Saturday, 11 November 2017

रेत सा लम्हा

वक्त की झोली में, अनंत लम्हे हैं भरे,
जीते जागते से, बिल्कुल हरे भरे...
क्युँ न मांग लूं, वक्त से मैं भी एक लम्हा,
चुपचाप क्युँ रहूँ मैं इस पल तन्हा.....?

होगा कोई तो लम्हा, मेरे भी नाम का,
भीड़-भाड़ में, हो जो मेरे काम का,
क्यूँ न ढूंढ़ लूँ, उस झोली से वो एक लम्हा,
तन्हा गुजार लूँ, मै वो ही लम्हा.....!

लम्हा न ऐसा कोई, बस होता जो मेरा,
करता रहा अनसूना, वक्त भी मेरा,
वक्त के हाथों कभी, छूटा था कोई लम्हा,
पास है मेरे, पर रेत सा है तन्हा......!

दूर दूर तक, लम्हों के रेत किसने बिखेरे,
रेत के वो लम्हे, अब तेरे है न मेरे!
दिया था वक्त ने, हरा-भरा जीवंत लम्हा,
भाग्य में मेरे, बस रेत सा लम्हा.....!

आइए आ जाइए

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

हँसिए-हँसाइए, रूठीए मनाइए,
गाँठ सब खोलकर, जरा सा मुस्कुराइए,
गुदगुदाइए जरा खुद को भूल जाइए,
भरसक यूँ ही कभी, मन को भी सहलाइए,
जीने के ये चंद बहाने सीख जाइए......

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

हैं जो अपने, दूर उनसे न जाइए,
रिश्तों की महक को यूँ न बिसर जाइए,
मन की साँचे में इनको बस ढ़ालिए,
जीते जी न कभी, इन रिश्तों को मिटाइए,
जीने के ये चंद बहाने सीख जाइए......

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

भूल जो हुई, मन में न बिठाइए,
खता भूलकर, दिल को साफ कीजिए,
फिर पता पूछकर, घर चले जाइए,
भूल किस से ना हुई, ये ना भूल जाइए,
जीने के ये चंद बहाने सीख जाइए......

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

अवगुंठन हटा, फूल तो खिलाइए,
हर मन में है कली, बस बागवाँ बनाइए,
वक्त जो मिले, कभी घूम आइए,
हो बाग जो बड़ा, फिर कही भी सुस्ताइए,
जीने के ये चंद बहाने सीख जाइए......

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

पहाड़ों में

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

विशाल होकर भी कितनी शालीन,
उम्रदराज होकर भी नित नवीन,
एकांत में रहकर भी कितनी हसीन,
मुखर मौन, भाव निरापद और संज्ञाहीन....

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

ताप में रहकर भी कितनी शीतल,
शांत रहकर भी लगती चंचल,
दरिया बनकर बह जाती कलकल,
प्रखर सादगी, उदार चेतना और प्रांजल......

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

न ही कोई द्वेष, न ही कोई दुराव,
सबों के लिए एक सम-भाव,
न आवश्यकता, न कोई अभाव,
शिखर उत्तुंग, शालीन और विनम्रभाव.......

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....
-------------------------------------------------------------------सम्मान@
*"राष्ट्रीय सागर"* में प्रकाशित मेरी कविता *"उन पहाड़ों मे"अंक देखना हो तो avnpost.com ke epaper पर देखें। या सीधे epaperrashtriyasagar.com पर *पेज 6* पर देखें।

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Friday, 10 November 2017

ऋतुराज

फिजाओं ने फिर, ओस की चादर है फैलाई,
संसृति के कण-कण पर, नव-वधु सी है तरुणाई,
जित देखो तित डाली, नव-कोपल चटक आई,
ऋतुराज के स्वागत की, वृहद हुई तैयारी.....

नव-वधु सी नव-श्रृंगार, कर रही ये वसुंधरा,
जीर्ण काया को सँवार, निहार रही खुद को जरा,
हरियाली ऊतार, तन को निखार रही ये जरा,
शिशिर की ये पुकार, सँवार खुद को जरा.....

