Sunday, 8 July 2018

बिसारिए न मन से

इक याद हूं, बिसारिए न मन से,
मुझको संभालिए जतन से,
फिर लौट आऊंगा मैं उस गगन से,
कभी पुकारिए न मन से!

जब खुश्बू सी कोई आए चमन से,
हो जाए बेचैन सी ये सांसें,
या ठंढी सी बारिश गिरने लगे जब गगन से,
बूंदों में भीग जाएं ये मेरी यादें,
कहने को कुछ, दिन-रैन मन ये तरसे,
मैं पास हूं, पुकारिए न मन से!

इक याद हूं, बिसारिए न मन से.........

फीका लगे जब तन पे श्रृंगार सारे,
सूना सा लगे जब ये नजारे,
खुद से ही खुद को, जो कभी तुम हो हारे,
वश में न हो जब मन तुम्हारे,
न आए कोई आवाज इन धड़कनो से,
मैं साथ हूं, पुकारिए न मन से!

इक याद हूं, बिसारिए न मन से,
मुझको संभालिए जतन से,
फिर लौट आऊंगा मैं उस गगन से,
न हूं दूर, पुकारिए न मन से!

Thursday, 5 July 2018

आलिंगन

अब उम्र हुई! अब है कहां वो आलिंगन?

कभी इक तपिश थी बदन में,
सबल थे ये मेरे कांधे,
ऊंगलियों में थी मीठी सी चुभन,
इक व्यग्रता थी,
चंचलता थी चेहरे पर,
गीत यूं ही बज उठते थे मन में,
अंजाने से धुन पर थिरकते थे कदम,
न ही थे अपने आप में हम,
व्यग्र रहते थे तुम भी,
भींचकर ले लेने को मेरा ये आलिंगन!

कितने करीब थे दूरियों में हम,
न ही थी ये तन्हाई,
न ही था कभी उन दूरियों का गम,
न ही चिन्ता थी कोई,
न था कोई फिक्र,
बस इक ख्याल था मन में,
न ही किसी सवाल में उलझे थे हम,
बस इक स्वप्न सा परिदृश्य,
यूं ही बहकी सी तुम,
और आगोश में वही भरपूर आलिंगन!

पर अब उम्र हुई! अब विरह का है आलिंगन!

शिथिल से शरीर में अब है हम,
झुर्रियों में दफन है तपिश,
जमाने भर का बोझ धरा है कांधो पर,
भारी है सांसों का प्रवाह,
झुक चुकी है कमर,
अनगिनत से कई सवाल में,
अब बन चुके हो बस इक ख्याल तुम,
इक दृश्य है अक्श तुम्हारा,
स्वप्न हो बस अब तुम,
और खाली-खाली है मेरा ये आलिंगन!

अब उम्र हुई! अब विरह भरा है ये आलिंगन!

Wednesday, 4 July 2018

नीर थे वो

नीर थे वो, जो नैनों से छलककर बह गए.....

जज्ब थे ये नैन की कटोरियों में,
या हृदय की क्यारियों में,
वर्षों तलक, अर्सों से यहीं...
दफ्न थे ये सब्र की तिजोरियों में....

कुछ विष भरे दंश देकर,
मन में टीस के कुछ बीज बोकर, 
फिर कुरेदा है किसी ने,
इस हृदय की बंजर सी जमीं को....

सब्र का जब बांध टूटा,
यूं हृदय से धैर्य का हाथ छूटा,
सुबकते नैन में ये भर गए,
जज्ब थे ये, अचानक फूटकर ये बह गए..

नीर थे वो, यूं ही छलककर कुछ कह गए....

अब रिस रहे ये बंजर से हृदय में,
भर चुके मन की निलय में,
पाषाण जमी सिक्त हो चली...
सदय हो चला, बंजर सा ये हृदय....

कुछ बूंद नैनों में उतरकर,
टीस मन के कुछ हाथों से धोकर,
फिर से बांधा है इसी ने,
बंजर हृदय के टूटे हुए धैर्य को....

सब्र तब मन को मिला,
जब नीर बन ये नैनों से चला,
घनीभूत ये हृदय में रहे,
जज्ब से थे, द्रवीभूत हो टीस में बह गए...

नीर थे वो, यूं ही छलककर कुछ कह गए....

Monday, 25 June 2018

सधी हुई चाल

पग-पग गिनता हूं, फिर दो पग चलता हूं....

संयम रखता हूं, धीरज धरता हूं,
दो-दो पग तुलकर, इक पग मैं रखता हूं,
बाधाओं से परे, मैं निर्बाध चलता हूं....

पग-पग गिनता हूं, फिर दो पग चलता हूं....

आवेग प्रबल, नियंत्रित करता हूं,
खुद चुप-चुप रहकर, इक पग रखता हूं,
अवरोध से परे, निर्विरोध चलता हूं....

पग-पग गिनता हूं, फिर दो पग चलता हूं....

अन्तर्विरोध का, विरोध करता हूं,
खुदपर काबू रखकर, इक पग रखता हूं,
विवादमुक्त मैं, निर्विवाद चलता हूं....

पग-पग गिनता हूं, फिर दो पग चलता हूं....

विचलित है राहें, सीधा चलता हूं,
फिसलन से बचकर, इक पग रखता हूं,
टेढी राहों पर, सधकर मैं चलता हूं....

पग-पग गिनता हूं, फिर दो पग चलता हूं....

प्रणय फुहार

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

सुकून सा कोई, मिला है हर मौसम,
न ही गर्मी है, न ही झुलसती धूप,
न ही हवाओं में, है कोई दहकती जलन...

