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Sunday 11 December 2022

वही धुंध वही कोहरे

वही धुंध, फिर वही कोहरे,
सवेरे-सवेरे!

यूं ही दिन भी, बह चलेगा ओढ़कर चादर,
ज्यूं बंधी हों, पट्टियां आंखों पर,
और चल रहा हो,
इक मुसाफिर, उसी राह पर,
सर पर, एक गठरी धरे,
सवेरे-सवेरे!

वही धुंध, फिर वही कोहरे....

अंजान, उधर, उस रौशनी को क्या खबर,
कि किधर, धुंध की गरी नजर!
कितना है सवेरा,
छुपा है कहां, कितना अंधेरा,
भटकता, किधर आदमी,
सवेरे-सवेरे!

वही धुंध, फिर वही कोहरे....

रहे कब तक, न जाने, धुंध की सियासत,
सहे कब तक, उनकी नसीहत,
कोहरे सा आलम,
बदहवास, पसरे से ये दोराहे,
जाने कहां, लिए जाए,
सवेरे-सवेरे!

वही धुंध, फिर वही कोहरे,
सवेरे-सवेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 11 April 2021

सफर

अंजान सी, राह ये, सफर अंजाना,
बस, चले जा रहे, बेखबर इन रास्तों पर,
दो घड़ी, कहाँ रुक गए!
कदम, दो चार पल, कहाँ थम गए!
ये किसने जाना!

जाना किधर, ये है किसको खबर,
कोई रह-गुजर, रोक ले, ये बाहें थामकर,
खोकर नेह में, रुक गए,
किसी की, स्नेह में, कहाँ झुक गए!
ये किसने जाना!

रोकती है राहें, छाँव, ये सर्द आहें,
पर जाना है मुझको, तू कितना भी चाहे,
भले हम, छाँव में सो गए,
यूँ कहीं ठहराव में, पल भर खो गए!
ये किसने जाना!

कोई पल न जाने, भिगो दे कहाँ, 
ये अँसुअन सी, नदी, ये बहता सा, शमाँ,
विह्वल, जो ये पल हो गए,
इक मझधार में, जाने कहाँ खो गए!
ये किसने जाना!
अंजान सी, राह ये, सफर अंजाना,
बस, चले जा रहे, बेखबर इन रास्तों पर,
दो घड़ी, कहाँ रुक गए!
कदम, दो चार पल, कहाँ थम गए!
ये किसने जाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 31 January 2020

चल कहीं-ऐ दिल

चल कहीं, ऐ दिल, भटक न तू यहाँ!

बहा गई, आँधियाँ,
रहा न शेष, कुछ भी अब यहाँ,
ना वो, इन्तजार है!
अब न कोई, बे-करार है!
रास्ते, वो खो चुके,
तेरे वास्ते, थोड़ा वो रो चुके!
है कौन? 
जिनके वास्ते, तू रुके!
ख्वाब, ना सुना!
न कर, तू ये नादानियाँ!

चल कहीं, ऐ दिल, भटक न तू यहाँ!

न देख, तू ये ख्वाब,
तेरी तरह, है प्यासा ये तालाब,
बचा न वो, आब है!
सूखा सा, अब चेनाब है!
पंक बनी, वो धार,
कहीं दूर, हो चली वो धार!
रिक्त अंक!
अंक-पाश, किसे भरे?
साहिल, ये सूना!
कर न, तू मनमानियाँ!

चल कहीं, ऐ दिल, भटक न तू यहाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 8 April 2019

कहीं हम न हैं

तुम हो, मैं हूँ, सब हैं, पर कहीं न हम हैं!

बस भीड़ है, शून्य को चीड़ता इक शोर है,
अंतहीन सा, ये कोई दौर है,
तुम से कहीं, तुम हो गुम,
मुझसे कहीं, मैं हो चुका हूँ गुम,
थके से हैं लम्हे, लम्हों में कहीं न हम हैं!

जिन्दा हैं जरूरतें, कितनी ही हैं शिकायतें,
मिट गई, नाजुक सी हसरतें,
पिस गए, जरूरतों में तुम,
मिट गए, इन शिकायतों में हम,
चल रही जिन्दगी, जिन्दा कहीं न हम हैं!

वश में न, है ये मन, है बेवश बड़ा ही ये मन,
इसी आग में, जल रहा है मन,
तिल-तिल, जले हो तुम,
पलभर न खुलकर जिये हैं हम,
इक आस है, पास-पास कहीं न हम है!

चल रहे हैं रास्ते, अंतहीन रास्तों के मोड़ हैं,
दूर तक कहीं, ओर है न छोड़ है,
गुम हो, इन रास्तों में तुम,
गुम हैं कहीं इन फासलों में हम,
सफर तो है, हमसफर कहीं न हम हैं!

दूर कहीं दूर, खड़ी है जिन्दगी,
तुम हो, मैं हूँ, सब हैं, पर कहीं न हम हैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 8 March 2018

बहती जमीं

बहते से रास्तों पर, मंजिल को ढॣंढता हूं मैं...
आए न हाथ जो, सपने वही ढॣंढता हूं मैं...

आरजुओं के गुल ढूंढता हूं मैं,
बहती सी इस जमीं पर,
शहर-शहर मन्नतों के घूमता हूं मैं....

बस इक धूल सा उड़ता हूं मै,
इन्ही फिजाओं में कहीं,
बेवश दूर राहों पे भटकता हूं मैं.....

इक वो ही निशान ढूंढता हूं मैं,
बह रही जो रास्तों पर,
ख्वाहिशों के मुकाम ढॣंढता हूं मैं...

बहते से रास्तों पर, मंजिल को ढॣंढता हूं मैं...
आए न हाथ जो, सपने वही ढॣंढता हूं मैं...

Thursday 5 May 2016

वो भूली सी दास्ताँ

भूली सी इक दास्ताँ बन के रह गए हैं अब वो,
यादों में हर पल कभी शुमार रहते थे जो,
कभी अटकती थी वक्त की सुईयाँ जिनकी याद में,
अब अन्जाने से शक्लों में शुमार हो चुके हैं वो।

न जाने क्युँ बेरुखी उनकी बढ़ी कुछ इस कदर,
उन रास्तों से हम, अन्जान से हो चले हैं अब,
अब है मेरी इक अलग दुनियाँ, बेखबर से हुए हैं हम, 
बाकि रही इक कसक, रूठे हैं वो क्युँ अब तलक।

रूठने की वजह, कह भी देते वो मुझको अगर,
बेरुखी की रास्तों पर, वो न होते हमसफर,
खामोशं दिल की महफिलों के, वो न होते रहगुजर,
भूली हुई सी दास्ताँ में, वो न करते कहीं बसर।