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Friday, 21 May 2021

लब खोल दो

बोल दो, अबोले बोल दो!
लब, खोल दो!

आज, चुप है क्यूँ ये चूड़ियाँ,
चुप है, क्यूँ पायल,
चुप, हो तुम,
सूने पल को, दो, बोल दो,
लब खोल दो!

छनन-छन, छनकते वो क्षण,
इठलाते से, वो घन,
बहती पवन,
ये, मौन कितने, बोल दो,
लब खोल दो!

पर्वतों पर, झुक रही वो घटा,
न्यारी सी, वो छटा,
विहँसता घटा,
दो बोल, ऐसे ही बोल दो,
लब खोल दो!

घड़ी भर, चैन पा ले, ये मन,
खनक ले, ये क्षण,
आवाज संग,
ये राज, है क्या, बोल दो,
लब खोल दो!

बोल दो, अबोले बोल दो!
लब, खोल दो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 25 July 2019

परिशब्द

यूं ही रहे, एहसासों पर अंकित, कुछ शब्द अनकहे !

एहसासों में पिरोया, लेकिन अध-बुना,
मन में गुंजित, फिर भी अनसुना,
लबों पर अंकित, पर शून्य सा, शब्द बिना!
न हमने कहा, न तुमने सुना!

यूं ही रहे, एहसासों पर अंकित, कुछ शब्द अनकहे !

घुमरते, भटकते, इस काल कपोल में,
न कोई ग्रन्थ, न ही कोई संग्रह,
चुप से रहे, अभिव्यक्त हो न सके बोल में!
खटकते रहे, मन में  रह-रह!

यूं ही रहे, एहसासों पर अंकित, कुछ शब्द अनकहे !

अभिलेखित थे सदा, पर थे निःशब्द,
सुसज्जित, हमेशा रहे थे शब्द,
अव्यवस्थित से क्यूं, न जाने हुए हैं शब्द!
हरकत से, कर रहे वो शब्द!

यूं ही रहे, एहसासों पर अंकित, कुछ शब्द अनकहे !

यूं कब तक, चुप रहे, बिन कुछ कहे,
गुम-सुम सा रहे, हाथों को गहे,
दहशत सी कोई, होने लगी है अब उसे!
वहशत में, शायद कुछ कहे!

यूं ही रहे, एहसासों पर अंकित, कुछ शब्द अनकहे !

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा