Monday, 4 October 2021

सूनी ये वादियां

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!
या, फिर गुनगुना दो, प्रणय के गीत कोई!

अक्सर ओढ़ कर, खामोशियां,
लिए अल्हड़, अनमनी, ऊंघती, अंगड़ाइयां,
बिछा कर, अपनी ही परछाईयां,
चल देते हो, कहां!

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!

पल वो क्या, जो चंचल न हों,
प्रणय हों, पर अनुनय-विनय के पल न हों,
संग हो, पर ये कैसी तन्हाईयां,
खोए हो, तुम कहां!

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!

देखो, वो पर्वत, कब से खड़ा,
छुपाए पीड़ मन के, तन्हाईयों में, हँस रहा,
जरा, फिर बिछाओ परछाईयां,
तुम भी, बैठो यहां!

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!

अक्सर, पलों को, बिखेर कर,
यूं ही हौले से, बहते पलों को झकझोरकर,
छोड़ कर, उच्श्रृंखल क्षण यहां,
चल देते हो, कहां!

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!
या, फिर गुनगुना दो, प्रणय के गीत कोई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 3 October 2021

अधूरा शै

लगाए, खुद पे पहरा,
हर शख्स, है कितना अधूरा!

कितनी गांठें, बंध गई, इस मन के अन्दर,
प्यासा रह गया, कितना समुन्दर,
बहता जल, नदी का, ज्यूं कहीं हो ठहरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर शै, यहां कितना अधूरा!

मुरझा चुकी, कितनी कलियां, बिन खिले, 
असमय, यूं बिखरे फूल कितने,
बागवां से, इक बहार, कुछ यूं ही गुजरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर बाग, है कितना अधूरा!

बरस सके ना, झूमकर, बादल चाहतों के,
ढ़ंग, मौसमों के, बदले-बदले,
वो बादल, आसमां से कुछ यूं ही गुजरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर चाह, है कितना अधूरा!

तमन्नाओं के डोर थामे, बिताई उम्र सारी,
प्यासी रह गई, जैसे हर क्यारी,
दूर, यूं ढ़ल रहा सांझ, ओढ़े रंग सुनहरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर रंग, है कितना अधूरा!

लगाए, खुद पे पहरा,
हर शख्स, है कितना अधूरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 30 September 2021

टूटे पत्थरों के गीत

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

ह्रदय के ज़ख्म सारे, ‌‌‌‌‌‌‌गाकर गीत हारे,
हरे, ये ज़ख्म उभरे,
‌कौन, इन जख्मों को भरे!

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

रही जब तक, शिला, हर कोई मिला,
गिला, क्यूं ना करे,
लगाए कौन, मन पे पहरे!

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

तोड़ा था, उसी ने, जिसने यूं बिखेरा,
अधूरा, ये गीत मेरा,
वो सुने, ना, विलाप करे!

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

भर ही जाएं, ना कुरेदो ज़ख़्म कोई,
रहने दो, यूं ही पड़ा,
सह लूंगा, राह की ठोकरें!

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

बुलाएंगे ये कल, पुकारेंगे आह मेरे,
लुभाएंगे, ज़ख्म हरे,
देखें, कौन जख्मों को भरे!

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

वो अक्सर

मचल कर, मखमली सवालों में!
वो अक्सर, आ ‌‌‌‌‌ही जाते हैं, ख्यालों में!

न बदली, अब तक, उनकी शोखियां,
वो ही रंग, अब भी, वो ही खुश्बू,
और वही, नादानियां,
वो अक्सर, कर ही जाते हैं ख्यालों में!

पर, ठहरती है, कब वो, चंचल पवन,
गुजर से जाते हैं, पल वो आकर,
जरा सा, गुदगुदा कर,
अक्सर, भरमा ही जाते हैं, ख्यालों में!

बज ही उठती हैं, ये टूटी सी, वीणा,
थिरक से, उठते हैं, ये तार-तार,
इक पल, गुनगुना कर,
वो अक्सर, बस ही जाते हैं ख्यालों में!

