लफ्जों पे जड़े ताले, चुप क्यूं रहते हैं सारे?
जब लुटती है अस्मत अबला की,
सरेआम तिरस्कृत होती है ये बेटियाँ,
बिलखता है नारी सम्मान,
तार तार होता है समाज का कोख,
अधिकार टंग जाते हैं ताख पर,
विस्तृत होती है असमानताएँ...
ये सामाजिक विषमताएँ....
बहुप्रचारित बस तब होते हैं ये नारे...
वर्ना, लफ्जों पे जड़े ताले, चुप क्यूं हैं सारे?
जब बेटी चढती हैं बलि दहेज की,
बदनाम होते है रिश्तों के कोमल धागे,
टूटता है नारी का अभिमान,
जार-जार होता है पुरुष का साख,
पुरुषत्व लग जाता है दाँव पर,
दहेज रुपी ये विसंगतियाँ....
ये सामजिक कुरीतियाँ...
समाज-सुधारकों के बस हैं ये नारे...
शेष, लफ्जों पे जड़े ताले, चुप क्यूं हैं सारे?
जब होती है भ्रुणहत्या बेटियों की,
निरपराध सुनाई जाती हैं सजाए मौत,,
अजन्मी सी वो नन्ही जान,
वो जताए भी कैसे अपना विरोध,
हतप्रभ है वो ऐसी सोंच पर,
सफेदपोशों का ये कृतघ्न.....
ये अपराध जघन्य....
नारी भ्रुणहत्या अक्षम्य, के बस हैं नारे...
शेष, लफ्जों पे जड़े ताले, चुप क्यूं हैं सारे?
( विश्व कविता दिवस 21 मार्च पर विशेष - बेटियों को समर्पित मेरी रचना, सामाजिक विषमताओं के विरुद्ध एक अलख जगाने की मेरी कोशिश)
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