आइए, कुछ तथ्य व एक रचना के माध्यम से प्रतिध्वनि को एक आयाम देने की कोशिश करते हैं ......
प्रतिध्वनि! एक एहसास, जिसे हम अवश्य ही सुनना या महसूस करना पसंद करते हैं। मानव मन, हमेशा ही, किसी क्रिया की प्रतिक्रिया जानने हेतु, लालायित रहता है और यह उत्सुकता ही, कभी-कभी, जीने का कारण बनती है।
कल्पना करें कि आपने ईश्वर को रिझाने हेतु मंदिर की घंटी बजाई, लेकिन उस आवाज, उस टंकार की गूंज, आपको सुनाई ही नहीं पड़ी, तो उस क्षण आप विचलित हो उठते हैं ।
शंख बजे, पर गूंज उत्पन्न न हो तो वो शंख क्या? यह एक ऐसी स्थिति होती है जैसे कि किसी वादी में आपकी आवाज गूंजती ही न हो और कहीं खो जाती हो।
प्रतिध्वनि, एक संवाद है, जिसमें वक्ता व स्त्रोता दोनों पर एक प्रभाव पड़ता है और एहसास के स्वर एक दूसरे को छूकर गुजरते रहते हैं।
प्रतिध्वनि बुनने की, एक कोशिश .....
धक-धक, धक-धक,
धड़कती है!
गूंज सुनो ना, तुम इस धड़कन की!
रह-रह, हृदय कुछ कहती है,
या, चुप ही रहती है!
बेसुर हैं, इसकी एहसासों के स्वर!
रह-रह, चुप सी रहती है,
या, कुछ कहती है!
इस चुप्पी में, सिर्फ संशय पलते हैं!
है आशय क्या, संशय का!
ठहरी सी, संवादें है!
धक-धक, धक-धक,
धक-धक, धक-धक,
मन ही मन गुनना, खुद ही सुनना,
या, इक संवाद-हीनता है
या, बातें बहकी हैं!
धक-धक, धक-धक,
क्या प्रतिध्वनित, नहीं होते ये स्वर?
कह दो ना, तुम आकर,
या, झंकार कोई दो!
टूटी वीणा, रह-रह होती हैं कंपित,
सुर वो, फिर दोहराती है,
या, गुम रहती है!
धक-धक, धक-धक,
संवाद कोई हो, फिर याद कोई हो!
फिर शुरु, विवाद वही हो,
या, प्रश्न कई कर लो!
उत्सुकता, घट जाए थोड़ी-थोड़ी,P
रह-रह, जो ये बढ़ जाती है,
या, दबी सी रहती है!
प्रतिध्वनि बुनो,
गूंज सुनो ना, तुम इस धड़कन की!
धक-धक, धक-धक,
धक-धक, धक-धक,
रह-रह, ये कुछ कहती है,
या, चुप ही रहती है!
धक-धक, धक-धक!
धक-धक, धक-धक!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)