Friday 9 February 2018

अन्तर्धान हुई माँ

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!

नयनाभिराम सुलोचना थी वो,
शब्दों में मुखरित विवेचना थी वो!
नयनों से वो अन्तर्धान हुई!
पंचतत्व में विलीन होकर, खामोश हुई माँ!

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!

बाबू जी की पथगामी थी वो!
नन्द किशोर की अनुगामी थी वो!
उस पथ ही अन्तर्धान हुई!
संगिनी जीवन की होकर, खामोश हुई माँ!

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!

अबतक रुण में रमती थी वो!
अबतक सरिता बन बहती थी वो!
अबतक से अन्तर्धान हुई!
पुरु को यादों के घन देकर, खामोश हुई माँ!

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!

इक युग का विहान थी वो,
धू-धू जलती लौ थी ज्ञान की वो,
धू-धू लौ में अन्तर्धान हुई!
स्वर लहरी देकर जीवन की, खामोश हुई माँ!

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!

करुणामय पुकार थी वो,
करुणा की कोई अवतार थी वो,
सन्नाटों में अन्तर्धान हुई!
ममता की गहरी छाँव देकर, खामोश हुई माँ!

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!

अकल्प निर्विकार थी वो,
नवयुग की ज्वलंत विचार थी वो,
ज्वाला में अन्तर्धान हुई!
प्रगति पथ पर आरूढ़ कर, खामोश हुई माँ!

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!

अब बेटा ना बुलाएगी वो,
पर याद मुझे हर क्षण आएगी वो!
मुझमें ही अन्तर्धान हुई!
अन्तःमन में विराजित हो, खामोश हुई माँ!

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!

इक युग का अवसान हुआ,
पुत्र का कंपित मन श्मशान हुआ,
चुप ही चुप अन्तर्धान हुई!
प्रज्वलित कर ज्ञान की लौ, खामोश हुई माँ!

प्रतिक्षण देती आशीष विदा हुई मेरी माँ!
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माँ स्व. सुलोचना वर्मा (03.02.1939 - 08.02.2018)
अबतक रुण: अरुण, बरुण, तरुण, करुण (4 निज पुत्र)
सरिता: पुत्री
बाबूजी स्व.नन्दकिशोर प्रसाद (1934-2016)
पुरु: पुरुषोत्तम (विशेष पुत्र)-
मुझमें कविता बन जीवित है हमारी माँ

Wednesday 7 February 2018

कुछ ऐसा ही है जीवन

दामन में कुछ भीगे से गुलाब,
कांटों में उलझा बेपरवाह सा मन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

यूँ अनाहूत ही आ जाना,
बिन कुछ कहे यूँ ही चल देना,
भीगी पलकों से बस यूँ रो लेना,
यूँ एकटक क्षितिज देखना,
मनमाना बेगाना सा ये जीवन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

बूंदों की भीगी सी लड़ियाँ,
भीगी गुलाब की ये पंखुड़ियाँ,
क्षण-क्षण यूँ खिलती ये कलियाँ,
रंगरूप बदलती ये दुनियाँ,
जाना पहचाना सा ये जीवन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

यूँ खिल कर हँसते गुलाब,
यूँ हिल कर भीगते बेहिसाब,
फिर टूट बिखरते इनके ख्वाब,
यूँ ही माटी में मिलना,
पाकर खो जाने सा ये जीवन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

दामन में कुछ भीगे से गुलाब,
कांटों में उलझा बेपरवाह सा मन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

Sunday 4 February 2018

पुराना किस्सा

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

हया की लाली आँखों पर छाना,
इक पल में तेरा घबराना,
शरमाकर चुपके से आँचल में छुप जाना,
हाथों में वो कंगण खनकाना.....

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

बात-बात पर तुम्हारा रूठ जाना,
हर क्षण मेरा तुम्हें मनाना,
अगले ही पल फिर हँसना खिलखिलाना,
सिमटकर फिर इठला जाना.....

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

कसमें-वादों में नित बंधते जाना,
पल में नैनों का छलकाना,
जुदाई का इक क्षण भी असह्य हो जाना,
विरहा में ये दामन भीग जाना.....

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

अनदेखे धागों से यूँ जुड़ते जाना,
यूँ ही भावप्रवन कर जाना,
जन्मों के किस्से साँसों पर लिख जाना,
नींव इरादों की फिर रख जाना.......

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

खुदातर्स

नजरों में मेरी खुदातर्स हैं बस वो....

प्रकृति प्रेमी हो श्रष्टा अनुगामी हो,
परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, अहंकार से दूरी रखते है जो,
उद्भवन करते हों जो सद्गुण का,
असद्गुणों का हृदय से उच्छादन करते हैं जो...
अनुत्सेक हो मद रहित ज्ञानी है जो.....

नजरों में मेरी खुदातर्स हैं बस वो....

पर के सच्चे या झूठे दोष प्रकट कर,
अपने विद्यमान या अविद्यमान गुणों को जाहिर कर,
असद्गुणों को सदगुणों पर प्रभावी कर,
ईश्वरीय शक्ति से परे निडर बेफिक्र होते हैं जो.....
कदपि खुदातर्स नही बन सकते वो....

नजरों में मेरी खुदातर्स हैं बस वो....

