Saturday, 1 April 2017

संवेदनहीन

पतंग प्रीत की उड़ती है कोमल हृदयाकाश में,
संवेदनहीन हृदय क्या भर पाएगा इसे बाहुपाश में,
पाषाण हृदय रह जाएगा बस प्रीत की आश में,
मुश्किल होगा प्रीत की डोर का आकाश मे उड़ पाना,
व्यर्थ सा होगा संवेदनाओं के पतंग उड़ाना!

हो चुके हो जब तुम इक पाषाण सा संवेदनहीन,
निरर्थक ही होगा तुमसे प्रीत की कोरी उम्मीद लगाना,
संवेदनाओं के पतंगों को हमें ही होगा समेटना,
असम्भव ही होगा धागे की एक छोर को पकड़े बिना,
प्रीत की पतंग का ऊँचे आकाश में उड़ पाना!

हाँ, पर कोमल सा हृदय हूँ मैं, कोई पत्थर नहीं,
इन कटी पतंगों संग तब तक सिसकेगा ये मेरा मन,
बस उम्मीद की डोर थामे, मैं तुमसे मिलूंगा वहीं,
जग जाए जब संवेदना, वो छोड़ दूजा तुम थाम लेना,
है मुश्किल तुम बिन प्रीत की पतंग उड़ाना!

Friday, 31 March 2017

Thanks Viewers/Readers

Thanks to everyone for overwhelming response and intensive pageview and encouragement given to me to write few nice poems of your choice. 

Please Keep Inspiring....

Thanks again & Regards to all.

Yours only

कोकिल विधा

कहीं गूंज उठा था कोकिल सा स्वर में,
इक काव्य अनसुना सा कोई,
हठात् रुका था राहों में मैं,
जैसे रुका हो बसंत, कहीं अनमना सा कोई।

कहीं ओझल था वो कोयल नजरों से,
गाता वो काव्य अनोखा सा कोई,
चहुँ ओर तकता फिरता मैं,
जैसे प्यासा हो चातक, कहीं सावन हो खोई।

सरस्वती स्वयं विराजमान उस स्वर में,
स्वरों की रागिनी हो जैसे कोई,
नियंत्रित फिर कैसे रहता मैं,
निरंतर स्वरलहरी जब, पल पल बजती हो कोई।

अष्टदिशाएँ खोई उस कोकिल स्वर में,
इन्द्रधनुषी आभा फैला सा कोई,
खींचता सा जा रहा था मैं,
अमिट छाप जेहन पर, उत्कीर्ण कर गया कोई।

कोई काव्य अनूठी सी रची उस स्वर ने,
अलिखित संरचना थी वो कोई,
पूर्ण कर जाता वो काव्य मैं,
वो विधा वो कोकिलवाणी, मुझको दे जाता कोई।

Wednesday, 29 March 2017

क्युँ गाए है घुंघरू!

छुन-छुन रुन-झुन की धुन फिर क्युँ गाए हैं ये घुंघरू.....

कोई आहट पर भरमाए है ये मन क्युँ,
बिन कारण के इतराए है ये मन क्युँ,
कोई समझाए इस मन को, इतना ये इठलाए है क्युँ,
बिन बांधे पायल अब नाचे है ये पग क्युँ,
छुन-छुन रुन-झुन की धुन क्युँ गाए हैं ये घुंघरू.....

कोई कल्पित दृश्य पटल पर उभरे है क्युँ,
अब बिन ऐनक सँवरे है ये मन क्युँ,
कभी उत्श्रृंखल तो, कभी चुपचुप सा ये रहता है क्युँ,
कभी गुमसुम सा कहता कुछ नहीं है क्युँ,
छुन-छुन रुन-झुन की धुन क्युँ गाए हैं ये घुंघरू.....

