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Wednesday 25 May 2016

साहिलों पे कहीं

लिखते रहे जिन्दगी की किताब सूखी साहिलों पे कहीं...

डोलती सी इक पतवार की तरह,
दूर खोए कहीं अपनी साहिल से वो थे,
उनकी फितरत तो थी टूटते एतवार की तरह,
वो साहिल के कभी तलबगार ही न थे।

मैं किताबों में बंद कहानी सा खोया साहिलों पे कहीं...

वो भँवर में रहे डूबते मौजों की तरह,
कहीं बेखबर जिन्दगी की कहानी से वो थे,
उनकी चाहत तो रही डूबते इन्तजार की तरह,
वो साहिलों के कहीं मुकाबिल ही न थे।

बिखरा है ये जीवन इन्तजार में उसी साहिलों पे कहीं...

Monday 11 April 2016

अर्थ

इंतजार.....!

कैसा इन्तजार?
अर्थहीन हैं ....
इंतजार की बातें सभी!

हर शख्स....!

तन्हा यहाँ,
अब किसी को
किसी का इंतजार नहींं!

हर लम्हा ....!

जुदा है यहाँ ....
दूसरे लम्हे से.........
लम्हा जीता खुद में ही!

पल......!

आने वाला पल...
किसी का
तलबगार नहीं!

अर्थ....!

ढू़ढ़ता है हर पल,
खुद से खुद मेंं....
बस अपने आप में ही!