Thursday, 17 March 2016

कड़कती धूप मे तड़पती एक जिन्दगी

भाग्य कैसा! कड़कती धूप मे तड़पती एक जिन्दगी वो!

मरुस्थल के सूखी गर्म रेत सी जिन्दगी वो,
मन का आँगन दूर तक विराना,
बालूका तट सी झिलमिल आँखो के कोर,
हृदय में उठती रेत के समुन्दरों के अगनित ज्वर।

प्रारब्ध कैसी! धूप मे तड़पती रही उस जिन्दगी के स्वर!

रेगिस्तान की तपती धूलकण सी जिन्दगी वो,
शरीर रेतकण के ढेर सी ढही हुई,
सैकत ही सैकत दूर तक कोई गीलापन नहीं,
होंठ की कोर में सुलगते दुःखों के असंख्य स्वर।

विधि कैसी! धूप मे तड़पती रही उस जिन्दगी के स्वर!

पिक कहुकिनी वो, पर भूल चुकी थी गाना वो,
सूख चुके थे मन के कानन वन उसके,
अंतर की ध्रुवगंगा सुखी मधुऋतु के इंतजार में,
चेतनतत्व की आसमा से गुजर रहा निर्जल पयोधर।

नियति कैसी! धूप मे तड़पती रही उस जिन्दगी के स्वर!

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