Thursday, 22 March 2018

चुप्पी! बोलती खामोशी...

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....

चुप्पी तोड़ती हुई इक खामोशी,
बंद लफ्जों की वो सरगोशी,
वो नजरों की भाषा में चिल्लाना,
दूर रहकर भी पास आ जाना,
खामोशी का वो इक चुप सा तराना...

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....

चुप-चुप सा था, वो इक पर्वत,
बड़ी गहरी थी वो खामोशी,
वो खामोशियों में कुछ बुदबुदाना,
यूं चुपचाप ही कहते जाना,
उस ओर कदमों का यूं मचल जाना....

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....

बादलों की, वो बोलती खामोशी,
बरस गई जब वो जरा सी,
बूंदों का यूं फिर जमी पर बिखरना,
यूं ही तब चेहरों का भिगोना,
चुपचाप लय में बरसात की हो लेना....

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....

चुप कहां थी, ये बहती हवा भी,
चली वो भी आँचल उड़ाती,
गेसूओं का फिर हवाओं में लहराना,
सिहरन बदन में भर जाना,
बहती हवा संग, झूलों सा झूल जाना....

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....

बोलती बहुत है, ये खामोशियाँ,
चुप्पी तोड़ती है इनकी जुबां,
यूं ही तन्हाईयों का कहीं गुनगुनाना,
खामोश सा वो ही तराना,
तन्हा वादियों में, खूद को भूल जाना....

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....
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Wednesday, 21 March 2018

चुप क्यूं हैं सारे?

लफ्जों पे जड़े ताले, चुप क्यूं रहते हैं सारे?

जब लुटती है अस्मत अबला की,
सरेआम तिरस्कृत होती है ये बेटियाँ,
बिलखता है नारी सम्मान,
तार तार होता है समाज का कोख,
अधिकार टंग जाते हैं ताख पर,
विस्तृत होती है असमानताएँ...
ये सामाजिक विषमताएँ....
बहुप्रचारित बस तब होते हैं ये नारे...

वर्ना, लफ्जों पे जड़े ताले, चुप क्यूं हैं सारे?

जब बेटी चढती हैं बलि दहेज की,
बदनाम होते है रिश्तों के कोमल धागे,
टूटता है नारी का अभिमान,
जार-जार होता है पुरुष का साख,
पुरुषत्व लग जाता है दाँव पर,
दहेज रुपी ये विसंगतियाँ....
ये सामजिक कुरीतियाँ...
समाज-सुधारकों के बस हैं ये नारे...

शेष, लफ्जों पे जड़े ताले, चुप क्यूं हैं सारे?

जब होती है भ्रुणहत्या बेटियों की,
निरपराध सुनाई जाती हैं सजाए मौत,,
अजन्मी सी वो नन्ही जान,
वो जताए भी कैसे अपना विरोध,
हतप्रभ है वो ऐसी सोंच पर,
सफेदपोशों का ये कृतघ्न.....
ये अपराध जघन्य....
नारी भ्रुणहत्या अक्षम्य, के बस हैं नारे...

शेष, लफ्जों पे जड़े ताले, चुप क्यूं हैं सारे?

( विश्व कविता दिवस 21 मार्च पर विशेष - बेटियों को समर्पित मेरी रचना, सामाजिक विषमताओं के विरुद्ध एक अलख जगाने की मेरी कोशिश)

Tuesday, 20 March 2018

संशय

कुछ पूछे बिन लौट आता है, मन बार-बार....

पलते हैं इस मन शंका हजार,
मन को घेरे हैं संशय, कर लेता हूं विचार!
क्या सोचेंगे वो! क्या समझेंगे वो? 
क्या होगा उनका व्यवहार?
गर, मन की वो बातें, रख दूं उतार!
फिर, लाखों संशय से मन घिर जाता है!
डरता है, घबराता है, सकुचाता है.....
जाता है उन राहों पे हर-बार....

कुछ पूछे बिन लौट आता है, मन बार-बार....

फिर करता हूं मन को तैयार,
संशय में जीता, संशय में मरता हूं यार?
क्या संशय में मिल पाएंगे वो?
क्या यह संशय है बेकार?
या त्याग दूं संशय, हो जाऊँ बेजार!
फिर, संशय की बूंदों से मन घिर जाता है!
भीगता है, रुकता है, फिर चलता है...
जाता है भीगी राहों पे हर-बार....

कुछ पूछे बिन लौट आता है, मन बार-बार....

