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Tuesday 13 April 2021

गैर लगे मन

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

गैर लगे, अपना ही मन,
हारे, हर क्षण,
बिसारे, राह निहारे,
करे क्या!
देखे, रुक-रुक वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

तन्हा पल, काटे न कटे,
जागे, नैन थके,
भटके, रैन गुजारे,
करे क्या!
ताके, तेरा पथ वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

इक बेचारा, तन्हा तारा,
गगन से, हारा,
पराया, जग सारा,
करे क्या! 
जागे, गुम-सुम वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

संग-संग, तुम होते गर,
तन्हा ये अंबर,
रचा लेते, स्वयंवर,
करे क्या!
हारे, खुद से वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!


- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 6 September 2020

"वो कौन" रहे तुम

मौन रहे तुम, हमेशा ही, "वो कौन" रहे तुम!
देखा ना तुमको, जाना ना तुमको!
संभव था, पा लेता, इक अधूरा सा अनुभव!
गर एहसासों में, भर पाता तुमको!

पर, शायद, शंकाओं के बंद घेरों में थे तुम!
या अपने होकर भी, गैरों में थे हम!
कदाचित, सर्वदा सारे अधिकारों से वंचित!
जाने क्यूँ,  रहा फिर भी चिंतित!

कोशिश है, बस यूँ , गढ़ लूँ इक छवि तेरी!
चुन लूँ उधेर-बुन, बुन लूँ यूँ तुमको!
कर लूँ बातें, समझाऊँ क्यूँ होती है बरसातें?
किंचित सूनी सी हैं, क्यूँ मेरी रातें!

छवि में, मौन रहे तुम, "वो कौन" रहे तुम!
कह भी पाती, क्या वो छवि मुझको?
शंकाकुल मन तेरा, दीपक तले जगा अंधेरा,
बुझ-बुझ जलता, विह्वल मन मेरा!

उभरेंगे अक्षर, कभी तो उन दस्तावेजों पर!
पलट कर पन्ने, तुम पढ़ना उनको,
बीते हर किस्से का, उपांतसाक्षी होऊँगा मैं,
जागूंगा तुममें,  फिर ना सोऊंगा मैं!

यूँ भी उपांतसाक्षी हूँ मैं, हर शंकाओं का!
जाने अंजाने, उन दुविधाओं का,
उकेरे हैं जहाँ, एकाकी पलों के अभिलेख,
बिखेरे हैं जहाँ, अनगढ़े से आलेख!

पर मौन रहे तुम, सर्वदा "वो कौन" रहे तुम!
भावहीन रहे तुम, विलीन रहे तुम!
संभव था, ले पाता, वो अधूरा सा अनुभव!
गर सुन पाता, तेरे धड़कन की रव!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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उपांतसाक्षी - वह साक्षी या गवाह जिसने किसी दस्तावेज़ के उपांत या हाशिये पर हस्ताक्षर किया हो या अँगूठे का निशान लगाया हो।

Thursday 16 April 2020

बिछड़न

दो साँसों की, बहती दोराहों में,
बिछड़े बहुतेरे...
बिखरे पत्तों पर, रोया कब तरुवर, 
टूटे पत्थर पर, रोया कब गिरिवर,
ये, जीवन के फेरे!

लय अपनी ही, फिर भी, चलती है साँसें,
बस, दो पल आह, हृदय भर लेता है,
फिर, राह पकड़, चल पड़ता है,
बहते नैनों मे, फिर भर जाते हैं सपने,
फिर, गैर कई, बन जाते हैं अपने!
देकर सपन सुनहरे!

दो साँसों की, बहती दोराहों में,
बिछड़े बहुतेरे...

कब टूटे तारों पर, शोक मनाता है अंबर,
बस, दो पल, ठिठक, जरा जाता है,
फिर, चंदा संग, वो इठलाता है,
फिर, लगते हैं घुलने, दो भाव परस्पर,
सँवर उठता है, संग तारों के अंबर!
कट जाते हैं अंधेरे!

दो साँसों की, बहती दोराहों में,
बिछड़े बहुतेरे...

शायद, जीवन का, आशय है, बिछड़न,
आँसू संग, हृदय जरा धुल जाता है,
पल विरह का, यूँ टल जाता है,
फिर, बनती है, जीवन की, इक धुन,
छनक उठती है, पायल रुन-झुन!
सूने हृदय बहुतेरे!

सूनी राहों पर, चल पड़ता है सहचर,
कोई राही, बन जाता है रहबर,
ये, जीवन के घेरे!
दो साँसों की, बहती दोराहों में,
बिछड़े बहुतेरे...

-पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 31 December 2017

मेरा ही साया

वो नही कोई पराया, था वो बस मेरा ही साया.......

छाँव तनिक न जिसे रास आया,
कड़ी धूप में ही वो खिल खिलाया,
तन्हा मगर उसने खुद को पाया,
वो कोई और नहीं, था वो मेरा ही साया.......

रहा ढूंढता वो सदा मेरी ही काया,
मेरी ही सासों की धुन पर वो गाया,
पाँवों तले जिसने जीवन बिताया,
वो कोई गैर नहीं, था वो मेरा ही साया.......

किया उम्र भर जिसको पराया,
उसके बिना मैं कभी जी न पाया,
इर्द गिर्द मेरे वो सदा मंडराया,
वो कोई गैर नहीं, था वो मेरा ही साया.......

स्पर्श वो ही मेरा हृदय कर गया,
हाथों से जिसको कभी छू न पाया,
न ममता ने जिसको सहलाया,
वो! पराया नहीं,  था वो मेरा ही साया.......

आत्मा में अब वो मेरे समाया,
घड़ी अन्त का, जब निकट आया,
सिरहाने ही मैने उसको पाया,
वो कोई और नहीं, था वो मेरा ही साया.......

जब चिता पर गया मैं लिटाया,
मुझसे पहले वहाँ आया वो साया,
हौले से उसने भी सहलाया,
वो कोई और नहीं, था वो मेरा ही साया.......

Sunday 10 April 2016

तन्हाईयाँ मेरी कविता

तन्हाई मे ही कविता है, तन्हाई जीवन का दर्पण है!

कई बार हम तन्हा होते हैं,
तन्हाईयों से हम तब बातें करते हैं,
सच कहुँ तो, तन्हाईयों सा साथ जग कहाँ देते हैं।

ऊबती नहीं कभी वो मुझसे,
बातें मन की लाख तन्हाईयों से कर लो,
चुपचाप सुनती रहती हैं, मेरी अनाप-सनाप बातें।

विचलित पलभर को ना होती,
तन्हाई मे वो मेरे मन की गहराई तोलती,
झकझोरती मन के तार, फिर विस्मित कर देती।

मन का कवि फिर बोलता है,
ऐ तन्हाई तू तो कोलाहल से अच्छा है,
तन्हाईयों मे कल फिर मिलना, तू ही तो कविता है।

प्यार में तन्हाई के हम होते हैं,
तन्हाईयों में तब हम खुद से मिलते हैं,
खुद से मिलना गैरों से मिलने से तो ज्यादा अच्छा है।

तन्हाई मे ही कविता है, तन्हाई जीवन का दर्पण है।