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Saturday 18 November 2017

आज क्युँ?

आज क्युँ ?
कुछ बिखरा-बिखरा सा लगता है,
मन के अन्दर ही, कुछ उजड़ा-उजड़ा सा लगता है,
बाहर चल रही, कुछ सनसन करती सर्द हवाएँ,
मन के मौसम में,
कुछ गर्म हवा सा शायद बहता है.......

आज क्युँ ?
कुछ खुद को समेट नहीं पाता हूँ मैं,
बस्ती उजड़ी है मन की, बसा क्युँ नहीं पाता हूँ मैं,
इन सर्द हवाओं में, उष्मा ये कैसी है मन में,
गुमसुम चुप सा ये,
कुछ बीमार तन्हा-उदास सा रहता है......

आज क्युँ ?
खामोश से इस मन में सवाल कई हैं,
खामोशी ये मन की, बस इत्तफाक सा लगता है,
सवालों के घेरे में, कैसे घिरा-घिरा है ये मन,
अबतक चुप था ये,
कुछ बेवशी के राज खोल रहा लगता है......

आज क्युँ ?
कुछ खुद से ही बेगाना हुआ हूँ मैं,
बेजार सा ये तन, मन से कहीं दूर सा दिखता है,
दर्द यही शायद, सह रहा आज तक ये मन,
सर्द सी ये हवाएँ,
कुछ चुभन के द॔श दे रहा लगता है......

आज क्युँ ?
कुछ अनचाही सी बेलें उग आई हैं,
मन की तरुणाई पर, कोई परछाई सा लगता है,
बिखरे हो टूट कर पतझड़ में जैसे ये पत्ते,
वैसा ही बेजार ये,
कुछ अनमना या बेपरवाह सा लगता है.......

Saturday 11 November 2017

रेत सा लम्हा

वक्त की झोली में, अनंत लम्हे हैं भरे,
जीते जागते से, बिल्कुल हरे भरे...
क्युँ न मांग लूं, वक्त से मैं भी एक लम्हा,
चुपचाप क्युँ रहूँ मैं इस पल तन्हा.....?

होगा कोई तो लम्हा, मेरे भी नाम का,
भीड़-भाड़ में, हो जो मेरे काम का,
क्यूँ न ढूंढ़ लूँ, उस झोली से वो एक लम्हा,
तन्हा गुजार लूँ, मै वो ही लम्हा.....!

लम्हा न ऐसा कोई, बस होता जो मेरा,
करता रहा अनसूना, वक्त भी मेरा,
वक्त के हाथों कभी, छूटा था कोई लम्हा,
पास है मेरे, पर रेत सा है तन्हा......!

दूर दूर तक, लम्हों के रेत किसने बिखेरे,
रेत के वो लम्हे, अब तेरे है न मेरे!
दिया था वक्त ने, हरा-भरा जीवंत लम्हा,
भाग्य में मेरे, बस रेत सा लम्हा.....!

Sunday 25 September 2016

आ जाऊँगा मैं

इक अक्श हूँ, ख्यालों में ढल जाऊँगा मैं,
सोचोगे जब भी तुम, सामने नजरों के आ जाऊँगा मैं...

जब दरारें तन्हा लम्हों में आ जाए,
वक्त के कंटक समय की सेज पर बिछ जाएँ,
दुर्गम सी हो जाएँ जब मंजिल की राहें,
तुम आहें मत भरना, याद मुझे फिर कर लेना,
दरारें उन लम्हों के भरने को आ जाऊँगा मैं......

इक अक्श हूँ, ख्यालों में ढल जाऊँगा मैं,
सोचोगे जब भी तुम, सामने नजरों के आ जाऊँगा मैं...

जब लगने लगे मरघट सी ये तन्हाई,
एकाकीपन जीवन में जब लेती हो अंगड़ाई,
कटते ना हों जब मुश्किल से वो लम्हे,
तुम आँखे भींच लेना, याद मुझे फिर कर लेना,
एकाकीपन तन्हाई के हरने को आ जाऊँगा मैं.....

इक अक्श हूँ, ख्यालों में ढल जाऊँगा मैं,
सोचोगे जब भी तुम, सामने नजरों के आ जाऊँगा मैं...

भीग रही हो जब बोझिल सी पलकें,
विरह के आँसू बरबस आँचल पे आ ढलके,
हृदय कंपित हो जब गम में जोरों से,
तुम टूटकर न बिखरना, याद मुझे फिर कर लेना,
पलकों से मोती चुन लेने को आ जाऊँगा मैं,

इक अक्श हूँ, ख्यालों में ढल जाऊँगा मैं,
सोचोगे जब भी तुम, सामने नजरों के आ जाऊँगा मैं...

Tuesday 5 July 2016

व्यर्थ के आँसू

शायद जीवन इस जग में मुझ जैसा ही सबका!

सभी काटते जीवन में तन्हा ही,
अपनी विरह-भरी विभावरी,
व्यर्थ लुटाते गम में चिर सुख की निधि,
न बट सकी, न घट सकी,
अपने-अपने हिस्से की विरह-घिरी विभावरी।

घटते ना जीवन के कुछ गम,
दुख में करते रोदन-गायन,
व्यर्थ ही जाते ये मोतियों से छलकते आँसू,
न बट सकी, ना ही घटी,
अपने-अपने हिस्से की तम भरी विभावरी।

शायद जीवन इस जग में मुझ जैसा ही सबका!