दोष, उन उफनती , लहरों का क्या,
बे-सहारे, किनारों के, वो सहारे,
टकराकर, किनारों से,
अक्सर, भीगो ही जाते हैं, ख्यालों में!

मचल कर, मखमली सवालों में!
वो अक्सर, आ ‌‌‌‌‌ही जाते हैं, ख्यालों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 24 September 2021

भारी व्यथा

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

देकर आधार, अनन्त सिधार गए तुम,
देकर अनुभव का, सार गए तुम,
पर, किस पार गए तुम?
फिर, ढूंढ न पाया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

आँखों में मेरी, जीवन्त सा चेहरा तेरा,
है ख्यालों पर मेरी, तेरा ही पहरा,
पर, दर्शन वो अन्तिम तेरा,
मेरे ही, भाग्य न आया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

है भारी जीवन पर, इक वो ही व्यथा!
भूल पाऊँ कैसे, तुमको सर्वथा?
कहीं, खत्म हुई जो कथा!
वही, फिर याद आया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

यूँ तो संग रहे तुम, करुणामय यादों में,
गूंज तुम्हारी, ‌‌है अब भी कानों में,
पर, भीगी सी पलकों में!
तुझको, ना भर पाया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

तुम, रहे बन कर, स्वप्न कोई अनदेखा,
टूटकर, जैसे फिर बनती हो रेखा,
पर, वो ही मूरत अनोखा!
है, आँखों में समाया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

थी विस्मयकारी, तेरी सारगर्भित बातें,
शेष है जीवन की, वो ही सौगातें,
और, लम्बी होती ये रातें!
इन, रातों नें भरमाया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

हर पल भारी, है तेरे विरह की व्यथा,
भूल पाऊँ कैसे, तुमको सर्वथा?
हार चला, भले ही तुझको,
अन्तर्मन, तुझे ही पाया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 19 September 2021

तन्हा न खोना

एकाकी, कट पाए कैसे पथ,
एकल रुक जाए ना, ये जीवन-रथ,
पल एकाकी, मन के चुन लेना,
तन्हा, यूँ न कहीं खोना!

चुन लेना, इसी राह, कोई अपना!

सांझ ढ़ले, यूँ कोई छाँव मिले,
दूर तलक, गगन तले, कोई संग चले,
साझा सा, कोई सपना, बुन लेना,
तन्हा, यूँ न कहीं खोना!

चुन लेना, इसी राह, कोई अपना!

न उलझाए, कहीं ढ़लते साए,
न मुरझाए, वो फूल जो खिल आए,
कुछ कसमें कुछ वादे, कर लेना,
तन्हा, यूँ न कहीं खोना!

चुन लेना, इसी राह, कोई अपना!

हिय यूँ डोले, डगमग-डगमग,
रुक जाए, कैसे, पल के चंचल पग,
फिर भी, धुन हिय के सुन लेना,
तन्हा, यूँ न कहीं खोना!

चुन लेना, इसी राह, कोई अपना!

संगी वही, फिर मिले न मिले,
गुजरे से, वो पल, उसी कल में ढ़ले,
कहीं उस पल में ही, रुक जाना,
तन्हा, यूँ न कहीं खोना!

चुन लेना, इसी राह, कोई अपना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 14 September 2021

संगी सांझ के

ओ संगी मेरे, मेरी सांझ के...

यूँ न फेरो उधर, तुम अपनी आँखें,
देखो इधर, अभी है सवेरा,
घेरे है, तुझको, ये कैसा अंधेरा, 
सिमटने लगा, क्यूँ मुझसे मेरा सवेरा,
आ रख लूँ, तुझे थाम के!

ओ संगी मेरे, मेरी सांझ के...

तू यूँ न कर, जल्दी जाने की जिद, 
यूँ चल कहीं, वक्त से परे,
खाली ये पल, चल न, संग भरें,
छिनने लगे, क्यूँ सांझ के मेरे सहारे,
आ रख लूँ, तुझे बांध के!

ओ संगी मेरे, मेरी सांझ के...

यूँ न देख पाऊँ, क्लांत चेहरा तेरा,
तमस सी, अशान्त साँसें,
क्यूँ न उधार लूँ, वक्त, सांझ से,
भर लूँ जिन्दगी, उभरते विहान से,
आ रख लूँ, तुझे मांग के!

