Sunday, 12 June 2016

छवि तुम्हारी

छवि लिए कुछ तारों सी उर में तुम हो समाए,
पलकों में, प्राणों में स्मृति बन कर तुम हो आए.....

संचित कर लूँ मैं चंचलता इन नैनों की नैनों में,
महसूस करूँ मैं अरूणोदय तेरे चेहरे की आभा में,
देखूँ मैं रजनी की तम सी परछाई तेरे ही जूड़े में,

स्वप्नमय आभा लिए सपनों में तुम हो समाए,
नींदों मे, ख्वाबो में जागृति बन कर तुम्ही हो छाए ....

संचित कर लूँ मैं हाला तेरे अधरों की प्याली में,
महसूस करूँ मैं रंग जीवन के तेरे नैनों की लाली में,
देखूँ मैं ख्वाब सुनहरे तेरे आँचल की हरियाली में,

मधुर राग कोयल की सपनों मे तुमने ही गाए,
स्वर में, काया में विस्मित छाया सी तुम गहराए....,

Wednesday, 8 June 2016

सूखते रिश्ते

बदलते मौसम की बयार में सूख रहे हैं ये रिश्ते भी...,

कुम्हलाए हैं अब रिश्तों के नाजुक फूल,
जज्बातों की गर्म हवाओं में जलकर,
बदलते मौसम की अनचाही आँधी मे झूलकर,
एहसासों के जमीं पर बिखरे हैं अब धूल ही धूल।

फफूँद उग आए हैं रिश्तों की क्यारी में,
सुखे है यहाँ सभी भावनाओं के फूल,
बिखर चुके पंख कोमल सी कल्पनाओं के,
स्वतः पूर्णविराम लगे हैं जीवन की आशाओं पर।

कशिश बस एक बाकी है उन रिश्तों की,
कभी खुश्बु सी आती है उन फूलों की,
खिलकर बिखरे थे जो मन की इस क्यारी में,
अब कड़वाहट बाँकी है उन रिश्तों की फुलवारी में।

दरारें हैं अब कैसी रिश्तों की इस गाँठ में,
क्युँ अहम इंसानों के भारी हैं रिश्तों पर,
तृष्णा, लालसा, अहम, अभिलाषा हावी संबंधों पर,
कुठाराघात करते रहे वो दिल की लचीली दीवारों पर।

बदलते एहसासों के साथ में टूट रहे हैं ये रिश्ते भी...,

प्रशस्त प्रखर मंजिल

क्षितिज को निहार तू, विस्तृत जरा आयाम कर,
विशाल सोंच को बना, मन की गगन का विस्तार कर,
प्रतिभा की चाँदनी से, आसमाँ में प्रकाश भर,
क्षितिज की आगोश में, मंजिल का तू विस्तार कर।

मंजिलों से आगे, कितने ही मुकाम हैं बाँकी,
अभी तो जिन्दगी के, यहाँ किस्से तमाम हैं बाँकी,
हसरतों के पंखों को, तू जरा फैला कर देख,
इन बादलों से उपर, अभी कई आसमाँ हैं बाँकी।

यह नहीं मंजिल तेरी, प्रहर है यह विराम की,
ठहर इक पल जरा, मंजिल प्रशस्त कर अपनेे मार्ग की,
कर्म की लाठी हाथों मे ले, निरस्त तू बाधाओं को कर,
दिखेगी तुझको राह नई, मंजिलें हो जाएंगी प्रखर।

विश्राम तो बस मौत है, गतिशील हैं राहें यहाँ,
मंजिलों से बेखबर, जीवन की अनगिनत चाहें यहाँ,
कुशाग्र प्रखर रौशनी में, राह तू खुद अपनी बना,
इन मंजिलों के आगे कहीं, तू छोड़ जा अपने निशां।

Tuesday, 7 June 2016

निरापद कोई नहीं

ना, निरापद यहाँ इस जगत में कोई नही..........