Thursday 19 May 2016

रिश्ता

रिश्तों की नर्म भूमि पर ही,
सोते, जगते और सपने देखते हैं हम,
ये रिश्ते दिलों के करीब ना हों तो,
उम्र भर बस रोते और सिसकते हैं हम।

जुड़ते हैं जब रिश्ते नाजुक नए,
कई आँखों को नम कर जाते हैं ये,
फिसले जो हाथों से कुछ रिश्ते,
आँखों के बंद होने तक तड़पाते हैं ये।

खेलते हैं जो ऱिश्तों में भावना से,
वो हृदय कोमल नहीं पत्थर का है इक टुकड़ा,
कच्चे धागों की गर्माहट से है दूर वो,
इस भीड़ में जीवन की बस तन्हा ही वो रहा ।

Sunday 10 April 2016

तन्हाईयाँ मेरी कविता

तन्हाई मे ही कविता है, तन्हाई जीवन का दर्पण है!

कई बार हम तन्हा होते हैं,
तन्हाईयों से हम तब बातें करते हैं,
सच कहुँ तो, तन्हाईयों सा साथ जग कहाँ देते हैं।

ऊबती नहीं कभी वो मुझसे,
बातें मन की लाख तन्हाईयों से कर लो,
चुपचाप सुनती रहती हैं, मेरी अनाप-सनाप बातें।

विचलित पलभर को ना होती,
तन्हाई मे वो मेरे मन की गहराई तोलती,
झकझोरती मन के तार, फिर विस्मित कर देती।

मन का कवि फिर बोलता है,
ऐ तन्हाई तू तो कोलाहल से अच्छा है,
तन्हाईयों मे कल फिर मिलना, तू ही तो कविता है।

प्यार में तन्हाई के हम होते हैं,
तन्हाईयों में तब हम खुद से मिलते हैं,
खुद से मिलना गैरों से मिलने से तो ज्यादा अच्छा है।

तन्हाई मे ही कविता है, तन्हाई जीवन का दर्पण है।

उम्र के साथी

आ गई अब उम्र वो, तलाशता हूँ जिन्दगी को,
उम्र की इस दहलीज पे, साथ मेरे कोई तो हो।

कभी मगन हो लिए हम, खुद अपने ही आप में,
फिर कभी तलाशता हूँ, खुद में अपने आप को।

कहते हैं जिन्हे अपना हम, दिखते हैं वो दूर से,
पास अपनी इक जिन्दगी, क्युँ रहें हम मायूश से।

जिन्दगी की प्यारी सी धुन, हर घड़ी बजती रहे,
साए सी तुम संग-संग रहो, जिन्दगी चलती रहे।

तन्हा हैं जो इस सफर में, हम उनकी जिन्दगी बनें,
कुछ लम्हें जिन्दगीे, संग उनके भी हम गुजार लें।

खिल-खिलाएगी ये जिन्दगी, जहाँ तेरे कदम पड़े,
तलाशेंगी ये तुमको खुशी, उठकर आप कहाँ चले।

उम्र गुजर जाएगी ये, जिन्दगी के आस-पास ही,
साथी तेरे कहलाएंगे ये, इस जिन्दगी के बाद भी।

Monday 22 February 2016

निःस्तब्ध रात्रि वेला

नि:स्तब्ध रात्रि 
अन्ध तिमिर अलबेला,
चाँदनी सौं नभ
रंजित सुसमित यह वेला,
विकल प्राण दो 
मिलने को आतुर ।

पूरित पूर्णिमा
मुखरित सी छवि,
बिखरी नर्म सी चाँदनी,
निखरी निखरी,
मलिन मुख काँति।

लहरों के घर,
 जा रही सर्द सी रौशनी,
इन लमहों में,
 छू रही हैं सर्द सी हवायें
तन्हा सा मन,
तन्हा लग रहे अब अपने साये
याद कोई तब आए.....

Wednesday 27 January 2016

उम्मीद

छंद रचता कोई गीत गाता उम्मीद का,
हसरतें पलती दिलों मे इक उम्मीद की।

ख्वाहिशें पुरस्सर हुई हैं यहाँ उम्मीद से,
फूल खिलते वादियों मे इक उम्मीद से।

तन्हा बसर करता जहाँ इक उम्मीद से,
उम्र कटती गालिबों की इक उम्मीद से।

कोई छोड़ पाता नहीं दामन उम्मीद का,
मुफलिसी में भी पला लम्हा उम्मीद का।

उम्र भर उम्मीद की पंख लिए उड़ते रहे,
पंख उम्मीदों के यहाँ हर पल कतरे गए।

Wednesday 20 January 2016

तुम्हारी यादों के संग

दिल तन्हा भटक रहा वादियों में,
सुरमई यादों के साये,
उड़ रहा बादलों के संग मे।

तुम छिपे हो किन परछाईयों मे,
मेरे गीत तुझको पुकारते,
मचल कर हवाओं के संग में।

शमां बदल रहा है मदहोशियों मे,
दिये जल रहे सुलगते,
बेचैनियाँ अब तन्हाईयों के संग में।

गुफ्तगु कर रहा दिल विरानियों मे,
अपनी ही परछाईयों से,
दब चुके खामोशियों के संग में।