ओ संगी मेरे, मेरी सांझ के...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
...............................................
- जाने क्यूँ! हो चला, 
सांझ से पहले, सांझ का अंदेशा,
बिखरी सी, लगे हर दिशा!
जाने क्यूँ!

Sunday, 12 September 2021

वो तुम हो

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

यूँ तो सर्वथा, सर्वदा, हूँ तुझसे जुदा,
मिलते रहे, क्षितिज की, लाली में सदा,
देकर, इक सिंदूरी सी सदा,
विरान मेरे आंगन में, रोज उतरते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो।

यूँ, बहकाने को आएं, दशों दिशाएँ,
रस्ते कितने, दूर दिशाओं को ले जाएँ,
और, ले आते हो, तुम यहाँ,
यूँ अफसाने, सदियों के, लिखते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो।

उठते हो, भीनी सी ख़ुशबू बन के,
छलके, एहसासों संग, बूँदों में ढ़लके,
गहराई, सावन सी, पलकें,
उमंग कई, एहसासों मे, भरते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो।

यूँ तो सर्वथा, सर्वदा, हूँ तुझसे जुदा,
मिले भी कहीं, पल दो पल, यदा-कदा,
पर हो, एहसासों में, सर्वदा,
टुकड़े, मेरे ही टूटे पल के, चुनते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 11 September 2021

टीस

आसान कहाँ, भावों को अभिव्यक्ति देना...
यूँ, मूक मनोभावों को, सुन लेना!

अर्थहीन सभी लगते, यूँ, चेहरे सारे,
टिमटिम से, नैनों के दो तारे,
अपलक, जाने किसकी, राह निहारे!

यूँ, अन्तः सौ-सौ अन्तर्द्वन्द्व संभाले,
पग-पग, राहों नें द्वन्द डाले,
लगाए, चंचल से, एहसासों पे ताले!

घूंघट तले, कितने ही, सावन जले,
चुप-चुप, सारे अरमान पले,
वो अनकहे, बिन कहे, कोई सुन ले!

तड़पाए मन, भावों के आवागमन,
उलझाए, अन्तः अवलोकन,
लब कैसे दे, यूँ, शब्दों को थिरकन!

शिकन, यूँ चेहरों पे, भाव न गढ़ते,
नैनों में, यूँ न, बहाव उतरते,
टीस भरे, गहरे से ये घाव ना रहते!

आसान कहाँ, भावों को अभिव्यक्ति देना...
यूँ, मूक मनोभावों को, सुन लेना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 9 September 2021

टूटते किनारे

दो ही कदम, तो, तुम चले थे संग,
पर, कितने चंचल से, थे हम,
और, चुप से तुम!

जैसे, रुक सी रही हो, इक नदी,
चीख कर, खामोश सी हो, इक सदी,
ठहर सा रहा हो, वक्त का दरिया,
गहराता सा, एक संशय,
इक-इक पल, लिए कितने आशय,
पर, संग, बड़े बेखबर से हम,
और, गुम से तुम!
 
दो ही कदम, तो, तुम चले थे संग,
पर, कितने चंचल से, थे हम..

जैसे, खुद में छुपी इक कहानी,
साँसों में उलझी, अल्हर सी रवानी,
वक्त, बह चला हो, वक्त से परे,
टूटते से, वो दो किनारे,
छूटते, निर्दयी पलों के, वो सहारे,
पर, कितने, अन्जान थे हम,
और, चुप से तुम!

दो ही कदम, तो, तुम चले थे संग,
पर, कितने चंचल से, थे हम..

अब, वही, यादों के अवशेष हैं,
संचित हो चले, जो वो पल शेष हैं,
बहा ले चला, वक्त का दरिया,
ना जाने, तुझको कहाँ,
नजरों से ओझल, है वो कारवाँ,
पर, उन्ही ख़ामोशियों में हम,
और, संग हो तुम!

दो ही कदम, तो, तुम चले थे संग,
पर, कितने चंचल से, थे हम,
और, चुप से तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)