं पर,
क्षितिज को,
क्यूँ चूम जाता है सूरज!
लाल से हैं भाल,
वो गगन है या है ताल,
है आँखों में हया, या नींद में ऊँघ जाता है सूरज!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 27 October 2018

चाँद तक चलो

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

नभ को लो निहार तुम,
पहन लो, इन बाँहों के हार तुम,
फलक तक साथ चलो,
एक झलक, चाँद की तुम भर लो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

प्राणों का अवगुंठण लो,
इस धड़कन का अनुगुंजन लो,
भाल जरा इक अंकन लो,
स्नेह भरा, मेरा ये नेह निमंत्रण लो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

यूं हुआ जब मैं निष्प्राण,
बिंधकर उस यम की सुईयों से,
भटके दर-दर तुम कहते,
पिय वापस दे दो, यम सूई ले लो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

ये झौंके हैं शीत ऋतु के,
ये शीतल मंद बयार मदमाए से,
ये अंग प्रत्यंग सिहराए से,
ये उन्माद, महसूस जरा कर लो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

सिहरन ले आया समीर,
तुम संग चलने को प्राण अधीर,
पग में ना अब कोई जंजीर,
हाथ धरो, प्रिय नभ के पार चलो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

Saturday 2 June 2018

ललक

चुरा लाया हूं बीते हुए लम्हों से इक झलक!
वही ललक, जो बांकी है अब तलक....

कलकल से बहते किसी पल में,
नर्म घास की चादर पर, कहीं यूं ही पड़े हुए,
एकटक बादलों को निहारता मैं,
वो घुमड़ते से बादल, जैसे फैला हों आँचल,
बूंद-बूंद बादलों से बरसती हुई फुहारें,
वो बेपरवाह पंछियों की कतारें,
यूं हौले से फिर, मन मे भीगने की ललक,
बूंद-बूंद यूं संग भीगता, वो फलक....

चुरा लाया हूं, बीते हुए लम्हों से वो ही झलक!
इक ललक, जो बाकी है अब तलक.....

ठंढ से ठिठुरते हुए किसी पल में,
चादरों में खुद को लपेटे, सिमटकर पड़े हुए,
चाय की प्याली हाथों में लिए मैं,
गर्म चुस्कियों संग, किन्ही ख्यालों में गुम,
धूप की आहट लिए, सुस्त सी हवाएँ,
कभी आंगन में यूं ही टांगे पसारे,
यूं आसमां तले, धूप में बैठने की ललक,
संग-संग यूं ही गर्म होता, वो फलक....

चुरा लाया हूं, बीते हुए लम्हों से इक झलक!
वही ललक, जो बांकी है अब तलक....

Sunday 16 April 2017

क्षितिज की ओर

भीगी सी भोर की अलसाई सी किरण,
पुरवैयों की पंख पर ओस में नहाई सी किरण,
चेहरे को छूकर दिलाती है इक एहसास,
उठ यार! अब आँखे खोल, जिन्दगी फिर है तेरे साथ!

ये तृष्णगी कैसी, फिर है मन के आंगन,
ढूंढती है किसे ये आँखे, क्युँ खाली है ये दामन,
अब न जाने क्युँ अचेतन से है एहसास,
चेतना है सोई, बोझिल सी इन साँसों का है बस साथ!

ये किस धुंध में गुम हुआ मन का गगन,
फलक के विपुल विस्तार की ये कैसी है संकुचन,
न तो क्षितिज को है रौशनी का एहसास,
न ही मन के धुंधले गगन पर, उड़ने को है कोई साथ!

पर भीगती है हर रोज सुबह की ये दुल्हन,
झटक कर बालों को जगाती है नई सी सिहरन,
मन को दिलाती है नई सुखद एहसास,
कहती है बार बार! तु चल क्षितिज पर मैं हूँ तेरे साथ!

Saturday 16 July 2016

फलक पे टंगी खुशियाँ

देखने को तो फलक पे ही टंगी है अाज भी खुशियाँ........

फलक पे ही टंगी थी सारी खुशियाँ,
पल रहा अरमान दामन में टांक लेता मैं भी इनको,
पर दूर हाधों की छुअन से वो कितनी,
लग रही मुझको बस हसरतों की है ये दुनियाँ।

झांकता हूँ मैं अब खुद के ही अंदर,
ढूंढने को अपने अनथक अरमानों की दुनियाँ,
ढूंढ़़ पाता नहीं हूँ पर अपने आप को मैं,
दिखती है बस हसरतों की इक लम्बी सी कारवाँ।

गांठ सी बनने लगी है अरमानों की अब,
कहीं दूर हो चला हूँ रूठे-रूठे अरमानों से अब मैं,
झूठी दिलासा कब तलक दूँ मैं उनको,
बेगानों की बस्ती में अब समझते वो मुझको पराया।

क्या अब भी मुझमें कुछ बचा हूँ शेष मैं,
उस फलक के कनारों से ही अब जान पाऊँगा ये मैं,
कुछ चीज एक मन सी रहती थी अन्दर,
न जाने क्युँ आजकल वो भी हुआ मुझसे बेगाना।

देखने को तो फलक पे ही टंगी है अब भी खुशियाँ........