Sunday, 18 March 2018

अधलिखा अफसाना

बंद पलकों तले, ढ़ूंढ़ता हूं वही छाँव मैं...
कुछ देर रुका था जहाँ, देखकर इक गाँव मैं....

अधलिखा सा इक अफसाना,
ख्वाब वो ही पुराना,
यूं छन से तेरा आ जाना,
ज्यूं क्षितिज पर रंग उभर आना..
और फिर....
फिजाओं में संगीत,
गूंजते गीत,
सुबह की शीत,
घटाओं का उड़ता आँचल,
हवाओं में घुलता इत्र,
पंछियों की चहक,
इक अनोखी सी महक,
चूड़ियों की खनक,
पत्तियों की सरसराहट,
फिर तुम्हारे आने की आहट,
कोई घबराहट,
काँपता मन,
सिहरता ये बदन,
इक अगन,
सुई सी चुभन,
फिर पायलों की वही छन-छन,
वो तुम्हारा पास आना,
वो मुस्कुराना,
शर्म से बलखाना,
वो अंकपाश में समाना,
वापस फिर न जाना,
मन में समाना,
अहसास कोई लिख जाना,
है अधलिखा सा इक वो ही अफसाना....

बंद पलकों तले, ढ़ूंढ़ता हूं वही छाँव मैं...
कुछ देर रुका था जहाँ, देखकर इक गाँव मैं....

Saturday, 17 March 2018

टेढ़े मेढ़े मेड़ - खंड खंड भूखंड

खंड-खंड खेतों को बांटते ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...

टेढी मेढ़ी लकीेरों से पटी ये धरती,
जैसे विषधर लेटी हो धरती के सीने पर,
चीर दिया हों सीना किसी ने,
चली हो निरंकुश स्वार्थ की तलवार, 
खंड खंड होते ये बेजुबान भूखंड.....

मानसिकता के परिचायक ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...

ये तेरा, ये मेरा, ये खंड खंड बसेरा,
ये लालसा ये पिपासा, ये स्वार्थ का डेरा,
ये संकुचित होती मानसिकता,
ये सिमटते से रिश्तों का छोटा संसार,
ये खंड खंड हुए बिलखते भूखंड.....

खंड-खंड रिश्तों को बांटते ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...

वाद-विवाद, रिश्तों में आई खटास, 
मन की भूखंड पर पनपते ये विषाद वॄक्ष,
अपनो के लहू से रंगे ये हाथ,
टेढे मेढे मेडों पर सरकता काला नाग!
यूं खंड खंड होते रिश्तों के भूखंड.....

खंड-खंड जीवन को करते ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...

गर होते ये मेड़ संस्कारों के,
कुसंस्कार प्रविष्ट न हो पाते जीवन में,
पनपते कुलीन विचार मन में,
मेड़ ज्ञान की दूर करती अज्ञानता,
स्वार्थ हेतु खंड खंड न होते ये भूखंड....

काश! निश्छल मन को न बांटते ये टेढ़े मेढ़े मेड़....

तारे चुरा ले गया कोई

उनींदी रातों से, झिलमिल तारे चुरा ले गया कोई!

तमस भरी काली रातों में,
कुछ तारे थे दामन मे रातों के,
निशा प्रहर, सहमी सी रात,
छुप बैठी वो, दामन में तारों के,
भुक-भुक जलते वो तारे,
रातों के प्यारे वो सारे,
अलसाए से कुछ थके हारे,
निस्तब्ध रातो की, बाहों में खो गई......

उनींदी रातों से, वो ही तारे चुरा ले गया कोई!

फिर टूटी रातों की तन्द्रा,
अंधियारों में तम की वो घिरा!
तारों की गम में वो रहा,
किससे पूछे वो, तारों का पता?
अब कौन बताए, कहां गए वो तारे?
खुद में खोए निशाचर सारे!
मदमाए से फिरते वो मारे-मारे,
तम की पीड़ा का, न था अन्त कोई....

तम की रातों से, क्युं तारे चुरा ले गया कोई!

टिमटिम जलती वो आशा!
इक उम्मीद, टूट गई थी सहसा!
व्याप्त हुई थी खामोशी,
सहमी सी वो, सिहर गई जरा सी!
दामन आशा का फिर फैलाकर,
लेकर संग कुछ निशाचर,
तम की राहों से गुजरे वो सारे,
उम्मीद की लड़ी, फिर जुड़ सी गई.....

इन रातों से, वो टिमटिम तारे न चुराए कोई!

Friday, 16 March 2018

पन्नों के परे

इक जीवन, इक पन्नों में, इक पन्नों के परे.....

