Thursday, 28 January 2016

भटकता मन

निज मन तू क्युँ रत बहलावे में नित दिन!

मन तू सच क्युँ न बोलता?
जीवन का दर्पण दिखा मुँह क्युँ फेरता?
तू ही तो मेरा इक निज है,
दर्पण तू ही दिखलाता जीवन को,
फिर तू क्युँ छलता रहता है मुझको?

निज मन तू क्युँ भटकता रहता नित दिन!

चंचल सा चितवन तेरा,
एकाग्रचित्त तू कभी रह नही सकता,
समझेगा तू मेरी दुविधा कैसे?
तू मेरा अपना पर तू मुझको ही छलता,
मन तू इतना क्युँ बोलता?

निज मन तू किस भुलावे में रहता नित दिन?

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