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Wednesday 17 February 2021

कैसा भँवर

जाने क्यूँ? बह पड़े हैं, सारे भाव!
अन्तः, जाने कैसा है भँवर!
पीड़ असहज, दे रहे हृदय के घाव!
ज्यूँ फूट पड़े हैं छाले!

पर, अब तक, बड़ा सहज था मैं!
या, कुछ ना-समझ था मैं?
शायद, अंजाना सा, यह प्रतिश्राव,
आ लिपटा है मुझसे!

शायद, जाग रही, सोई संवेदना,
या, चैतन्य हो चली चेतना!
या, हृदय चाहता, कोई एक पड़ाव,
आहत होने से पहले!

जाने क्यूँ, अनमनस्क से हैं भाव!
अन्तः, उठ रहा कैसा ज्वर!
कंपित सा हृदय, पल्पित सा घाव!
ज्यूँ छलक रहे प्याले!

भँवर या प्रतिश्राव, तीव्र ये बहाव,
समेट लूँ, सारे बहते भाव!
रोक लूँ, ले चलूँ, ऊँचे किनारों पर,
बिखर जाने से पहले!

जरा, समेट लूँ, यह आत्म-चेतना,
फिर कर पाऊंगा विवेचना!
व्याकुल कर जाएगा, ये प्रतिश्राव,
संभल जाने से पहले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 17 July 2019

ये विदाई

विदाई, पल ये फिर आई,
बदरी सावन की, नयनन में छाई,
बूँदों से, ये गगरी भर आई,
रोके सकें कैसे, इन अँसुवन को,
ये लहर, ये भँवर खारेपन की,
रख देती हैं, झक-झोर!

भीग चले हैं, हृदय के कोर,
कोई खींच रहा है, विरहा के डोर,
समझाऊँ कैसे, इस मन को,
दूर कहाँ ले जाऊँ, इस बैरन को,
जिद करता, है ये जाने की,
हर पल, तेरी ही ओर!

धड़कता था, जब तेरा मन,
विहँसता था, तुम संग ये आँगन,
कल से ही, ये ढ़ूंढ़ेगी तुझको,
इक सूनापन, तड़पाएंगी इनको,
कोई डोर, तेरे अपनत्व की,
खीचेंगी, तेरी ही ओर!

विदा तो, हो जाओगे तुम,
मन से जुदा, ना हो पाओगे तुम,
ले तो जाओगे, इस तन को,
ले जाओगे कैसे, इस मन को,
छाँव घनेरी, इन यादों की,
राहों को, देंगी मोड़!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 28 March 2018

भावनाओं के भँवर

ये आकर फसे हैं हम कहाँ.......
भावनाओं के भँवर में,
यातनाओं के इस सफर में,
रात मे या दोपहर में....

खुश कितने ही थे हम यहाँ......
प्रस्फुटित हुई जब भावना,
मोह वही दे रही ये प्रताड़ना,
मन के इस खंडहर में.....

कलपते रहे जब तक यहाँ......
पुलकित हुई ये भावना,
सैलाब है अब आँसुओं का,
हम फसे उसी भँवर में......

यातनाओं का ये कहर यहाँ....
देती रहेगी ये भावना,
मुखरित होती है ये और भी,
विछोह हो जब सफर मे......

ये विदाई के तमाम पल यहाँ....
भावनाए होती है जवाँ,
तब विलखते हैं हम यातना में,
खुशियों के इसी शहर में....

ये आकर फसे हैं हम कहाँ.......
भावनाओं के भँवर में,
यातनाओं के इस सफर में,
रात मे या दोपहर में....

Friday 12 January 2018

वही पल

गूंजते से पल वही, कहते हैं मुझको चल कहीं.........

निर्बाध समय के, इस मौन बहती सी धार में,
वियावान में, घटाटोप से अंधकार में,
हिचकोले लेती, जीवन की कश्ती,
बलखाती सी, कभी डूबती, कभी तैरती,
बह रही थी कहीं, यूँ ही बिन पतवार के,
भँवर के तीव्र वार में, कोई पतवार थामे हाथ में,
मिल गए थे तुम, इस बहती सी मौन धार में...

