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Saturday, 4 January 2020

मंद समीर


मंद-मलय, सहलाते हैं जब रिश्तों को,
आशय, अर्थ कई मिल जाते हैं रिश्तों को,

जज़्बातों से बंधा इन्सान, बदलते दौर में,  खुद को नए ढ़ंग से तराशते हुए, जज़्बातों से जुड़ी हर चीज को सहेजना चाहता है। जरूरी है कि एक मंद-समीर हमेशा मन को छूकर, रिश्तों के रास्तों पर, हौले-हौले गुजरती रहे।

हौले-हौले सहलाते, गर रिश्तों को,
आश्रय, घर कई मिल जाते रिश्तों को,
ना ये लम्हे हावी होते, रिश्तों पर,
ना उठती पीर, रह-रह मन के पर्वत पर,
ना तिल-तिल कर, दरकते ये प्रस्तर,
ना चूर-चूर, होते ये पत्थर!

बदलावों के इस दौर में, इन्सान न बदले, ये संभव नहीं और इन चाहे-अनचाहे बदलावों से हमारे सामाजिक व मानवीय संबंध भी अछूते नही रह पाते । विकास की अंधी दौर में, कभी-कभी, हम संस्कारों से भी भटक जाते हैं ।

बदलाव, हर पल टीसता इक घाव,
काँटों सा चुभता, रिश्तों का रक्त-स्राव,
विघटित होते घन, बरसता ये मन,
बिखरते संबंध, सिक्कों की खन-खन,
चकाचौंध, अंतहीन सा पागलपन,
खोया सा इक, अपनापन!

ये बदलाव, जब हमारे सामाजिक और पारिवारिक सरोकारों से हमें दूर कर देते हैं तब विघटन की एक प्रक्रिया, एक अनचाहा बदलाव, उसी क्षण आरम्भ हो जाती है। जरूरत है, सोए हुए जज्बातों को जगाने की...

सोए हैं, जगाते रहिए हर जज़्बात,
खत्म हो चली, तो फिर से करिए बात,
मंद समीर, बह जाने दे इस द्वार,
है ये पवन अधीर, आ मना ले त्योहार,
डाल गले में, फिर बाहों के हार,
बसा ले, छोटा सा संसार!

संबंध, पर्व-त्योहार व सामाजिक सरोकार, किसी समाज के विकास का आईना होते हैं। ये आईना बोलते हैं और हमारा असली रूप हमारे सामने रखते हैं । ये हमारे संस्कारों को सहेजते हुए सतत् संस्कार-पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा भी देते हैं ।

सूरत प्यारा, दिखलाएगा आईना,
जब संस्कार हमारा, दिखाएगा आईना,
समृद्ध होगी, हमसे ही संस्कृति,
दूर होंगें दुर्गण, खत्म होगी दुष्प्रवृति,
संस्कार जगेंगे, मिटेंगी कुरीति, 
चलती रहे, सदा यह रीति!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 1 May 2016

रहना तो है हमें

है पाप क्या और पुन्य क्या, है बस समझ का फेर ये!

रीति रिवाज हम कहते हैं जिसे,
सीमा इन मर्यादाओं की बंधी है बस उनसे,
पाप-पुन्य तो बस समझ के है फेरे,
रहना तो है हमें, बस इन रीतियों के बंधन के ही तले।

सच है क्या और झूठ क्या, है बस समय का फेर ये!

कभी तो ये मन भटकता दिशाहीन सा,
रीतियों रिवाजों की परवाह तब कौन करता,
सच-झूठ तो बस समय के है फेरे,
रहना तो है हमें, पर मन पर नियंत्रण तब कौन करे।

क्या सही और क्या गलत, है बस समझ का फेर ये!

भटका था मन जिस पल कहाँ थी वो मर्यादा,
मन को नियंत्रित कब कर सका है मन की पिपाशा,
सही-गलत तो बस समझ के है फेरे,
रहना तो है हमें, पर इन विसंगतियों से ही हैं हम बने।