वो पात्र प्रशंसा का भले ही हो या न हो,
उपलब्धियाँ भले ही जीवन की उनकी नगन्य हों,
मान्यताओं के विपरीत भले ही उसके कर्म हो,
भूखा है हर कोई अपनी प्रशंसा के लिए।

अन्तः अवलोकन से खुद ही वो क्षुब्ध हो,
आलोचना मन ही मन खुद अपनी ही करता हो,
निन्दा दिन रात अच्छों-अच्छों की करता हो,
जीता है हर कोई अपनी प्रशंसा के लिए।

ना, निरापद कोई नहीं है इस जगत में,
न तुम, न मैं, न वे जो कहलाते योगी शिखर के,
सबके पीछे बंधी है इच्छाएँ बस आसक्ति की,
मरता है हर कोई अपनी प्रशंसा के लिए।

प्रशंसा के आनन्द का छंद ऐसा ही तो है,
तारीफों की झूठी पुल पर वो चलता ही जाता है,
मन ही मन कमियों पर खुद की पछताता है,
निभाता वो मानव धर्म अपनी प्रशंसा के लिए।

ना, निरापद कोई नही यहाँ इस जगत में ..........

Monday, 6 June 2016

इक नया शिखर

यात्रा के इस चरण की कौन सी शिखर है ये,
है यह एक शिखर या पड़ाव किसी नए यात्रा की ये,
या उपलब्धियों के मुस्कान की एक मुकाम है ये,
शिखर मेरी है यह कौन सी यह खबर है किसे।

शिखरों की है यहाँ अनगिनत सी श्रृंखलाएँ,
कुछ छोटी कुछ उँची जैसे हो माला की ये मणिकाएँ,
कितनी ऊबड़-खाबड़ दुर्गम राहों वाली ये मालाएँ,
पिरोता हूँ माला मैं गिन-गिन कर ये मणिकाएँ।

इस साधना से इक पल भी भटके ना ये मन,
साधकों ने इन शिखरों पर वारे हैं तन, मन और धन,
पखारे हैं कुशाग्र प्रतिभाओं ने इन शिखरों के चरण,
शिखर कुछ ऐसा ही बन जाऊँ कहता है मेरा मन।
यात्रा यह हर पल चलती रहे शिखर की ओर,
हाथों में हो कलम और विचारों का हो इक नया दौर,
सरस्वती विराजे जिह्वा पर संकल्प दृढ़ हो और,
लाँघ जाऊँ ये बाधाएँ शिखर बनूँ मैं सिरमौर।
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इस ब्लाग पर मेरी यह 500 वीं रचना है। जिन्होंने मुझे प्रेरित किया और सराहा उन्हें मैं कभी भूल नहीं सकता। धन्यवाद।

Sunday, 5 June 2016

बहारें

अपलक देखता ही रहा मैैं और बहारें गुजरती गईं।

खूबसूरत से ये नजारे कलियाँ खिली खिली,
हरे भरे ये बाग सारे पत्तियाँ सब मुस्कुराती मिली,
पंछियों की ये चहचहाहट इन हवाओं में घुली,
झमझमाती बारिशों में, थिरकती रहीं वो बूँदें वहीं,

खोया सा है अब मन मेरा, पलके हमारी हैं खुली।

अपलक बस देखता हूँ मैं इन नजारों को अब,
सोचता हूँ मैं खड़ा शिल्पकार कितना बड़ा है रब,
सौन्दर्य धरा का निखारने को उसने रचाया सब,
मुस्कुराती होंगी ये बहारे, रब मुस्कुराया होगा जब,

गुजरती हैं ये बहारे यहाँ, मेरी नजरों के सामने अब।

ऐ बहारों मुस्कुराओ निहारता बस मैं तुझको रहूँ,
देखकर निराली छटा कल्पना मैं रब की करूँ,
कुछ क्षण मन को मैं थाम लूँ छाँव में बस तेरी रहूँ,
शिल्प की अप्रतिम रचना मैं अपलक निहार लूँ,

