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Sunday, 11 December 2022

वही धुंध वही कोहरे

वही धुंध, फिर वही कोहरे,
सवेरे-सवेरे!

यूं ही दिन भी, बह चलेगा ओढ़कर चादर,
ज्यूं बंधी हों, पट्टियां आंखों पर,
और चल रहा हो,
इक मुसाफिर, उसी राह पर,
सर पर, एक गठरी धरे,
सवेरे-सवेरे!

वही धुंध, फिर वही कोहरे....

अंजान, उधर, उस रौशनी को क्या खबर,
कि किधर, धुंध की गरी नजर!
कितना है सवेरा,
छुपा है कहां, कितना अंधेरा,
भटकता, किधर आदमी,
सवेरे-सवेरे!

वही धुंध, फिर वही कोहरे....

रहे कब तक, न जाने, धुंध की सियासत,
सहे कब तक, उनकी नसीहत,
कोहरे सा आलम,
बदहवास, पसरे से ये दोराहे,
जाने कहां, लिए जाए,
सवेरे-सवेरे!

वही धुंध, फिर वही कोहरे,
सवेरे-सवेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 20 December 2020

कोहरे

धुंधले ये कोहरे हैं, या दामन के हैं घेरे,
रुपहली क्षितिज है, या रुपहले से हैं चेहरे,
ठंढ़ी पवन है, या हैं सर्द आहों के डेरे,
सिहरन सी है, तन-मन में,
इक तस्वीर उभर आई है, कोहरों में!

सजल ये दो नैन हैं, या हैं बूंदों के डेरे,
वो आँचल हैं ढ़लके से, या हैं बादल घनेरे,
वो है चिलमन, या हैं हल्के से कोहरे,
हलचल सी है, तन-मन में,
वही रंगत उभर आई है, कोहरों में!

उसी ने, रंग अपने, फलक पर बिखेरे,
रंगत में उसी की, ढ़लने लगे अब ये सवेरे,
वो सारे रंग, जन्नत के, उसी ने उकेरे,
छुवन वो ही है, तन-मन में,
वही चाहत उभर आई है, कोहरों में!

बुनकर कोई धागे, कोई गिनता है घेरे,
चुन कर कई लम्हे, कोई संग लेता है फेरे,
किसी की रात, किन्हीं यादों में गुजरे,
कोई बन्धन है, तन-मन में,
इक तावीर उभर आई है, कोहरों में!

धुंधले ये कोहरे हैं, या दामन के हैं घेरे,
रुपहली क्षितिज है, या रुपहले से हैं चेहरे,
ठंढ़ी पवन है, या हैं सर्द आहों के डेरे,
सिहरन सी है, तन-मन में, 
इक तस्वीर उभर आई है, कोहरों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 19 September 2019

भावुक था मैं?

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

क्यूँ भावनाओं में बहता था मैं!
क्या बेवजह, यूँ बहका-बहका था मैं!
गम औरों के, चुभते थे मुझको,
गैरों के दु:ख में, दुखता था दिल मेरा,
गैरों के टूटे सपनों के टुकड़े,
चुभते थे, आकर मेरी आँखों में,
दे जाती थी, पल-पल यातना,
मुझको, मेरी ही भावना!

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

अन्तहीन, अन्तःपीड़ा के ये घेरे!
व्यथित करते थे, मुझको शाम-सवेरे!
कोई अर्थ समेटे, बेसुध ही लेटे,
उलझी सी आँखें, निरुत्तर सी पलकें,
जैसे, बुत सुन्दर सी कोई,
व्यथित मन के, हाथों थी खोई,
देती थी, पल-पल उलाहना,
मुझको, मेरी ही भावना!

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

रातें थी वो, या उजाले दिन के!
सौगातें थी वो, या थे मन के मनके!
फेरता था मन, रातों में जिनको,
छुपा रखता था, उजाले में दिन के,
निज मन को, निचोड़ कर,
अन्तःज्योत को, कहीं छोडकर,
पहनाती थी, दुख का गहना,
मुझको, मेरी ही भावना!

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

भावना-विहीन, जीवन हो कैसे?
मन तंत्रिकाएँ, संज्ञा-विहीन हो कैसे?
जाऊँ चेतनाओं, से परे कहाँ,
चेतना-शून्य, हो मन कैसे यहाँ?
मूँद लूँ, ये आँखें मैं कैसे,
रोक दूँ, झंकृत स्वर को मैं कैसे?
चाहती थी, मूक वधिर रखना,
मुझको, मेरी ही भावना!

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 17 April 2019

रुहानी बातें-पुरानी बातें

बड़ी ही रुहानी, थी वो पुरानी बातें!

सजाए बदन पर, संस्कारों का गहना,
नजरों का उठना, वो पलकों का गिरना,
लबों का हिलना, मगर कुछ भी न कहना,
शर्मो-हया की, वो ही पर्दों की बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें...

सुबह-सबेरे, उनकी गलियों के फेरे,
भरी दोपहरी, अमुआ के बागों में डेरे,
संध्या-प्रहर, रेडियो संग प्रियजनों के घेरे,
रूमानी रातें, संग सितारों की बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें!

शिष्टता में, कुछ बुजुर्गों से न कहना,
खिदमत में उनकी, गर्व महसूस करना,
प्रथम आशीर्वचन, उन बुजुर्गों से ही लेना,
शिष्टाचार और परम्पराओं की बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें...

खेत-खलिहानों की, वो पगडंडियाँ,
ओस में भीगी हुई, गेहूँ की वो बालियाँ,
भींगकर पैरों में सटी, नाजुक सी पत्तियाँ,
फर्स पर घास की, कई सुहानी बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 5 November 2017

मेरे पल

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

युँ ही उलझ पड़े मुझसे कल सवेरे-सवेरे,
वर्षों ये चुप थे या अंतर्मुखी थे?
संग मेरे खुश थे या मुझ से ही दुखी थे?
सदा मेरे ही होकर क्युँ मुझ से लड़े थे?
सवालों में थे ये अब मुझको ही घेरे!

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

सालों तलक शायद था अनभिज्ञ मैं इनसे,
वो पल मुझ संग यूँ जिया भी तो कैसे?
किस बात पर वो इतना दुखी था?
मैं तो हर उस पल में सदा ही सुखी था!
उलझन बड़ी थी अब सामने मेरे!

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

दबे पाँव देखा टटोलकर उस पल को मैंने,
नब्ज चल रही थी मगर हौले-हौले,
व्याप्त सूनापन, जैसे सुधि कोई ना ले,
रिक्तियों से पूर्ण विरानियों में वो रहा था!
तन्हा ही रहा हरपल वो संग मेरे!

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

झकझोर कर रख दिया था उस पल ने मुझे,
टूटी थी तन्द्रा, अवाक् रह गया था मैं,
था स्वार्थी मैं, निस्वार्थ थी उसकी लगन,
झुंझलाहट में उसके भेद ये खुल चुका था!
फिर भी सहमा सा सामने था वो मेरे!

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......