Sunday, 18 February 2018

तो हो अच्छा

वाद-परिवाद, चर्चा-परिचर्चा,
निष्कर्ष इन सबका हो कोई, तो हो अच्छा..

होते रहे परिवाद, घटते रहे विवाद,
मिटते रहे मन के सारे विषाद,
कुछ याद रखने लायक हो जो वाद,
स्वाद सबके जीवन में भरे, तो हो अच्छा...

निरर्थक ही हो जब बातों के मंथन,
निरर्थक हो जज्बातों के गूंथन,
फिर टूट जाते है मन के ये अवगुंठन,
जब अर्थ भरे जज्बातों में, तो हो अच्छा....

चर्चा हो मन के असह्य पीड़ा की,
वेदना में तपते से जीवन की,
विरह में जलते मन के आलिंगन की,
सावन में सूखे की हो चर्चा, तो हो अच्छा....

जो क्रियात्मकता का करे सृजन,
ज्ञान की ओर हो अनुशीलन,
आत्मबोध का कर सके विश्व मंचन,
आत्मज्ञान पर हो परिचर्चा, तो हो अच्छा....

कुशाग्रता का न हो कोई अभाव,
अज्ञानता हो जब निष्प्रभाव,
विवेकशीलता का दूरगामी प्रभाव,
संस्कार के जले हो प्रकाश, तो हो अच्छा....

वाद-परिवाद, चर्चा-परिचर्चा,
निष्कर्ष इन सबका हो कोई, तो हो अच्छा..

Saturday, 17 February 2018

विचार

पी-पीकर अमृत, यहाँ रोज मर रहा मानव,
विष के कुछ घूंट पीकर, क्या मर पाएगा मानव!

विषपान किया जब जीवन का,
तब ही जी पाया है मानव,
जीवन के ज्वाला में जल जल,
रोज ही जी रहा है मानव,
व्यथा के भार सहकर, क्या मर पाएगा मानव?

नित अनन्त राह चलते जाने को,
आराम समझ रहा मानव,
साँसों में धू-धू जलते जाने को,
जीना समझ रहा मानव,
अगम अथाह जीवन, क्या थाह पाएगा मानव?

क्षणिक सुख की दो घड़ियों को,
अमृत समझ रहा मानव,
इन दो दो घड़ियों को गिन गिन,
पल पल मर रहा मानव,
विष को अमृत प्याला, समझ पी रहा मानव?

इस ब्रम्हांड के लघु अंश है हम,
कब ब्रम्ह हुआ है मानव?
श्रष्टा की लघु कठपुतली हम,
ब्रम्ह में मिला है मानव!
ब्रम्हलीन होकर, सर्वथा अमर हुआ है मानव!

जिंदा सांसों के बोझ, लेकर चला रहा वो,
घूंट-घूंट गरल के पीकर, नीलकंठ बना है मानव!

खलल डालते ख्याल

भीगे से ये सपने .....,
खलल डालते ख्याल,
डगमगाता सुकून,
और तुम .....
सवालों से बेहतर जवाबों मे,
ख्यालों से बेहतर, मेरे जज्ब से इरादों मे.....

कैसा ये सफर,
कि तू होकर भी है कहीं बेखबर !
तेरा स्मृति पटल में आना,
फिर धुँध मे तेरा कहीं खो जाना !
काश !
खामोशी की छाँव मे तू कुछ पल साथ रहती !

ये एहसास,
ये भीगे से जज्बात,
हर पल इक तेरा इन्तजार,
सुकून में बस,
खलल डालते इक ख्याल,
और कोई कशमकश,
जब थक जाते हैं,
तो हम मन ही मन यूं ही मुस्करा लेते हैं....

ये कैसा है सफर,
कि तू होकर भी है कहीं बेखबर !
बरबस, बेहिसाब, हर बार..
मैं तकता रहता हूं वो ही राह बार-बार...
मन की चाह से,
खिल जाती है यूं ही फिर कोई कुंद,
कि जैसे सूखते से पल्लव पर पड़ी हो बूँद !

भीगे से ये सपने .....
खलल डालते तुम्हारे ख्याल,
एहसास की ये राहें,
कहीं सूनी सी है दिखती,
कहीं दिल में,
बस, एक कसक सी है रहती !
काश !
खामोशी की छाँव मे तू कुछ पल साथ रहती ! 

Thursday, 15 February 2018

वक्त के परे

गर हो सके तो मिलो वक्त के परे स्वच्छंद.....

इक राह अनन्त, वक्त के ये द्वन्द,
रोके रुके ना, वक्त के ये छंद,
वक्त के राह की, दिशाएँ दिग्दिगंत,
लिए जा रहा वक्त, मुझको ये किस राह अनन्त....

गर हो सके तो मिलो वक्त के परे स्वच्छंद.....

