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Thursday, 25 October 2018

श्वेत-श्याम

होने लगी है, श्वेत-श्याम अब ये शाम,
लगने लगी है, इक अजनबी सी अब ये शाम....

इक गगन था पास मेरे.....
विस्तार लिए, भुजाओं का हार लिए,
लोहित शाम, हर बार लिए,
रंगो की फुहार, चंचल सी सदाएं,
वो सरसराहट, उनके आने की आहट,
पहचानी सी कोई परछांईं,
थी हर एक शाम, इक पुकार लिए.....

हो चला अब, बेरंग सा वो ही गगन,
होने लगी अब, श्वेत-श्याम हर एक शाम....

इक गगन अब पास मेरे.....
निस्तेज सा, संकुचित विस्तार लिए,
श्वेत श्याम सा उपहार लिए,
धुंध में घिरी, संकुचित सी दिशाएं,
न कोई दस्तक, न आने की कोई आहट,
अंजानी सी कई परछांई,
बेरंग सी ये शाम, उनकी पुकार लिए.....

मलीन रंग  लिए, तंज कसती ये शाम,
लगने लगी है, इक अजनबी सी अब ये शाम....

Tuesday, 2 May 2017

श्वेताक्षर

यह क्या लिख रहा कोई पहाड़ों पर श्वेताक्षरों में?

रुखड़े से मेरे मन की पहाड़ी पर,
तप्त शिलाओं के मध्य,
सूखी सी बंजर जमीन पर,
आशाओं के सपने मन में संजोए,
धीरे-धीरे पनप रहा,
कोमल सा इक श्वेत तृण............

क्या सपने बुन रहा कोई पहाड़ों पर श्वेताक्षरों में?

वो श्वेत तृण, इक्षाओं से परिपूर्ण,
जैसे हो दृढसंकल्प किए,
जड़ों में प्राण का आवेग लिए,
मन में भीष्म प्रण किए,
अवगुंठन मन में लिए,
निश्छल लहराता वो श्वेत तृण..............

क्या तप कर रहा कोई पहाड़ों पर श्वेताक्षरों में?

वियावान सी उजड़ी मन की पहाड़ी पर,
इक क्षण को हो जैसे बसंत,
पवन चली हो कोई मंद,
तन का ताप गाने लगा हो छंद,
चारो ओर खिले हो मन-मकरंद,
सावन लेकर आया वो श्वेत तृण...........

या हस्ताक्षर कर गया कोई पहाड़ों पर श्वेताक्षरों में?