कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!
गुम है हकीकत, गुमनाम हैं गुजरे हुए कल,
कौन जाने, जीवंत कितने थे वो पल,
कोई कहानी सी, बन चुकी वो,
यादों की निशानी सी, बन चुकी वो,
कोरी हकीकत वो, कौन जाने!
कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!
छूट ही जाते हैं, कहीं उन महफ़िलों में हम,
जैसे रूठ जाते हैं, वो गुजरे हुए क्षण,
लौट कर फिर, न आते हैं वो,
छू कर तन्हाई में, गुजर जाते हैं वो,
बीते वो फसाने, कौन जाने!
कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!
ठहरे हैं आज भी हम, उन्हीं अमराइयों में,
एकाकी से पड़े हैं, इन तन्हाईयों में,
बन कर गूंजती है, आवाज वो
मूंद कर नैन, सुनता हूँ आवाज वो,
ख़ामोशियाँ वो, कौन जाने!
कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!
गुम है हकीकत, गुमनाम हैं गुजरे हुए कल,
कौन जाने, जीवंत कितने थे वो पल,
कोई कहानी सी, बन चुकी वो,
यादों की निशानी सी, बन चुकी वो,
कोरी हकीकत वो, कौन जाने!
कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!
छूट ही जाते हैं, कहीं उन महफ़िलों में हम,
जैसे रूठ जाते हैं, वो गुजरे हुए क्षण,
लौट कर फिर, न आते हैं वो,
छू कर तन्हाई में, गुजर जाते हैं वो,
बीते वो फसाने, कौन जाने!
कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!
ठहरे हैं आज भी हम, उन्हीं अमराइयों में,
एकाकी से पड़े हैं, इन तन्हाईयों में,
बन कर गूंजती है, आवाज वो
मूंद कर नैन, सुनता हूँ आवाज वो,
ख़ामोशियाँ वो, कौन जाने!
कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)