वक्त की ताल पर, वो झूमता बसंत,
वक्त के काल में डूबता बसंत,
समझ के परे है, वक्त के ये सारे द्वन्द,
बिछी वक्त की बिसात, क्रम से खेलता बसंत....

गर हो सके तो मिलो वक्त के परे स्वच्छंद.....

वक्त के परे, संभावनाएँ हैं अनन्त,
दिशाहीन से वक्त के ये द्वन्द,
छलती रहेंगी हमें, ये दिशाएँ दिग्दिगंत,
आओ चुने हम यहाँ, इन राहों में पड़े मकरंद....

गर हो सके तो मिलो वक्त के परे स्वच्छंद.....

Friday, 9 February 2018

अन्तर्धान हुई माँ

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!

नयनाभिराम सुलोचना थी वो,
शब्दों में मुखरित विवेचना थी वो!
नयनों से वो अन्तर्धान हुई!
पंचतत्व में विलीन होकर, खामोश हुई माँ!

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!

बाबू जी की पथगामी थी वो!
नन्द किशोर की अनुगामी थी वो!
उस पथ ही अन्तर्धान हुई!
संगिनी जीवन की होकर, खामोश हुई माँ!

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!

अबतक रुण में रमती थी वो!
अबतक सरिता बन बहती थी वो!
अबतक से अन्तर्धान हुई!
पुरु को यादों के घन देकर, खामोश हुई माँ!

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!

इक युग का विहान थी वो,
धू-धू जलती लौ थी ज्ञान की वो,
धू-धू लौ में अन्तर्धान हुई!
स्वर लहरी देकर जीवन की, खामोश हुई माँ!

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!

करुणामय पुकार थी वो,
करुणा की कोई अवतार थी वो,
सन्नाटों में अन्तर्धान हुई!
ममता की गहरी छाँव देकर, खामोश हुई माँ!

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!

अकल्प निर्विकार थी वो,
नवयुग की ज्वलंत विचार थी वो,
ज्वाला में अन्तर्धान हुई!
प्रगति पथ पर आरूढ़ कर, खामोश हुई माँ!

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!

अब बेटा ना बुलाएगी वो,
पर याद मुझे हर क्षण आएगी वो!
मुझमें ही अन्तर्धान हुई!
अन्तःमन में विराजित हो, खामोश हुई माँ!

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!

इक युग का अवसान हुआ,
पुत्र का कंपित मन श्मशान हुआ,
चुप ही चुप अन्तर्धान हुई!
प्रज्वलित कर ज्ञान की लौ, खामोश हुई माँ!

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!
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माँ स्व. सुलोचना वर्मा (03.02.1939 - 08.02.2018)
अबतक रुण: अरुण, बरुण, तरुण, करुण (4 निज पुत्र)
सरिता: पुत्री
बाबूजी स्व.नन्दकिशोर प्रसाद (1934-2016)
पुरु: पुरुषोत्तम (विशेष पुत्र)-
मुझमें कविता बन जीवित है हमारी माँ

Wednesday, 7 February 2018

कुछ ऐसा ही है जीवन

दामन में कुछ भीगे से गुलाब,
कांटों में उलझा बेपरवाह सा मन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

यूँ अनाहूत ही आ जाना,
बिन कुछ कहे यूँ ही चल देना,
भीगी पलकों से बस यूँ रो लेना,
यूँ एकटक क्षितिज देखना,
मनमाना बेगाना सा ये जीवन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

बूंदों की भीगी सी लड़ियाँ,
भीगी गुलाब की ये पंखुड़ियाँ,
क्षण-क्षण यूँ खिलती ये कलियाँ,
रंगरूप बदलती ये दुनियाँ,
जाना पहचाना सा ये जीवन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

यूँ खिल कर हँसते गुलाब,
यूँ हिल कर भीगते बेहिसाब,
फिर टूट बिखरते इनके ख्वाब,
यूँ ही माटी में मिलना,
पाकर खो जाने सा ये जीवन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

दामन में कुछ भीगे से गुलाब,
कांटों में उलझा बेपरवाह सा मन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

Sunday, 4 February 2018

पुराना किस्सा

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

हया की लाली आँखों पर छाना,
इक पल में तेरा घबराना,
शरमाकर चुपके से आँचल में छुप जाना,
हाथों में वो कंगण खनकाना.....

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

बात-बात पर तुम्हारा रूठ जाना,
हर क्षण मेरा तुम्हें मनाना,
अगले ही पल फिर हँसना खिलखिलाना,
सिमटकर फिर इठला जाना.....

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

कसमें-वादों में नित बंधते जाना,
पल में नैनों का छलकाना,
जुदाई का इक क्षण भी असह्य हो जाना,
विरहा में ये दामन भीग जाना.....

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

अनदेखे धागों से यूँ जुड़ते जाना,
यूँ ही भावप्रवन कर जाना,
जन्मों के किस्से साँसों पर लिख जाना,
नींव इरादों की फिर रख जाना.......

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!