कण-कण में संसृति के, यह कैसा स्पंदन,
ओस झरे हैं झर-झर, लताओं में कैसी ये कंपन,
बह चली है ठंढ बयार, कलियों के झूमे हैं मन,
शिशिर ऋतु का ये, मनमोहक है आगमन.....

कोयल ने छेड़े है धुन, सुस्वागतम ऋतुराज,
रंगबिरंगे फूलोवाली, संसृति लेकर आई है ताज,
सतरंगी सी है छटा, संग झूम रहा ये ऋतुराज,
गीत गा रहे पंछी, शिशिर ने खोले हैं राज....

Thursday, 9 November 2017

किसकी राह तके

सदियाँ बीत गई, प्रीत वो रीत गई...........

बैरन ये प्रीत हुई,
डोली प्रीत की, बस यादों में ही सजे,
तुझको वो भूल चुके,
तू किसको याद करे, किसकी राह तके?

बैरन हुई ये पवन,
मुई, गुजरती है अब क्यूँ छूकर ये बदन,
न वो पुरवाई चले,
तू क्युँ उसको याद करे, किसकी राह तके?

बदल गए मौसम,
बदली वो घटा, बूंदें बारिश की ये छले,
धूप सी ये छाँव लगे,
तू क्युँ उनको याद करे, किसकी राह तके?

शहर अंजान हुए,
अपना ना कोई, बेगाना सा हर मोड़ लगे,
गलियाँ ये विरान हुए,
तू तन्हा किसे याद करे, किसकी राह तके?

न आएंगे अब वे,
तुझसे नजरें भी न, मिला पाएंगे अब वे,
नैनों से क्युँ आब झरे,
तू रो-रो किसे याद करे, किसकी राह तके?

सदियाँ बीत गई,प्रीत वो रीत गई...........

न आना अब

वो कौन है जो दस्तक, देकर गया मेरे दर तक?

शायद अजनबी कोई!
या शख्स पहचाना सा कोई?
बिसारी हुई बातें कोई!
या यादों की इक कहानी कोई!

वो कौन है जो लौटा, दस्तक देकर मेरे घर तक?

बेचैन कर गया कोई!
नींदे मेरी लेकर गया कोई!
इन्तजार दे गया कोई!
सुकून मन का ले गया कोई!

वो कैसी थी दस्तक, न मिलती है दिल को राहत?

ऐसा तो न था कोई!
दुश्मन तो मेरा न था कोई!
वो पागल होगा कोई?
या नशे में बहका होगा कोई?

वो दे गया ऐसी दस्तक, दुविधा में रहा मैं देर तक?

अब बीते हैं दिन कई,
दस्तक फिर दे रहा था कोई!
बाहर न खड़ा था कोई!
चुप, बुत सा मैं अकेला था वहीं!

एकाकीपन की दस्तक, न आना अब मेरे दर तक...

Wednesday, 8 November 2017

क्यूँ झाँकूं मैं बाहर

क्यूँ झाँकूं मैं मन के बाहर.....
जब इतना कुछ घटित होता है मन के ही भीतर,
सब कुछ अलिखित होता है अन्दर ही अन्दर,
कितने ही विषयवस्तु, कौन चुने आकर?

बिन लघुविराम, बिन पूर्णविराम...
बिन मात्रा, शब्दों बिन प्रस्फुटित होते ये अक्सर,
ये निराकार से प्रतिबिंब यूँ ही काटते चक्कर,
मन के ये प्रतिबिंब, देखे कौन आकर?

लिखने को क्युँ झाँकूं मैं बाहर....
लिखने के कितने ही अवसर है इस मन के भीतर,
अलिखित से स्वलेख उपजते इसके अन्दर,
मन की ये उपज, काटे कौन आकार?

