Thursday, 17 March 2016

मनसिज सा मन

मन गुम सुम मृसा जग के कांतार में,
सघन बड़ी ये कांतार कानन जीवन की,
कहुकिनी मन की हुई अब चुप चुप सी,
तकती मुकुर पुलोजमा इस जीवन के प्रांगण में।

धुंधलाई लोचन इस दीप्ति मरीचि मे,
स्वातिभक्त सा मन तकता रहता नभ में,
चाहत उस पियूष का सोम रस जीवन में,
आरसी देखती रहती इन्द्रबधु मन के आंगण में।

मनसिज सा मन मन्मथ अनंता जग में,
परमधाम अपवर्ग ढूढ़ता रहता जीवन में,
विवश प्राण प्रारब्ध नियति विधि भँवर में,
इन्द्रव्रज चपला दामिनी का भय मन प्रांगण में।

रज रेणुका यादों की

रज रेणुका असंख्य तेरी यादों के,
दैवात बिखर आभूषित इस मन पे,
धुल रही रेणुकाएँ प्रभा तुषार तुहिन में,
भीग रही वल्लिका बेलरी शबनम में।

लघु लतिका सी यादों के ये पल,
लतराई दीर्घ वल्लिकाओं सी इस मन पर,
ज्युँ कुसुमाकर की आहट ग्रीष्म ऋतु पर,
प्रभामय दिव्यांश मेरी प्रत्युष वेला में।

अति कमनीय मंजुल रम्य वो यादें,
तृष्णा पिपास नूतन अभिनव सी,
मौन तोड़ बहती तन मे शोनित रुधिर सी,
द्युति सी ये यादें मोद प्रारब्ध जीवन में।

अलौकिक शुचि वल्लिकाओं सी यादें,
मधुऋतु विटप सी आवरित जीवन में,
आख्यायिका कहती ये तेरी गठबंधन के,
कान्ति प्रतिकृति यादों की बिंबित मन में ।

Wednesday, 16 March 2016

उम्र के किस कगार पर जिन्दगी

आहिस्ता आहिस्ता उम्र की किस कगार पर,
खीच लायी है मुझको ये जिन्दगी!

यौवन का शिला बर्फ सा गल गया,
चाहतों का पंछी तोड़ पिंजड़ा उड़ गया,
आशाओं का दीपक बिन तेल बुझ रहा,
जिन्दगी के किस मुकाम पर आज मैं आ गया।

आहिस्ता आहिस्ता पिघलता रहा ये आसमाँ,
बूँदों सी बरसती रही ये जिन्दगी।

जोश पहले सी अब रही नहीं,
उमंग दिलों में अब कहीं दिखती नहीं,
उन्माद मन की कहीं गुम सी गई,
कुछ कर गुजरने की तमन्ना दिल मे ही दब रही ।

आहिस्ता आहिस्ता कट रहा धूँध का ये धुआँ,
राख बन कर सिमट रही ये जिन्दगी।

इंतजार की लगन

इंतजार मे पलकें बिछाए बैठी थी वो जो राह में!

मन की रत्नगर्भा में,
असंख्य कुसुम से खिलने लगे,
हृदय की इन वादियों में,
गीत वनप्रिया के बजने लगे,
विश्रुपगा, सूर्यसुता, चक्षुजल,
सब साथ साथ बहने लगे।

इंतजार मे पलकें बिछाए बैठी थी वो जो राह में!

चुभते थे शूल राहों में,
 अब फूलों जैसे लगने लगे,
प्रारब्थ, नियति, भाग्य,
 सब के राह प्रशस्त होने लगे,
राह करवाल के धार सी,
 रम्य परिजात से लगने लगे।

इंतजार मे पलकें बिछाए बैठी थी वो जो राह में!

Tuesday, 15 March 2016

हे माता! कुसुम, मंजरी अर्पित तुम पर ही

हे माता! तुम ही रश्मिप्रभा, तुम मरीचि मेरी।

तुम वसुंधरा, तुम अचला, तुम ही रत्नगर्भा,
तुम वाणीश्वरी, तुम शारदा,महाश्वेता तुम ही,
तुम ही ऋतुराज, कुसुमाकर, तुम मधुऋतु,
धनप्रिया, चपला, इन्द्रवज्र दामिनी तुम ही।

रेत, सैकत हम कल्पतरू परिजात तुम ही।

तुम ही नियति, विधि, भाग्य, प्रारब्ध तुम ही,
तुम कमला, तुम पद्मा, रमा हरिप्रिया तुम ही,
तुम हो मोक्ष, मुक्ति, परधाम, अपवर्ग तुम ही,
तुम हो जननी, जनयत्री, अम्बाशम्भु तुम ही।

तुम रम्य, चारू, मंजुल, मनोहर, सुन्दर तुम ही,
पुष्प, सुमन, कुसुम, मंजरी अर्पित तुम पर ही।

कौन हो तुम?

कौन हो तुम? कुछ तो बोलो ना! राज जरा सा खोलो ना!

किसी कलाकार की कल्पनाओं का वजूद हो तुम,
या किसी गीतकार की गजलों भरी रचना का रूप
सायों में जो ढ़लती रही देर तलक तुम हो वही धूप,
चाहतों की सुबह हो या तबस्सुम लिए शाम हो तुम।

कौन हो तुम? कुछ तो बोलो ना! राज जरा सा खोलो ना!