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

कोई नर्म छाँव, लेकर आया हो जैसे,
घन से बरसी हों, बूंदों की ठंढ़क,
रेतीली राहों में, कम है पाँवों की तपन....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

चल पड़ता हूं मैं गहरे से मझधार में,
भँवर कई, उठते हों जिस धार में,
है बस चाहों में, इक साहिल की लगन....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

हाँ! ये तपिश, पल-पल होती है कम,
है ऐसा ही, ये प्रणय का मौसम,
इस रिमझिम में, यूं भीगोता हूं मैं बदन.....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

Friday, 22 June 2018

कोरा अनुबंध

कैसी ये संविदा? कैसा यह कोरा अनुबंध?

अनुबंधों से परे ये कैसा है बंधन!
हर पल इक बंधन में रहता है ये मन!
किन धागों से है बंधा ये बंधन!
दो साँसों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

जज्बातों की इक जंजीर है कोई!
या कोरे मन पर खिंची लकीर है कोई!
मीठी-मीठी सी ये पीर है कोई!
दो भावों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

या हवाओं में लिखे कुछ अल्फाज!
सदियों तक कानों में गूंजती आवाज!
बीते से पल में डूबा सा आज!
दो लम्हों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

या विरह में व्याकुल होते ये प्राण!
बस जाती इक तोते में कैसे ये जान!
अंजाने को अपनाता इंसान!
दो प्राणों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

कैसी ये संविदा? कैसा यह कोरा अनुबंध?

Sunday, 17 June 2018

दो पग साथ चले

दो पग पथ पर तुम क्या मेरे साथ चले......

ख्वाब हजारों आकर मुझसे मिले,
जागी आँखों में अब रात ढ़ले,
संग तारों की बारात चले,
सपनों में अब मन को आराम मिले!

दो पग पथ पर तुम क्या मेरे साथ चले......

कब दिन बीते जाने कब रैन ढले,
उम्मीद हजारो हम बांध चले,
उस पथ मेरे अरमान चले,
तुमको ही हम अपना मान चले!

दो पग पथ पर तुम क्या मेरे साथ चले......

पथ उबड़-खाबड़ मखमल से लगे,
पग पग कितने ही फूल खिले,
ये ख्वाब हकीकत में ढ़ले,
कितनी ही जन्मों के सौगात मिले!

दो पग पथ पर तुम क्या मेरे साथ चले......

हम, हम में थे..

तुम जब-जब दो पग मेरे स॔ग थे...

हम, हम में थे....
हम! तुझ में ही खोए हम थे,
जुदा न खुद से हम थे,
तुम संग थे,
तेरे पग की आहट मे थे,
कुछ राहत मे थे,
कुछ संशय में हम थे!
कहीं तुम और किसी के तो न थे?

तुम कहते थे....
हम! बस सुनते ही रहते थे,
तुम दो पल थे,
पर वो पल क्या कम थे?
गूंजते वो पल थे,
संग धड़कन के बजते थे,
आँखों में सजते थे,
उस पल, तुम बस मेरे ही होते थे!

वो दो पग थे.....
पर कहीं भी रुके न हम थे,
उस पथ ही थे,
जिस पथ तुम संग थे,
उस पल में हारे थे,
संग तुम्हारे थे,
वो नदी के किनारे थे,
बहती उस धार में तेरे ही इशारे थे!

तुम जब-जब दो पग मेरे स॔ग थे...

हम, हम में थे....
कभी, जुदा न खुद से हम थे.....

Saturday, 16 June 2018

प्रवाह

इक आह भरता हूं, किश्तों में प्रवाह लिखता हूं.....

मैं अनन्त पथ गामी,
घायल हूं पथ के निर्मम कांटों से,
पथ के कंटक चुनता हूं,
पांवों के छालों संग,
अनन्त पथ चल पड़ता हूं,
राहों के कई अनुभव,
मन में रख लेता हूं यूं सहेजकर,
छाले गिन-गिन कर,
किश्तों में मन के प्रवाह लिखता हूं......

भाव-प्रवन मेरा मन,
प्लावित होता है कोमल भावों से,
भावों में बह जाता हूं,
खुद होता हूं बेसुध,
फिर लहरों में गोते खाता हूं,
अनुभव के कोरे पन्ने,
भर लेता हूं उन लहरों से चुनकर,
कुछ भीगे शब्दों से,
किश्तों में मन के प्रवाह लिखता हूं......

है अनथक प्रवाह यह,
गुजरा हूं कितनी दुर्गम राहों से,
घाट-घाट धो देता हूं,
मलीन मन लेकर,
सम्मुख सागर के हो लेता हूं,
छूट चुकी हैं जो राहें,
बरबस देखता हूं मैं मुड़-मुड़कर,
यादों के उस घन से,
किश्तों में मन के प्रवाह लिखता हूं......

इक आह भरता हूं, किश्तों में प्रवाह लिखता हूं.....

Wednesday, 13 June 2018

कोई अन्त न हो

बासंती इन एहसासों का कोई अन्त न हो....

मंद मलय जब छू जाती है तन को,
थम जाती है दिल की धड़कन पलभर को,
फिर इन कलियों का खिल जाना,
फूलों की डाली का झूम-झूमकर लहराना,
इन जज्बातों का कोई अन्त न हो.....

यूं किरणों का मलयगिरी से मिलना,
मलयनील का उन शिखरों पर लहराना,
फिर रक्तिम आभा सा छा जाना,
यूं नत मस्तक होकर पर्वत का शरमाना,
इन मुलाकातों का कोई अन्त न हो.....

जब यूं चुपके से पुरवैय्या लहराए,
कोई खामोश लम्हों मे दस्तक दे जाए,
फिर यूं किसी का गले लग जाना,
चंद लम्हों में उम्र भर की कसमें खाना,
इन लम्हातों का कोई अन्त न हो.....

बासंती इन एहसासों का कोई अन्त न हो....