Saturday, 7 May 2016

अभ्र पर शहर की

आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!

ढूंढ़ता वो सदियों सेे ललित रमणी का पता,
अभ्र पर शहर की वो मंडराता विहंग सा,
वारिद अम्बर पर ज्युँ लहराता तरिणी सा,
रुचिर रमनी छुपकर विहँसती ज्युँ अम्बुद में चपला।

आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!

जलधि सा तरल लोचन नभ को निहारता,
छलक पड़ते सलिल तब निशाकर भी रोता,
बीत जाती शर्वरी झेलती ये तन क्लेश यातना,
खेलती हृदय से विहँसती ज्युँ वारिद में छुपी वनिता।

आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!

अभ्र = आकाश,
वारिद, अम्बुद=मेघ
विहंग=पक्षी

पानी हूँ मैं

पानी हूँ मैं, बस बहता रहता हूँ ममत्व की सतह पर......

पानी सा निर्मल मैं, पानी सा ही मेरा स्वभाव,
बह जाता हूँ पानी जैसा ही, किसी हृदय की आंगन पर,
कुछ पल ठहर जाता हूँ किसी मन की गहरी झील में,
फिर चल पड़ता हूँ मैं, उस शान्त सागर की ओर....

पानी हूँ मैं, बस बहता रहता हूँ ममत्व की सतह पर......

अंश हूँ मैं हिमशिला का, ठंढ़ी-ठंढ़ी जिसकी काया,
चिरकाल से मै मानव मन की जलन ही मिटाता आया,
समेट लेता हूँ खुद में हीै, मैं वर्जनाएँ सारी वसुधा की,
फिर चल पड़ता हूँ मैं, उस शान्त सागर की ओर....

पानी हूँ मैं, बस बहता रहता हूँ ममत्व की सतह पर......

वसुन्धरा के ये झुलसते कण, बस मेरे ही हैं प्यासे,
सृष्टि की हर अतृप्त रचना, बस मेरी ओर ही झांके,
तृप्त हो लेता हूँ मै भी, उनकी उर कंठ-हिय में जाके,
फिर चल पड़ता हूँ मैं, उस शान्त सागर की ओर....

पानी हूँ मैं, बस बहता रहता हूँ ममत्व की सतह पर......

Thursday, 5 May 2016

वो भूली सी दास्ताँ

भूली सी इक दास्ताँ बन के रह गए हैं अब वो,
यादों में हर पल कभी शुमार रहते थे जो,
कभी अटकती थी वक्त की सुईयाँ जिनकी याद में,
अब अन्जाने से शक्लों में शुमार हो चुके हैं वो।

न जाने क्युँ बेरुखी उनकी बढ़ी कुछ इस कदर,
उन रास्तों से हम, अन्जान से हो चले हैं अब,
अब है मेरी इक अलग दुनियाँ, बेखबर से हुए हैं हम, 
बाकि रही इक कसक, रूठे हैं वो क्युँ अब तलक।

रूठने की वजह, कह भी देते वो मुझको अगर,
बेरुखी की रास्तों पर, वो न होते हमसफर,
खामोशं दिल की महफिलों के, वो न होते रहगुजर,
भूली हुई सी दास्ताँ में, वो न करते कहीं बसर।

Wednesday, 4 May 2016

मादक सुबह

मादक सुबह फिर नींद से जागी, क्या कहने हैं!

फूल खिले हैं अब डाली-डाली,
हर क्यारी पर छाई है कैसी हरियाली,
वहाँ दूर पेड़ो पर गा रही कोयल मतवाली,
मनभावन रंगो में निखरी है सूरज की लाली!

चटक रंग कलियों के आ निखरे हैं,
बाग की कलियों पर भँवरो के ही डेरे हैं,
कहीं दूर उन पपीहों नें भी मस्त गीत छेड़े हैं,
मनमोहक कितनी यह छटा, मन हरने वाली है!

ऐ सुबह, तू बिल्कुल दीवाना सा है,
रोज ही तू खिड़की से झांकने आता है,
गीत कोई मधुर कानों मे तू फिर घोलता है,
प्यार लुटाकर जीवन में, साँझ ढ़ले लौट जाता है!

ऐ सुबह, तू जल्दी सो जा, कल तुम्हें फिर से आना है!

Tuesday, 3 May 2016

मेरा एकान्त मन


मेरा मन,
जैसे एकान्त आकाश में उड़ता अकेला पतंग,
इन्तजार ये करता है किसका एकान्त में,
कब झाँक पाया है कोई मन के भीतर उस प्रांत में,
हर शाम यह सिमट आता खुद ही अपने आप में।

मेरा मन,
जैसे निर्जन वियावान में आवारा सा बादल,
बरस पड़ता है ये कहीं किसी जंगल में,
कब जान पाया है कोई क्या होता मन के आंगण में,
सावन के बूंदों सा भर आता है मन चुपचाप ये।

मेरा मन,
मत खेलना तुम कभी मेरे इस कोमल मन से,
अकेलेपन के सैकड़ों दबिश भी हैं इनमें,
कब पढ़ पाया है कोई मेरे मन के अन्दर की भाषा,
अब कौन दे दिलाशा इसे, चटका है कई बार ये।

मेरा एकान्त मन, मौन है किसी मूक बधिर सा ये।

ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा

जब उसने कहा, ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा?