बिन खाद-बीज, बिन पानी...
ऊपजाऊ सा है ये मन, मरुभूमि सी नहीं ये ब॔जर,
आलोकित ये भाव से, भाव उपजते अन्दर,
भाव की ये फसल, सम्हाले कौन आकर?

जब इतना कुछ घटित होता है मन के ही भीतर,
क्यूँ झाँकूं मैं मन के बाहर.....

बोझिल रात

यूँ बड़ी देर तक, कल ठहर गई थी ये रात,
भावुक था थोड़ा मैं, कुछ बहके थे जज्बात,
शायद कह डाली थी मैने, अपने मन की बात,
खैर-खबर लेने को, फिर आ पहुँची ये रात!

याद मुझे फिर आई, संत रहीम की ये बात...
"रहिमन निजमन की व्यथा मन ही राखो गोय,
  सुनि इठलैहें लोग सब, बाँट न लइहे कोय"
पर चुग गई चिड़ियाँ खेत अब काहे को पछतात..

बड़ी ही खामोशी से फिर, बैठी है ये रात,
झिंगुर, जुगनू, कीट-पतंगो को लेकर ये साथ,
धीरे-धीरे ऊलूक संग बाते करती ये रात,
उफ! फिर से बोझिल होते, बीतते ये लम्हात...

अब सोचता हूँ, पराई ही निकली वो रात,
पीछा कैसे ये छोड़ेगी, मनहूस बड़ी है ये रात,
रखना है काबू में, मुझको अपने जज्बात,
ना खोऊँगा मैं उसमें, चाहे कुछ कहे ये रात...

रात और तुम

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

अपारदर्शी परत सी ये घनेरी रात,
विलीन है जिसमें रूप, शक्ल और पते की सब बात,
पिघली सी इसमें सारी प्रतिमा, मूर्त्तियाँ,
धूमिल सी है ओट और पत्तियाँ,
बस है एक स्वप्न और अधूरी सी है कई बात...

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

चुपचाप कालिमा घोलती ये रात,
स्वप्नातीत, रूपातीत नैनों में ऊँघती सी उथलाती नींद,
अपूर्ण से न पूरे होने वाले कई ख्वाब,
मींचती आँखों में तल्खी मन में बेचैनियाँ,
बस है इक उम्मीद और अधूरी सी है कई बात...

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

परत दर परत धुंधलाती ये रात,
स्वप्न से बाहर निकल, उसी में फिर गुम होती सी तुम,
सहसा हाथ बढ़ा पास खींचती तुम,
गले मिल फिर कहीं कालिमा में सिमटती तुम,
बस है विरह की बेवशी और अधूरी सी है कई बात...

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

पराई सी लगती फरेबी ये रात,
क्यूँ मानूँ मैं अपना इसे, गोद में इसकी क्यूँ रोऊँ मैं?
सर रखकर इसके सीने पर क्यूँ सोऊँ मैं?
निशा प्रहर जाएगी, ये फिर फरेब कर जाएगी,
पल भर का है अपनापन और अधूरी सी है कई बात...

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

Tuesday, 7 November 2017

वापी

ले चल तू मुझको उस वापी ऐ नाविक,
हो आब जहाँ मेरे मनमाफिक।

अंतःसलिल हो जहाँ के तट,
सूखी न हो रेत जहाँ की,
गहरी सी हो वो वापी, हो मीठी सी आब जहाँ की।

दीड घुमाऊँ मैं जिस भी ओर,
हो चहुँदिश नीवड़ जीवन का शोर,
मन के क्लेश धुल जाए, हो ऐसी ही आब जहाँ की।

वापी जहाँ थिरता हो धीरज,
अंतःकीचड़ खिलते हों जहाँ जलज,
मन को शीतल कर दे, ऐसी खार हो आब जहाँ की।

ले चल तू मुझको उस वापी ऐ नाविक,
हो आब जहाँ मेरे मनमाफिक।

ऐ नाविक, रोको मत,
तुम खुद बयार बन पाल भरो,
बह जाने दो इस वापी में, मनमाफिक है आब यहाँ की।