कुछ शब्दों में अंकित पन्नों में गरे,
भावनाओं से उभर कर स्याही में लिपटे,
कल्पनाओं के रंगों से सँवरे,
बेजान, मगर हरदम जीवंत और ज्वलंत,
जज्बातों के कुलांचे भरते,
अनुभव के फरेब या हकीकत?
पन्नों पे गरे, शब्दों के ये खेत हरे भरे!

इक जीवन, इक पन्नों में, इक पन्नों के परे.....

इक इक शब्द, नेह-स्नेह से भरे,
सपनों के सतरंगी आसमान पर उड़ते,
नभ पर बिंदास पंख फैलाए,
मानो रच रहे कल्पना का नया आकाश,
अविश्वसनीय संरचना रचते,
या चक्रव्युह कोई खुद में भ्रमित!
पन्नों के परे! ये शब्दों के जंगल हरे भरे!

इक जीवन, इक पन्नों में, इक पन्नों के परे.....

किरदार कई इन पन्नों पर गढ़े,
एकसाथ विपरीत विचारधाराओं की पृष्ठें,
शक्ल इक किताब की लिए,
विचारधाराओं की संगम का आभास,
कोई नवधारा बनकर बहते,
या आपस मे लड़ते होते मूर्छित?
पन्नों के परे! ये व्यथा विन्यास हरे भरे!

इक जीवन, इक पन्नों में, इक पन्नों के परे.....

Thursday, 15 March 2018

गुमसुम

हो कहाँ गुमसुम, किस विक्षोभ के घर!

न ही हृदय में आह के स्वर,
न ही भाव में पलते प्रवाह के ज्वर,
निस्तेज पड़ी मुख की आभा,
बुझी सी है वो तेज प्रखर.....

हो कहाँ गुमसुम, किस विक्षोभ के घर!

मन के भीतर कैसा उद्वेलन?
अपने ही मन से कैसा निराश प्रश्न?
उद्वेलित साँसों में कैसा जीवन?
विक्षोभित ये हृदय के स्वर....

हो कहाँ गुमसुम, किस विक्षोभ के घर!

नयन में ताराविहीन गगन,
साँसों के प्रवाह में उठती ये लपटें,
अगन के प्रदाह में जलता मन,
क॔पकपाते से ये तेरे स्वर....

हो कहाँ गुमसुम, किस विक्षोभ के घर....

इसी शहर से

ठहरकर इसी शहर से हम गुजर जाते हैं...

ये तमाम रास्ते, कहीं दूर शहर से जाते हैं...
पर मेरे वास्ते, ये बंद नजर आते है!
किसी मोहपाश में हम यहाँ बंधे जाते हैं,
यूं शहर की धूल में बिखर जाते हैं?

हम न शीशा कोई ,जो पल में टूट जाते हैं...
फिसलकर हाथ से जो छूट जाते हैं!
हैं वही सोना, जो तपकर निखर जाते हैं,
जलकर आग में भी सँवर जाते हैं!

शहर की शुष्क आवोहवा बदल जाते है...
यूं खुश्बू की तरह यहाँ बिखर जाते हैं!
गर्मियों में फुहार बनकर बरस जाते है,
हम शहर के रहगुजर बन जाते हैं!

ठहरकर इसी शहर से हम गुजर जाते हैं...
भले ही हमसफर न कोई हम पाते हैं!
यूं बार-बार इस दिल को हम समझाते हैं,
फिर न जाने हम खुद बहक जाते हैं?

ठहरकर इसी शहर से हम गुजर जाते हैं...

Tuesday, 13 March 2018

इस शहर में

इस शहर में, कम ही लोग बोलते हैं...

चुप ही चुप, खामोशियों को तोलते हैं,
न जाने क्यों, कम ही लोग बोलते हैं...

वो गूंगे हैं जो, बस आँखों से तोलते हैं,
चुप ही चुप, न जाने क्या टटोलते हैं...

गर जरूरत हो, तो वे जुबां खोलते हैं,
आगे पीछे वो, गैरों के भी डोलते हैं...

मतलब से, वो जुबाने जहर घोलते है,
जुबा-एँ-खंजर, वो सीने में घोपते हैं...

जुबान पे मिश्री, वो कम ही घोलते हैं,
कहाँ मन को, वो कभी टटोलते हैं...

बीच शहर के, वो हृदय जो खोलते हैं,
पागल है वो!,  सब यही बोलते है....

फितरत में, तो बस फरेब ही पलते हैं,
इस शहर में, कम ही लोग बोलते हैं...