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Tuesday 30 April 2019

बांधो मत उसको

सृष्टि खुद जिसमें, सिमटी है आकर,
नित स्वरूप नए से लेकर, खिलती है वो बलखाकर!
अद्भुत सी वो चित्रकारी,
रचनाओं में, श्रेष्ठतम है नारी!

नारी है, शक्ति है, सृष्टि समूल है वो!
रचयिता की भूल नहीं, उसकी रचना का मूल है वो!
श्रष्टा के बंद किताबों में,
झांक कर पढ़ लेना!
कल्पना नहीं, सशक्त संकल्पना है,
कालसमय से परे, तर्क की तार्किक विवेचना है वो!
सीमाओं के बंधन में,
बांध कर मत रखना उसको!

मृदुल है वो, सशक्त हैं पर उसके,
आयाम सफलताओं के, नए लिख सकती हैं वो!
संकीर्णताओं के जंजीरों में,
उन्हे कैद न रखना!
आसमान, छू सकते हैं उसके पर,
आकांक्षाओं के वृहदाकार, मन के मुक्ताकाश पर,
चाहत के दीर्घ श्वास,
सीने में भर लेने देना उसको!

नारी है, इस व्योम का सार है वो!
श्रृष्टि की जटिल रचना का, विशिष्ट मूलाधार है वो!
प्राण उसी के गर्भ में,
निष्प्राण न होने देना उसको!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 27 January 2019

अवधारणा

पुनर्सृजित होते हो, कल्पनाओं में तुम ही...

मूर्त रूप हो कोई, या हो महज कल्पना,
या हो तुम, मेरी ही कोई, सुसुप्त सी चेतना,
हर घड़ी, हर शब्द, तेरी ही विवेचना!

पुनर्सृजित हो जाते हो, रचनाओं में तुम ही...

यथार्थ संवेदना हो, या सिर्फ संकल्पना,
अनुभूति हो कोई, या हो महज अवधारणा,
सदियों जिसकी, की है मैंने विवेचना!

पुनर्सृजित होते हो, संवेदनाओं में तुम ही...

अमूर्त विचार, जो झकझोरती है चेतना,
कोई अन्तर्वेदना, जो तलाशती हैं संभावना,
रूप-सौन्दर्य, ना हो जिसकी विवेचना!

पुनर्सृजित होते हो, विवेचनाओं में तुम ही...
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अवधारणा: चेतना का वो मूल तत्व, जो, वस्तु को उसके अर्थ तथा अर्थ को वस्तु के बिम्ब के साथ जोड़ती है और चेतना को, संवेदनात्मक बिम्बों से अलग, इक स्वतंत्र रूप से पहचानने की संभावना पैदा करती है।

Saturday 11 November 2017

750वीं रचना

स्व-अनुभवों की विवेचना है मेरी 750वीं रचना,
रचनाओं की भीड़ में लिख रहा हूँ एक और रचना....

नाम मात्र की नहीं ये रचना,
पंख ले उड़ान भर रही हो जैसे कोई संकल्पना,
पीड़ संग जन्म रही जैसे कोई कल्पना,
स्व-अनुभवों की हो रही जैसे आत्म-विवेचना......

रचनाओं की भीड़ में है लिख रहा मैं 750वीं रचना......

ख्यालों की जैसे कोई गहना,
पहनता हूँ हरबार जब भी ख्यालों को हो सँवरना,
सँवरते हैं ख्याल, सँवरती है ये कल्पना,
नव-श्रृंगार कर, जीवंत हो उठती है रचना......

रचनाओं की भीड़ में लिख रहा हूँ एक और रचना......

भावावेग का ज्वार सा उठना,
विरह, प्रेम, गीत, एकाकीपन का शब्दों में ठलना,
भाव के सागर में हो जैसे गोते लगाना,
स्वतः स्फूर्त कविताओं का मूर्त हो उठना......

स्व-अनुभवों की विवेचना है ये मेरी 750वीं रचना.....
रचनाओं की भीड़ में लिखता रहा हूँ एक और रचना...

❤नमन कर रही सबों को मेरी ये 750वीं रचना❤
CELEBRATING 750th STEP
& the Way Forward.......

Thanks Everyone for Constantly Encouraging Me...

Saturday 27 May 2017

कोरी सी कल्पना

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

कविताओं में मैने उसको हरपल विस्तार दिया,
मन की भावों से इक रूप साकार किया,
हृदय की तारों से मैने उसको स्वीकार किया,
अभिलाषा इक अपूर्ण सा मैने अंगीकार किया...

