Friday, 29 January 2016

पटकथा

किसने लिखी है पटकथा जिन्दगानी की,
ये कैसी है कथा अन्त जिसका पता नहीं,
दौड़ते हैं सब यहाँ मंजिलों के निशाँ नहीं,
पलकें हैं खुली हुई पर दृष्टि का पता नहीं।

एक दूसरे के ही हम दुश्मन सभी बने हुए,
लड़ रहे खुद से ही निज स्वार्थ में घिरे हुए,
कथा है ये कौन सी हम अंजान इससे हुए,
जिसने रची पटकथा, अन्तर्धान स्वयं हुए।

Thursday, 28 January 2016

पुरुष हूँ रखता हूँ पुरुषार्थ

पुरुष हूँ रखता हूँ पुरुषार्थ,
पुरुषोत्तम हूँ निभाता हूँ अपना धर्म,
भरम वादा का मैं तोड़ सकता नही,
ढूँढ लेना मुझे जीवन के उस मोड़ पर कहीं।

पुरुष हूँ, पुरुषोत्तम हूँ निभाऊंगा अपना धर्म सभी।

मिलना तुम उस मोड़ पे जीवन के वहाँ,
राहें उम्मीदों के सारे छूट जाते हैं जहाँ,
सूझता नही जब कुछ हाथों को,
आँखें की पुतलियाँ भी थक जाती हैं जहाँ।

पुरुष हूँ, पुरुषोत्तम हूँ निभाऊंगा अपना धर्म वहाँ।

इन्तजार करता मिलूँगा तुमको वहीं,
राहे तमाम गुजरती हो चाहे कही,
शिथिल पड़ जाएं चाहें सारी नसें मेरी,
दामन छूटे सासों का या लहु प्रवाह थक जाए मेरी।

पुरुष हूँ, पुरुषोत्तम हूँ निभाता हूँ अपना धर्म सभी।

पुकारता क्षितिज

खुलता हुआ वो क्षितिज,
मन के सन्निकट ही कहीं,
पुकारता है तुझको बाहें पसारे।

तिमिर सा गहराता क्षितिज,
हँसता हैं उन तारों के समीप कहीं,
पुकारता अपने चंचल अधरों से ।

मधुर हुए क्षितिज के स्वर,
मध टपकाते उसके दोनो अधर,
हास-विलास करते काले बालों से।

आ मिल जा क्षितिज पर,
कर ले तू भी अपने स्वर प्रखर,
तम क्लेश मिट जाए सब जीवन के।

मान लो मेरा कहा

तुम मान लो आज मेरा कहा!

गीत कोई प्रीत का,
गुनगनाऊँ तेरे संग आज चल,
तार तेरे हृदय का,
छेड़ जाऊँ आज तू साथ चल।

आ चलें उन मंजिलों पर,
गम के बादल न पहुँचते हों जहाँ,
संग दूर तक चलते रहें,
अन्त रास्तों के न मिलते हों जहाँ।

मान लो तुम मेरा कहा,
संगीत की धुन तू इक नई बना,
लय, सुर, ताल कुछ मैं भरूँ,
नया तराना रोज तू मुझको सुना।

अब मान लो तुम मेरा कहा!

खुशियों के क्षण

छंद बिखरे क्षणों के अब बन गए है गीत मेरे!

बिखर गई हैं आज हर तरफ खुशियाँ यहाँ,
सिमट गए हैं दामन में आज ये दोनो जहाँ,
खोल दिए बंद कलियों ने आज घूँघट यहाँ,
खिल गए हैं अब मस्त फूलों के चेहरे यहाँ।

गुजरकर फासलों से अब मिल गई मंजिल मेरी।

शूल यादों के सभी फूल बनकर खिल गए,
सज गई महफिलें हम और तुम मिल गए,
थाम लो मुझको यारों आज वश में मै नही,
मस्त आँखों से सर्द जाम पी है मैनें अभी।

लम्हों के इन कारवाँ में गुजरेगी अब जिन्दगी मेरी।

भटकता मन

निज मन तू क्युँ रत बहलावे में नित दिन!

मन तू सच क्युँ न बोलता?
जीवन का दर्पण दिखा मुँह क्युँ फेरता?
तू ही तो मेरा इक निज है,
दर्पण तू ही दिखलाता जीवन को,
फिर तू क्युँ छलता रहता है मुझको?

निज मन तू क्युँ भटकता रहता नित दिन!

चंचल सा चितवन तेरा,
एकाग्रचित्त तू कभी रह नही सकता,
समझेगा तू मेरी दुविधा कैसे?
तू मेरा अपना पर तू मुझको ही छलता,
मन तू इतना क्युँ बोलता?

निज मन तू किस भुलावे में रहता नित दिन?

Wednesday, 27 January 2016

इंतजार एकाकीपन का


कौन किसका इंतजार करता इस जग में,
क्षणिक इंतजार भी डसता इस मन को,
पार इंतजार की उस क्षण के,
इक एकाकीपन रहता जीवन में,
फिर क्युँ किसी का इंतजार करूँ इस जग में।

वक्त इंतजार नही करता किसी का जग में,
वक्त अथक आजीवन चलता ही रहता,
इंतजार उसे पार उस क्षण का,
कब एकाकीपन मिलता उससे जीवन में,
फिर क्युँ वो इंतजार करे किसी का इस जग में।

अथक इंतजार जो भी करता इस जग में,
पागल उस मानव सा ना कोई मैं पाता,
घड़ियाँ गिनता वो उस क्षण का,
जो लौट कर वापस ना आता जीवन में,
फिर क्युँ करता वो इंतजार बेजार इस जग में।