Tuesday, 29 December 2015

प्यासे जीवन की आशा

आग वो जो जीवन पीकर जलती है,
प्यार वो जो प्यालों में डूबकर मिलती है,
कोमलता वो जो तुम संग मिलती है,
मधुरता वो उस क्षण प्राणों में बसती है।

प्यास वो जो गरल पीकर बुृझती है,
आँसू वो जो तेरी यादों में बहती है,
सम्मुख वो जो जग से विमुख रहती है,
लहर वो जो तुझ संग हृदय में उठती है।

ओह! मन तू समझ ले जीवन की परिभाषा,
डाल दृष्टि उस अचेतन पर तू तजकर निराशा,
विमुख जो तुझको दिखता, वही है तेरे सम्मुख,
गरल मे ही संचित है, प्यासे जीवन की आशा।

मिटती नहीं मन की क्युँ प्यास?

मिटती नही मन की क्युँ प्यास !

जैसे जीवन में गायन हो कम,
गायन में हों स्वर का अधूरापन,
स्वर में हो कंपन का विचलन,
कंपन में हो साँसों का तरपन ।

मिटती नहीं मन की क्युँ प्यास?

जीवन दो क्षण सुख के मिले,
और प्यास मिली रेगिस्तानों सी,
मृगतृष्णा अनंत अरमानों के मिले,
प्यास मिली कितनी प्रबल सी।

मिटती नहीं मन की क्युँ प्यास?

अतृप्त अन्तर्मन

अतृप्ति कितना अन्तर्मन में,
विह्वल प्राण आकुल तन में,
पीड़ा उठते असंख्य प्रतिक्षण में,
अतृप्त कई अरमान जीवन में।

मधु चाहता पीना ये हर क्षण,
अगणित मधु प्यालों के संग,
चाहे मादकता के कण-कण,
आह! अतृप्त कितना है जीवन।

असंख्य मधु-प्याले पीकर भी,
बुझ पाती नही मन की प्यास,
शायद तृप्ति ही है यह क्षणिक,
आह! अतृप्ति अटल अन्तर्मन में।

Monday, 28 December 2015

क्या बीते वर्ष मिला मुझको

पथ पर ठहर मन ये सोचे,
क्या बीते वर्ष मिला है मुझको।

चिरबंथन का मधुर क्रंदन या
लघु मधुकण के मौन आँसू।

स्वच्छंद नीला विशाल आकाश या
अनंत नभमंडल पर अंकित तारे।

चिन्ता, जलन, पीड़ा सदियों का या,
दो चार बूँद प्यार की मधुमास।

अवसाद मे डूबा व्यथित मन या
निज जन के विछोह की अमिट पीड़ा।

मौन होकर ठहर फिर सोचता मन,
क्या बीते वर्ष मिला है मुझको।

धुँधला साया

आँखों मे इक धुंधला सा साया,
स्मृतिपटल पर अंकित यादों की रेखा,
सागर में उफनती असंख्य लहरों सी,
आती जाती मन में हूक उठाती।

वक्त की गहरी खाई मे दबकर,
साए जो पड़ चुके थे मद्धिम,
यादें जो लगती थी तिलिस्म सी,
इनको फिर किसने छेड़ा है?

यादों के उद्वेग भाव होते प्रबल,
असह्य पीड़ा देते ये हंदय को,
पर यादों पर है किसके पहरे,
वश किसका इस पर चलता है।

स्मृतिपटल को किसने झकझोरा,
बुझते अंगारों को किसने सुलगाया,
थमी पानी में किसने पतवार चलाया,
क्युँकर फिर इन यादों को तूने छेड़ा ?

साथ मेरे तुम क्यूँ नही आए

कोलाहल मची है मन के अन्दर,
प्राणों के आवर्त मे भी लघु कंपन,
अपनी वाणी की कोमलता से,
कोलाहल क्युँ ना तुम हर जाते,
बोलो ! साथ मेरे तूम क्यूँ नही आए।

इक क्षण को तब मिटी थी पीड़ा,
साथ तुम्हारा मिला था क्षण भर,
कोलाहल तब मिटा था मन का,
तुमसंग जीवन जी गया मैं पल भर,
बोलो ! साथ मेरे तुम क्युँ नही आए।

अवसाद मिटाने तुम आ जाते,
जीवन संगीत सुनाने तुम आ जाते,
वीणा तार छेड़ने तुम आ जाते,
जीवन क्लेश मिटानें तुम आ जाते,
बोलो ! साथ मेरे तूम क्युँ नही आए।

सन्निकट अवसान

अवसान सन्निकट जीवन के,
छाए स्वत: हो रहे अब दीर्घ,
वेग-प्रवाह धीमे होते रक्त के,
सांसें स्वतः हो रहे अब प्रदीर्घ।

बीत रहा प्रहर निर्बाध अधीर,
अभिलाशाएँ हृदय की बहाती नीर,
सांझ जीवन की आती अकुलाई,
वश में कर सकै ऐसा कौन प्रवीर।

उत्थान-पतन और विहान-अवसान,
महाश्रृष्टि रचयिता के हैं दो प्रमाण,
जीर्ण होकर ही दे पाता ये नव जीवन,
कर्म अडिग कर, बना अपनी पहचान।