टूटा था सहसा, तभी मौन इक पल को,
संवाद कोई था मिला, इस मौन जीवन को,
जैसे दिशा मिल गई थी कश्ती को,
किनारा मिला था वियावान जीवन को,
प्रस्फुटित हुई, कहीं इक रौशनी की किरण,
लेकिन छल गई थी मेरी ये खुशी, उस भँवर को,
गुम हुए थे तुम, इस बहती सी मौन धार में...

समय के गर्त से, अब गूंजते है पल वही,
निर्जन सी राह पर, कहते हैं मुझको चल कहीं,
दिशाहीन कश्ती न जाने कहाँ चली,
मौन है हर तरफ, इक आवाज है बस वही,
कांपते से बदन में जागती सिहरन वही
रुग्ण सी फिजाएँ, वही पिघलती ठंढ सी हवाएँ,
बह रहे थे तुम, इस बहती सी मौन धार में...

बहती सी मौन धार में, अब गूंजते से पल वही........

Thursday 19 October 2017

बेखबर

काश! मिल पाता मुझे मेरी ही तमन्नाओं का शहर!

चल पड़े थे कदम उन हसरतों के डगर,
बस फासले थे जहाँ, न थी मंजिल की खबर,
गुम अंधेरों में कहीं, था वो चाहतों का सफर,
बस ढूंढता ही रहा, मैं मेरी तमन्नाओं का शहर!

बरबस खींचती रहीं जिन्दगी मुझे कहीं,
हाथ बस दो पल मिले, दिल कभी मिले नहीं,
शख्स कई मिले, पर वो बंदगी मिली नही,
बस ढूंढता ही रहा, मैं मेरी तमन्नाओं का शहर!

साहिल था सामने, बस पावों में थे भँवर,
बहती हुई इस धार में, बहते रहे हम बेखबर,
बांध टूटते रहे, टूटता रहा मेरा सबर,
बस ढूंढता ही रहा, मैं मेरी तमन्नाओं का शहर!

हसरतें तमाम यूँ ही लेती रही अंगड़ाई,
कट गए उम्र तमाम, साथ आई है ये तन्हाई,
तन्हा है चाहत मेरी, तन्हा है अब ये सफर,
बस ढूंढता ही रहा, मैं मेरी तमन्नाओं का शहर!

काश! मिल पाता मुझे मेरी ही तमन्नाओं का शहर!

Wednesday 25 May 2016

साहिलों पे कहीं

लिखते रहे जिन्दगी की किताब सूखी साहिलों पे कहीं...

डोलती सी इक पतवार की तरह,
दूर खोए कहीं अपनी साहिल से वो थे,
उनकी फितरत तो थी टूटते एतवार की तरह,
वो साहिल के कभी तलबगार ही न थे।

मैं किताबों में बंद कहानी सा खोया साहिलों पे कहीं...

वो भँवर में रहे डूबते मौजों की तरह,
कहीं बेखबर जिन्दगी की कहानी से वो थे,
उनकी चाहत तो रही डूबते इन्तजार की तरह,
वो साहिलों के कहीं मुकाबिल ही न थे।

बिखरा है ये जीवन इन्तजार में उसी साहिलों पे कहीं...

Thursday 10 March 2016

दो तीरों के बीच

नदी के तीरे खड़ा, पर ढ़ूंढ़ता किनारा,
कैसी है यह दुविधा, कैसी जीवनधारा,
दो तीरों के बीच, भँवर सा मन बावरा,
डगमग जीवन की नैया ढ़ूंढ़ता सहारा।

दो तीर जीवन के, सुख-दु:ख का मेला,
पल खुशियों के कम, लेकिन अलबेला,
किस दुविधा में तू, क्युँ तू यहाँ अकेला,
ढ़ूंढ़ ले अपनी खुशियाँ,भूल जा झमेला।

तीर किनारे नाव कई, दूर नहीं तेरा गाँव,
तू चुन अपनी नाव, देख फिसले न पाँव,
राह कठिन थोड़ी सी,संयम रख ले ठाँव,
रस्ते कट ही जाएँगे, तू पा जाएगा गाँव।