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Sunday, 7 June 2020

फसाने

कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!

गुम है हकीकत, गुमनाम हैं गुजरे हुए कल,
कौन जाने, जीवंत कितने थे वो पल,
कोई कहानी सी, बन चुकी वो,
यादों की निशानी सी, बन चुकी वो,
कोरी हकीकत वो, कौन जाने!

कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!

छूट ही जाते हैं, कहीं उन महफ़िलों में हम,
जैसे रूठ जाते हैं, वो गुजरे हुए क्षण,
लौट कर फिर, न आते हैं वो,
छू कर तन्हाई में, गुजर जाते हैं वो,
बीते वो फसाने, कौन जाने!

कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!

ठहरे हैं आज भी हम, उन्हीं अमराइयों में,
एकाकी से पड़े हैं, इन तन्हाईयों में,
बन कर गूंजती है, आवाज वो
मूंद कर नैन, सुनता हूँ आवाज वो,
ख़ामोशियाँ वो, कौन जाने!

कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 9 March 2020

मेरी परछाईं

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

बीती, जब जीवन की अमराई,
मंद पड़ी, जब जीवन की जुन्हाई,
पास कहीं ना, वो दिखती थी,
शायद, वो थी अब घबराई!

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

शायद वो थी, बस इक हरजाई!
कदमों की लय पर, वो चलती थी,
धूप ढ़ले, बस वो भी ढ़लती थी,
इन, बाहों में, कब आई?

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

ता-उम्र, साथ रही मेरी परछाईं,
थी फिर भी, मेरे हिस्से ही तन्हाई,
गुमसुम, बस चुप वो रहती थी,
पीड़ मेरी, वो पढ़ ना पाई!

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

मुझ बिन, कैसे झेलेगी तन्हाई?
कौन कहेगा, चल ऐ मेरी परछाई,
पीड़ वही, अब वो भी झेलेगी,
कल तक, थी जो इतराई!

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 20 December 2018

ढूंढ लें खुद को

कब तलक, बिसार दें खुद को!
चल कहीं, अमराइयों में ढूंढ लें खुद को....

मैं! न जाने मुझमें हूँ कहाँ?
इस भीड़ में, अस्तित्व मेरा है कहाँ?
तड़प है, घुटन है हर तरफ यहाँ,
इशारे, कर रही है रानाईयाँ,
चल कहीं, रानाईयों में ढूंढ लें खुद को....

कलियाँ, चटकती है जहाँ!
खुश्बू, हवाओं में बिखरती है जहाँ!
प्रशस्त साँसें, खुलती हैं जहाँ!
फैलाती हों दामन वादियां,
चल कहीं, वादियों में ढूंढ लें खुद को....

छू लेगी तन, जब मीठी पवन,
गुद-गुदाएगी तन, हलकी सी छुअन,
मिल लूंगा तब, मैैं खुद से वहाँ,
बातें चंद कर लेंगी तन्हाईयाँ,
चल कहीं, तन्हाईयों में ढूंढ लें खुद को....

मैं कहूँ! खुद की सुन सकूँ!
मन की अपने, कही कुछ पढ़ सकूँ,
लिख सकूँ, कर सकूँ कुछ बयाँ,
मैं भी खिला लूँ अमराइयाँ,
चल कहीं, अमराइयों में ढूंढ लें खुद को....

झूठ ही, कब तलक बिसार दें खुद को....