बहारें यूँ ही गुजरती रहें, अपलक बस मैं देखता रहूँ।

Friday, 3 June 2016

वादियों में कहीं

कहीं दूर तन्हा हसीन वादियों में,
गा रहा है ये दिल अब तन्हाईयों के गीत,
चौंक कर जागता है मन बावरा,
सोचता यहीं कही पे है मेरे मन का मीत।

कहीं दिल की लाल सरिताओ में,
खिल उठ्ठे हैं जैसे असंख्य कमल के फूल,
कह रहा है मुझसे दिल ये बावरा,
धड़केगा एक दिन वो पत्थर भी जरूर।

जैसे फूल खिल उठते हैं पत्थरों पे,
ताप से पिघलतेे है मोम के ये सुलगते दिए,
हो जाएंगे वो भी ईश्क मे बावरा,
मेेरी तन्हा रातों में कभी वो जलाएंगे दिए।

ये वादियाँ हैं इंतजार की फूल के,
झूम उठते हैं जो इन तन्हाईयों के गीत पे,
तन्हा लम्हों में छुपा है वो बावरा,
इन वादियों में कहीं वो इंतजार में प्रीत के।

जुल्फों के पेंच

उलझी हैं राहें तमाम,
इन घने जुल्फों के पेंच में,
सवाँरिए जरा इन जुल्फों को आप,
कुछ पेंचों को कम कीजिए।

बादल घनेरे से छाए हैं,
लहराते जुल्फों के साए में,
समेटिए जरा जुल्फों को आप,
जरा रौशन उजाला कीजिए।
तीर नजरों के चले हैं,
जुल्फ के इन कोहरों तले,
संभालिए अपनी पलकों को आप,
वार नजरों के कम कीजिए।

तबस्सुम बिखर रहे हैं,
चाँदनी रातों की इस नूर में,
दिखाईए न यूँ इन जलवों को आप,
इस दिल पे सितम न कीजिए।

भटके हैं यहाँ राही कई,
दुर्गम घने इन जुल्फों की पेंच में,
लहराईए न अब इन जुल्फों को आप,
इस राहगीर को न भटकाईए।

Thursday, 2 June 2016

चाहत की जिन्दगी

मुस्कुराहटों में गीत सी बजती है जिन्दगी,
उन नर्म होठों पे खिल के जब बिखरती है वो हँसी,
खिलखिलाहट में है उनकी नग्मों की रवानगी,
उन सुरमई आँखों में खुद ही कहीं तैरती है जिन्दगी।

दूरियों के एहसास अब दिलाती है जिन्दगी,
जेहन में अब तो बार-बार फिर उभरती है वो हँसी,
सजदा किए थे हमने जिन किनारों के कहीं,
कगार-ए-एहसास फिर वही अब मांगती है जिन्दगी।

बेकरारियों के दिए फिर जलाती है जिन्दगी,
कानों में इक आवाज सी बन के गूँजती है वो हँसी,
साज धड़कनों के मचल बज उठे फिर कहीं,
चाहतों का इक रंगीन सफर फिर चाहती है जिन्दगी।

Wednesday, 1 June 2016

राख

दिल की हदों से गुजरी थी कभी जिन्दगी,
किस्से मोहब्बत के तमाम बाकी हैं,

चाहत के फूलों से सजा था कभी गुलशन,
जिन्दगी के अब कुछ निशान बाकी हैं,

उजड़ी है बस्तियाँ खत्म हो चुकी हैं कहानी,
चाहत के बस कुछ अल्फाज बाकी है,

मजार-ए-मीनार बनी इक अधूरे ईश्क की,
चाहत की मुकम्मल सी याद बाकी है,

अब अक्श है वो सामने जैसे लपटें हो आग की,
जलते हुए ईश्क की बस राख बाकी है।