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

कभी यूँ ही मुलुर मुलुर तकते मुझको वो दो नैन,
वो प्रखर से शब्द मुझको करते हैं बेचैन,
फिर मूक वधिर बन कभी लूटते मन का चैन,
व्यथा में बीतते ये पल, न कटते ये दिन न ये रैन.....

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

कभी निर्झरणी सी बह गई वो नैनों से अश्रुधार बन,
स्तब्ध मौन रही कभी नील गगन बन,
या रिमझिम बारिश सी भिगो गई तन्हा ये मन,
खलिश है ये कोई, या है ये कई जन्मों का बंधन.....

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

Sunday 4 December 2016

क्या महज कल्पना?

क्युँ मैं हर पल सोचता हूँ बस तुमको ही,
यह जानकर भी कि तुम महज इक कल्पना नहीं,
इक स्वर, इक रूप साकार सी हो तुम,
जागृत सपनों में रची बसी मूर्त स्वरूप हो तुम,
विचरती हो कहीं न कहीं इन्ही हवाओं में,
गाती हो धुन कोई इन्ही फिजाओं में,
फिर भी, न जाने क्यूँ ढूंढता हूँ मैं तुम्हें ख्यालों में!

क्यूँ ये मन सोचता है हर पल तुझको ही सवालों में?

लगता है कभी, जैसे बिखरे से होंगे बाल तेरे,
रख न पाती होगी खुद अपना ख्याल तुम,
गुम सी हो चुकी हो, उलझनों में जिंदगी की कहीं,
पर तुम परेशानियाँ अपनी बयाँ करती नही,
संभालकर दामन के काटें रख रही हो सहेजकर,
पर...! क्यूँ मैं करता हूँ हर पल तेरी फिकर?

क्यूँ! बस तुझको ही, ये मन सोचता है हर पल इधर?

रब से मैं मांग लेता हूँ, बस तेरी ही खैरो-खबर,
दुआएँ तुझको मिले, नजरें तू फेरे जिधर,
बिखरी हुई तेरी जिन्दगी, बस पल में यूँ ही जाए सँवर,
मिल जाए तुझको हर परेशानियों के हल,
सँवरती ही रहो, जब भी ख्यालों में तुम करो सफर,
फिर सोचता हूँ मैं, अधिकार क्या है मेरा तुम पर?

क्यूँ! ये मन तुझको सोचकर, बस करता है तेरी फिकर?

Tuesday 1 November 2016

प्रेम कल्पना

इक दिवा स्वप्न में ढ़लकर, संग मेरे तुम चल रहे ....
कल्पना की चादर मे सिमटी, तुम जीवन में ढ़ल रहे ....

अब गीत विरह के गाने को,
कोई पल ना आयेगा,
मन के मधुबन में ओ मीते,
प्रेम प्रबल हो गायेगा..............

सुरमई गीतों में रचकर, सरगम मे तुम ढल रहे ....
कल्पना की चादर मे सिमटी, तुम जीवन में ढ़ल रहे ....

अब एकाकी ही रह जाने को,
कोई मन ना तड़पेगा,
मन के आंगन में ओ मेरे मीते,
तन्हाई गीतों संग गूंजेगा............

संध्या प्रहर ये सुनहरी, भावों में तुम पल रहे ....
कल्पना की चादर मे सिमटी, तुम जीवन में ढ़ल रहे ....

अब मोहनी सी मूरत देखने को,
कोई पल न रिझाएगा,
सांझ प्रहर क्षितिज नित ओ मीते ,
सूरत तेरी  ही दिखलाएगा..........

गूढ़ शब्द बन तुम मिले, अर्थ में तुम ढ़ल रहे.....
कल्पना की चादर मे सिमटी, तुम जीवन में ढ़ल रहे ....

अब भाव हृदय के पढ़ पाने को,
कोई मन ना तरसेगा,
गूढ़ रहस्य उन शब्दों के ओ मीते,
नैन तेरे मुझसे कह जाएगा..........

इक दिवा स्वप्न की भांति, संग मेरे तुम चल रहे ....
कल्पना की चादर मे सिमटी, तुम जीवन में ढ़ल रहे ....

Sunday 29 May 2016

मधुमय मुक्ताकाश

जीवन को मधुमय मधुमास बन जाने दो....