Wednesday 13 April 2016

तुम भी गा देते

फिर छेड़े हैं गीत,
पंछियों नें उस डाल पर,
कलरव करती हैं,
मधु-स्वर में सरस ताल पर,
गीत कोई गा देते,
तुम भी,
जर्जर वीणा की इस तान पर।

डाली डाली अब,
झूम रही है उस उपवन के,
भीग रही हैं,
नव सरस राग में,
अन्त: चितवन के,
आँचल सा लहराते,
तुम भी,
स्वरलहर बन इस जीवन पर।

फिर खोले हैं,
कलियों ने धूँघट,
स्वर पंछी की सुनकर,
बाहें फैलाई हैं फलक नें
रूप बादलों का लेकर,
मखमली सा स्पर्श दे जाते,
तुम भी,
स्नेहमयी दामन अपने फैलाकर।

Monday 4 April 2016

असंख्य फूल

काश! मन की वादियों में फूल खिलते हजार!

हृदय की धड़कनें कह रहीं हैं बार-बार,
कहीं साहिलों पर खड़ा मन है कोई बेकरार,
गुजर रहें वो फासलों से करते हुए इंतजार।

काश! सुन ले कोई उस हृदय की पुकार,
साहिलों के कोर पे टकरा रही विशाल ज्वार,
बावरा वो मन हुआ धुएँ सा उठ रहा गुबार।

बार-बार वो हृदय कलप कर रहा पुकार,
स्पंदनें धड़कनों की कुहक रही होकर अधीर,
काश! इन वादियों में आ जाती वही बहार।

मन और हृदय दोनों साथ हो चले हैं अब,
अधीर मन पुलक हृदय को संभालता है अब,
उस फलक पे कहीं मिल जाएगा वो ही रब।

मन की वादियों में असंख्य फूल खिल जाएंगे तब!

Sunday 21 February 2016

इक लम्हा मधुर चाँदनी

अरमान यही, इक लम्हा चाँदनी तेरे मुखरे पे देखूँ सनम।

फलक पे मुखरित चाँद ने, डाला है फिर से डेरा,
चलो आज तुम भी वहाँ, हम कर लें वहीं बसेरा,
गुजर रही है दिल की कश्ती उस चाँद के पास से,
तुम आज बैठी हों क्युँ, यहाँ बोझिल उदास सी।

अरमान यही, इक लम्हा चाँदनी तेरे मुखरे पे देखूँ सनम।

फलक निखर मुखर हुई, चाँद की चाँदनी के संग,
 कह रही है ये क्या सुनो, आओ जरा तुम मेरे संग,
निखर जाए थोड़ी चांदनी भी नूर में आपके सनम,
इक लम्हा मधुर चाँदनी, तेरे मुखरे पे निहारूँ सनम।

अरमान यही, इक लम्हा चाँदनी तेरे मुखरे पे देखूँ सनम।

प्रखर चाँदनी सी तुम छाई हो दिल की आकाश पे,
मन हुआ आज बाबरा, छूना चाहे तुझको पास से,
दिल की कश्ती भँवर में तैरती सपनों की आस से,
तुम चाँद सम फलक पे छा जाओ मीठी प्रकाश से।

अरमान यही, इक लम्हा चाँदनी तेरे मुखरे पे देखूँ सनम।

Saturday 6 February 2016

एे मेरे हमनवाँ

सजती रहेंगी दिल की महफिलें तुमसे ही हमनवाँ!

फलक से उतर के तू आजा जमीं पर,
एे रख दे कदम तू दिल की जमीं पर,
बिखर जाएंगे राहों पे फूलों के बदन,
चाँदनी से निखर जाएगा सारा चमन।

सपनों की फलक सजती रहेंगी तुमसे ही हमनवाँ!

निगाहों में आपकी हैं सपनों का जहाँ,
उन सपनों को मैं सजाऊंगा अब यहाँ,
सँवर जाएगी किस्मत कुछ हमारी भी
फलक से तुझको लाऊंगा एे हमनवाँ।

तू उतर के आ जमीं पर एे मेरे हसीं हमनवाँ!