कोई संग-संग गाए तो ये मन गाए ना क्युँ,
राग कोई छेड़े तो मन इठलाए ना क्युँ,
रिझाए जब मौसम की धुन, मयूर सा मन नाचे ना क्युँ,
बतलाए कोई आहट पर भरमाए ना ये मन क्युँ,
छुन-छुन रुन-झुन की धुन क्युँ गाए ना ये घुंघरू.....

कोई बुत सा ये मन, फिर बन जाए है क्युँ,
दिल की अनसूनी ये कर जाए है क्युँ,
छेड़ मिलन के गीत, फिर नैनों में ये भर जाए है क्युँ,
तन्हा रातों में आहट से भरमाए है ये मन क्युँ,
छुन-छुन रुन-झुन की धुन फिर क्युँ गाए हैं ये घुंघरू.....

Monday, 27 March 2017

हिस्से की जिंदगी

बहुत ही करीब से गुजर रही थी जिंदगी,
कितना कोलाहल था उस पल में,
मगर बेखबर हर कोलाहल से था वो पथिक,
धुन बस एक ही ! अपने मंजिल तक पहुचने की!

मुड़-मुड़कर उसे देखती रही थी जिन्दगी,
पर उसे साँस लेने तक की फुर्सत नहीं,
अनथक कदम अग्रसर थे बस उस मंजिल की ओर,
पल-पल जिंदगी से दूर होते गए उसके कदम।

निराश हतप्रभ अब हो चली थी जिंदगी,
कचनार हो गई हो जैसे सुगंधहीन,
गुलमोहर की कली ज्युँ सूखकर हुई हो कांतिहीन,
प्रगति के पथ पर जिन्दगी से दूर था वो पथिक।

मंजिलों पर वो अब तलाशता था जिंदगी,
हाथ आई सूखी हुई सी कुछ कली,
रंगहीन गंधहीन अध-खिली सहमी बिखरी डरी सी,
छलक पड़े थे नैनों में दो बूँद नीर की भटकी हुई।

बहुत ही करीब से गुजर चुकी थी उसके हिस्से की जिंदगी।

Saturday, 25 March 2017

आभास

परछाई हूँ मैं, बस आभास मुझे कर पाओगे तुम .....

कर सर्वस्व निछावर,
दिया था मैने स्पर्शालिंगन तुझको,
इक बुझी चिंगारी हूँ अब मैं,
चाहत की गर्मी कभी न ले पाओगे तुम।

अब चाहो भी तो,
आलिंगनबद्ध नही कर पाओगे तुम,
इक खुश्बू हूँ बस अब मैं,
कभी स्पर्श मुझे ना कर पाओगे तुम।

चाहत हूँ अब भी तेरा,
नर्म यादें बन बिखरूँगा मैं तुममें ही,
अमिट ख्याल हूँ बस अब मैं,
कभी मन से ना निकाल पाओगे तुम।

तेरी साँसों में ढलकर,
बस छूकर तुम्हें निकल जाऊँगा मैं,
झौंका पवन का हूँ इक अब मैं,
सदा अपनी आँचल से बंधा पाओगे तुम।

साया हूँ तेरा, बस महसूस मुझे कर पाओगे तुम....

Wednesday, 15 March 2017

अवशेष

अवशेष बचे हो कुछ मुझमें तुम!
विघटित होते अंश की तरह,
कहीं दूर भटक जाता है ये अर्धांशी,
अवशेषों के बीच कभी बज उठती कोई संगीत,
अतीत से आते किसी धुन की तरह...

विखंडित अवशेष लिए अन्तःमन में,
बचा हूँ कुछ अर्धांश सा शेष,
बीते से मेरे कुछ पल, मैं और इक दिवा स्वप्न!
धुंधली सी तेरी झलक के अंश,
और तेरी चुंबकीय यादों के अमिट अवशेष!

संवेदनाओं के अवशेषों के निर्जीव ढेर पर,
कहीं ढूंढता हूँ मैं तेरा शेष,
इक जिजीविषा रह गई है बस शेष,
जिसमें है कुछ व्याकुल से पल,
और तेरे अपूर्ण प्रेम के अमिट अवशेष!