करुणा के भावमय मुक्ताकाश पर,
स्नेह का असीम विस्तार हो जाने दो,
जहाँ मुक्त हो हृदय के कंपन,
करुण प्रेम का प्रगाढ़ आभाष हो जाने दो,

जीवन को मधुमय मधुमास बन जाने दो....

कल्पना के विचरते मुक्ताकाश पर,
मानस पटल के विहग को उड़ जाने दो,
जहाँ विचरती हों कल्पनाशीलता,
मन की आशाओं को पंख लग जाने दो,

जीवन को मधुमय मधुमास बन जाने दो....

अभिलाषा के अनंत मुक्ताकाश पर,
विपुल आकांक्षाओं को प्रबल हो जाने दो,
जहाँ आसक्ति अनुराग हो मन में,
अंतःकरण के प्रसून प्रष्फुटित हो जाने दो,

जीवन को मधुमय मधुमास बन जाने दो....

Thursday 28 April 2016

अपरिचित अपना सा

परिचित ही था मेरा वो, अपरिचित मुझको कब था वो!

यह कैसा परिचय, एक अपरिचित शख्स से,
ओझल है जो अबतक परिचय की नजरों से,
कल्पना की सतरंगी घोड़ों पर चढ़ आता वो,
परिचय की किन डोरों से मन को बांधता वो।

परिचित लगता अब वो, अपरिचित मुझको कब था वो!

हम कहते है जिसे परिचय, क्या सच में है वो,
या प्रतिविम्ब है इक, या बस इक छलावा वो,
अपरिचित सा जब भी कोई इस जीवन में हो,
प्रश्न अनेंकों मन में, उठने लगते न जाने क्यों।

परिचित होने से पहले, अपरिचित से लगते क्युँ वो!

कल्पना हो या छलावा, मन को है प्यारा वो,
अन-सुने गीत यादों में, हर पल गनुगुनाता वो,
अनुराग स्पर्श के, कल्पनाओं में अलापता वो,
जन्मों का ये परिचय, अपरिचित कब था वो।

परिचित सदियों से वो, अपरिचित मुझको  कब था वो!

Thursday 7 January 2016

कौन तुम

अधरों पे अधखुली सी मुस्कान,
अपलक देखती हो तुम अंजान,
नयन तरकश छोड़ते कई वाण,
कौन तुम, बस गई जो हिय आन।

हिरण सदृश चपल चंचल नयन,
आभा मुख उसके अति-सुहावन,
विस्मित करते तेरे मधुर मुस्कान,
कौन तुम, रम गई जो मन प्राण।

तू महज सपना या साकार तुम,
तुम अनन्त हो या आकार  तुम,
या किसी कवि की कल्पना तुम,
कौन तुम, बिन तेरे आकुल प्राण।

Tuesday 5 January 2016

चिर प्रेयसी, अनन्त-प्रणयिनी


तुम मेरी चिर प्रेयसी,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी।

काल सीमा से परे हमारा प्रणय,
चिर प्रेयसी तुम जन्म-जन्न्मातर से,
मेरी कल्पनाओं में बहती निर्बाध प्रवाह सी,
इस जीवन-वृत्त के पुनर्जन्म की स्मृति सी,
विस्तृत अन्तर्दृष्टि पर मोह आवरण जैसी।

तुम मेरी चिर प्रेयसी,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी।

तुम अप्राप्य निधि जीवन वृत्त की,
तुम अतृप्त तृष्णा जन्म-जन्मान्तर की,
लुप्त हो जाती है जो आँखों में आकर,
क्या अपूर्ण तृष्णा की तृप्ति कभी हो पाएगी?
क्या तृष्णा-तृप्ति में समाहित हो पाएँगी?

तुम मेरी चिर प्रेयसी,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी।

Sunday 3 January 2016

शायद तू रहती होगी वहाँ

चाँद की ओट के पीछे,
सितारों की हद से भी दूर,
गम की सरहदों के पार,
ख्वाबों में कहीं इक दुनियाँ,
शायद तू रहती होगी वहाँ।

पर्वतों के सायों के पीछे,
मन की कल्पनाओं से भी दूर,
ख्यालों की सरहदों के पार,
हसीन सी कहीं है वादियाँ,
शायद तू रहती होगी वहाँ।

हसरतों की सदाओं के पीछे,
रंजो-गम की पहुँच से भी दूर,
अवसाद-विसाद की सरहदों के पार,
मुखरित होती सुंदर सी कलियाँ,
शायद तू रहती होगी वहाँ।