तुम कल्पना हो किसी शिल्पकार के शिल्पकला की,
इक अद्वितीय संरचना हो शिल्पकला के विधाओं की,
तराशा हुआ संगमरमर हो शिल्पी के कुशल हाथों की,
या धरोहर अनमोल हो तुम शिल्पकृत्य के बाजीगरी की।

कौन हो तुम? कुछ तो बोलो ना! राज जरा सा खोलो ना!

तुम मोहक तस्वीर हो किसी चित्रकार के खयालों की,
चटक तावीर हो रंगों मे रंगी किसी मोहिनी मनमूरत की,
अनदेखा सा सपना हो तुम चित्रकार के कल्पनाओं की,
या चित्रकारिता बेमिसाल हो तुम कुदरत के कारीगरी की।

कौन हो तुम? कुछ तो बोलो ना! राज जरा सा खोलो ना!

Monday, 14 March 2016

अभी अभी, कभी कभी

कह गए क्या तुम मुझे कुछ अभी अभी,
महसूस सी हो रही स्वर तुम्हारी दबी दबी,
कह न पाए जो जुबाने बात कोई कभी कभी,
बात ऐसी कह दी मुझको शायद तूने अभी अभी।

अभी अभी तो जल रही थी आग सी,
दबी दबी सी सुलग रही मन की ताप भी,
कभी कभी तो ऐसे मे लगे हैं जाते दाग भी,
अभी अभी तो बारिशों के होने लगे आसार भी।

निखर गए है कलियों के मुखरे अभी अभी,
जल उठे हैं दीप झिलमिल दिल में कोई दबी दबी,
होता अक्सर प्यार में क्या सिलसिला ये कभी कभी,
दरमियाँ दिलों के फासले थे कमने लगे है अभी अभी।

मेरे पूर्वज

मेरे पूर्वज,
कहां चले गए तुम,
किस धुंध में खो गए तुम,
सुर वीणा के तार छेड़कर,
एक नई पीढ़ी की नींव रखकर,
कहीं अनंत में गुम हो गए तुम....

मेरे पूर्वज,
संवेदनाओं के स्वर जगाकर,
मुझसे आत्मीय संबंध बनाकर,
एक संसार नई बसाकर,
जग से मुंह फेर गए तुम,,,,
कहां चले गए तुम.....

मेरे पूर्वज,
छोड़ गए तुम पीछे मुझको,
पर तुम इतना समझ लेना,
तुम्हारे द्वारा स्थापित मानदंडों को,
पीढ़ी दर पीढ़ी सहेजुंगा मैं,
तुम्हारी संवेदनाओं की थाथी,
रखूंगा मन के कोने में ही कहीं....

मेरे पूर्वज,
सतत इन अविरल आंखों मे,
बसी रहेगी तस्वीर आपकी,
मेरी भावनाओं के दरम्याओं में
जीवनपर्यंत जीवन सार बनकर,
सिर्फ बसे रहोगे तुम,,,,,,,,
और सदा ही बसे रहोगे तुम........,,,,

ओ मेरे पूर्वज......नमन स्वीकारो तुम....

खालीपन का प्रेम

कभी कभी एक अनचाहा सा खालीपन .........

और ऐसे में कभी कभी,
कुछ लम्हे ज़िन्दगी के,
सुकून से बिताने को मन करता है ,,,,
और कभी कुछ पाने, कुछ खोने,
किसी को अपना बनाने,
या ऐसे मे किसी के होने का मन करता है .....,

इन लम्हों में बस एक साथी है मेरा....
जो हर पल हर समय साथ होता है मेरे,
मेरे सुख और मेरे दुःख की वेला में,
मेरे जीवन में रंग भरने का काम करता है,
वो है मेरी डायरी "जीवन कलश"
और उसका नि:स्वार्थ आजीवन प्रेमी 'कलम " ......

थिरकता है वो लम्हा जब,
दोनो एक दुसरे से मिल जाते है,
और बिछड़ने का नाम ही नहीं लेते है....,,,,
कोई मेरा साथ दे या न दे....
मेरा कोई हमदम हो या न हो,
ये आकण्ठ भर देते हैं मेरे खालीपन को.....

लगता है जैसे.....
सब कुछ मिल चुका है मुझे,,,,,,
मेरी हमदम मेरी आगोश मे है,
गुदगुदा रही है ये जैसे मेरी मानस को,
मेरी एहसासों को सुरखाब के पर लग जाते हैं तब......

मुझे रोक लेना मेरे वश में नहीं

तुम ही तुम हर पल एहसास सी,
ज़िक्र क्यों हर पल तेरा मेरी यादों में,
आसान नहीं ये समझ पाना,
मान लो तुम इसे खुदा कि मर्जी,
मेरी यादों को रोक लेना मेरे वश में नहीं।

तूम इक एहसास सी बनकर मुझमें,
फुरक़त-ए-एहसास अनोखी तेरी बातों में,
बंधन के वे स्वर भूल जाना मुमकिन नहीं,
रोक लूं खुद को मैं कैसे तुम्हें चाहने से,
मेरी चाहत को रोक लेना मेरे वश में नहीं ।

इसे इत्तफ़ाक़ कहो या फिर मेरी नादानी.....

बड़े बेनूर से पड़े थे मेरे एहसास,
रौनक ए एहसास आपके आने से आई,
खोया हूँ उस तसव्वुर-ए-मदहोशी में,
मुमकिन नहीं अब होश में आना,
हाँ ....! हाँ, कतई मुमकिन नहीं......!
मेरी मदहोशी को रोक लेना मेरे वश में नहीं ।