तब मन को गहरा सा एहसास ये हुआ
बदल सा गया हूँ शायद मैं थोड़ा,
वक्त के थपेड़ों से खुद को मैं बचा न सका,
पर क्या? मेरी पहचान मेरे चेहरों से ही है सिर्फ क्या?

जब उसने कहा, ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा?

सहसा महसूस ये हुआ कि अब मैं मैं न रहा,
पर दिल तो मेरा अब भी नहीं बदला,
मन के भीतर तो वही जज्बात उमरते हैं सदा,
तो क्या बदला मेरे अन्दर, जो खुद मैं जान न सका?

जब उसने कहा, ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा?

अनुभूति एक दूसरी तब नई हुई इस मन में,
कम से कम पहचाना तो गया ही मैं,
गुजरे वक्त को तो भूल ही जाया करते हैं सब यहाँ,
कम से कम, मैं अभी गुजरा हुआ वक्त तो नहीं हुआ!

जब उसने कहा, ये तुम ही हो विश्वास नही हो रहा?

हँसते मेरे अंश

निशाँ मेरी अंश के बिखरेे कण-कण में लगते हैं यहाँ!

वक्त ने आज फिर से बदली हैं करवटें,
राहों ने मोड़ दी है फिर से जीवन की दिशाएँ,
बदला-बदला सा है सब कुछ आज यहाँ,
न जानें क्युँ आज फिर प्राणों में इक कंपन सी यहाँ।

वक्त ले आया फिर उसी जगह पर हमें,
किलकारियाँ भर हँस पड़ते थे अंश जहाँ पर मेरे,
थामे उँगलिया चल पड़ते थे कहीं दिशाहीन,
अाज वो दिशाएँ दिख रही हैं प्रशस्त जीवन के यहाँ।

यादों के उस बस्ती में लाया वक्त हमें,
उन अनुभूतियों ने नए ढ़ंग से फिर सहलाया हमें,
नन्ही उँगलियाँ मेरे अंश के मन में हैं रवां,
मन में उठे हैं सुखद एहसासों के ज्वार फिर से यहाँ।

वक्त ने जगाया सुखद अनुभूतियों को नए सिरे से यहाँ!

Monday, 2 May 2016

तृष्णा और जीवन

तृष्णा ही है ये इस मन की, जिसमें डूबा है जीवन,

निर्णय-अनिर्णय के दोराहे पर डोलता जीवन,
क्या कुछ पा लूँ, किसी और के बदले में,
क्युँ खो दू कुछ भी, उन अनिश्चितता के बदले में,
भ्रम की इस किश्ती में बस डोलता है जीवन।

भ्रम के अंधियारे में है तृष्णा, जिसमें डूबा है जीवन।

कब मिल सका है सब को यहाँ मनचाहा जीवन,
समझौता करते है सब, खुशियों के बदले में,
खोना पड़ता है खुद को भी, इन साँसों के बदले में,
उस रब के हाथों में ही बस खेलता है जीवन।

कब बुझ पाएगी ये तृष्णा, जिसमें डूबा है जीवन।

सपने

कुछ सपने देखे ऐसे, सच जो ना हो सके,
आँखो में ही रहे पलते, बस अपने ना हो सके,

सपना देखा था इक छोटा सा,
मुस्कुराऊँगा जीवन भर औरों की मुस्कान बनकर,
फूलों को मुरझाने ना दूंगा,
इन किसलय और कलियों में रंग भर दूंगा,
पर जानता ही नहीं था कि आते हैं पतझड़ भी,
उजड़ चाते हैं कभी बाग भी खिल जाने से पहले,
हम सपने ही रहे देखते, इस सच को कब जान सके।

मेरी आँखो में ही रहे पलते, बस अपने ये ना हो सके।

सपना इक देखता था बचपन से,
जिन गलियों मे बीता बचपन उनकी तस्वीर बदल दूँगा,
निराशा हर चेहरे की हर लूंगा,
खुशहाली के बादल से जीवन रस टपकेगा,
पर जानता नही था कि मैं खुद ना वहाँ रहूंगा,
प्रगति के पथ पर, जीवन के आदर्श ही बदल लूंगा,
हम आदर्शों को रहे रोते, और खुद के ही ना हो सके।

इन आँखो में ऐसे ही सपने, बस अपने ये ना हो सके,
कुछ सपने देखे थे ऐसे, सच जो ना हो सके......!

Sunday, 1 May 2016

रहना तो है हमें

है पाप क्या और पुन्य क्या, है बस समझ का फेर ये!

रीति रिवाज हम कहते हैं जिसे,
सीमा इन मर्यादाओं की बंधी है बस उनसे,
पाप-पुन्य तो बस समझ के है फेरे,
रहना तो है हमें, बस इन रीतियों के बंधन के ही तले।

सच है क्या और झूठ क्या, है बस समय का फेर ये!

कभी तो ये मन भटकता दिशाहीन सा,
रीतियों रिवाजों की परवाह तब कौन करता,
सच-झूठ तो बस समय के है फेरे,
रहना तो है हमें, पर मन पर नियंत्रण तब कौन करे।

क्या सही और क्या गलत, है बस समझ का फेर ये!

भटका था मन जिस पल कहाँ थी वो मर्यादा,
मन को नियंत्रित कब कर सका है मन की पिपाशा,
सही-गलत तो बस समझ के है फेरे,
रहना तो है हमें, पर इन विसंगतियों से ही हैं हम बने।