सदा ही बचते हों खुदनुमाई से जो,
रूप, गुण, श्रेष्ठता, अहंकार का प्रदर्शन ना करते हो
श्रेष्ठजन हो, नम्रवृत्ति के हो अनुपालक,
साधुसमाधि से तपश्चरण का संघारण करते हों,
निष्कलेष हो निर्विकार ईश्वरगामी हो....

नजरों में मेरी खुदातर्स हैं बस वो....
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ख़ुदातर्स
1. ख़ुदा या ईश्वर से डरने वाला
2. धर्मभीरू 3. कृपालुदयालु

Friday 2 February 2018

जो मन को भाता है

वो, जो मन को भाता है,
कहीं मुझको मीलों दूर लिए जाता है.......

हौले से छू जाता है,
नीरव पल में सहलाता है
काल समय सीमा के परे,
स्पंदन बन जाता है....

वो, जो मन को भाता है,.......

कभी मन ये दूर निकल जाता है,
तन्हा फिर भी रह जाता है,
मरुभूमि से सूने आंगण में काँटों सा,
जब नागफनी डस जाता है,
नीरवता के उस बीहड़ जंगल में,
व्याकुल सा ये मन जब घबरा जाता है,
फिर करता है अपने मन की,

वो, जो मन को भाता है,.......

जब कोई भी लम्हा तड़पाता है,
सुख चैन भटक सा जाता है,
छूट जाती है जब मंजिल की आशा,
और हताश पल डस जाता है,
जीवन के उस बिखरे से प्रांगण में,
विह्वल मन जब खुद को तन्हा पाता है,
करता है फिर अपने मन की,

वो, जो मन को भाता है,.......
नीरवता से कहीं दूर, मीलों दूर, .......

हौले से छू जाता है,
नीरव पल में सहलाता है
काल समय सीमा के परे,
स्पंदन बन जाता है....

वो, जो मन को भाता है,.......
कहीं मुझको मीलों दूर लिए जाता है.......

Monday 29 January 2018

सृजन

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

एकत्र हुई है सब कलियाँ,
चटक रंगों से करती रंगरलियाँ,
डाल-डाल खिल आई नव-कोपल,
खिलते फूलों के चेहरे हैं चंचल,
सब पात-पात झूमे हैं,
कलियों के चेहरे भँवरों ने चूमे हैं,
लताओं के लट यूँ बिखरे हैं,
ज्यूँ नार-नवेली ने लट खोले हैं,
रंगीन धरा, अंग-अंग में श्रृंगार भरा...

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

झूम-झूम हो रही मतवाली,
गुलमोहर, अमलतास की डाली,
खुश्बू भर आई गुलाब, चम्पा और बेली,
गीत बसंत के कूक रही वो कोयल,
पपीहा अपनी धुन में पागल,
रह रह गाती बस ..पी कहाँ, पी कहाँ!
मुग्ध संसृति है इनकी तान से,
सृजन का है सुन्दर नव-विहान ये,
मुखरित धरा, कण-कण में लाड़ भरा...

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

हैं दलदल में खिले कमल,
जल में बिखरे हैं शतधा शतदल,
कलरव क्रीड़ा करते झूम रहे है जलचर,
जैसे मना रहे उत्सव सब मिलकर,
झिलमिल करती वो किरणें,
ठहरी झील की चंचल सतह पर,
थिरक रही बूँद-बूँद बस इठलाकर,
मुग्ध धरा, अंग-प्रत्यंग में उन्माद भरा......

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

Saturday 27 January 2018

गुनगुनी धूप

गुनगुनी धूप, खींच लाई दामन में मुझको...

कई दिनों के सर्द मौसम में,
मखमली एहसास दिला गई थी धूप,
ठिठुरते कांपते बदन को,
तपिश ने दी थी राहत थोड़ी सी...

हरियाली निखरी पात पात में,
बसंत की थपकी ले, खिली थी फूल,
रूप मिला था कलियों को,
रुख बदली थी हवाओं ने अपनी....

रंग कई भर आए थे बागों में,
कितने रांझे, बैठे थे राहों को भूल,
स्वर मिले थे कोयल को,
बदले थे आस्वर फिजाओं के भी....

निरन्तर कहर ढ़ाते मौसम में,
सृजन का आभास दे गई थी धूप,
संकुचित सी वातावरण को,
तपिश ने दी थी राहत थोड़ी सी...

शब्द शब्द हुए मुखर नेह में,
अक्षर अक्षर दे रही सुगंध देह की 
फ़ैली है सुरभि अन्तर्मन की,
सजल नयन है इक पाती प्रेम की....

मौसम की ये गुनगुनी धूप, भा गई मुझको...

इक दुर्घटना

विघटन के उस पल में आहत कितना था मन...

दुर्घटना! आह वो विवश क्षण!
कराहता तड़पता विवशता का क्षण,
तम में डूबता, प्रिय का तन!
सनकर लहू में, वो पिघलता सा बदन......

विघटन के उस पल में आहत कितना था मन...

क्षण भर में टूटता वो अवगुंठन,
अकस्मात हाथों से छूटता वो दामन,
विघटित सासें, बढ़ती वो घुटन,
विकर्षित होता, जीवन का वो आकर्षण....

विघटन के उस पल में आहत कितना था मन...

निढाल हुआ, जैसे वह जीवन,
लथपथ रक्तरंजित, दुखदाई वो क्षण,
डूबते नैनों में, करुणा के घन,
इक पल में छूटता, साँसों से ये जीवन....

विघटन के उस पल में आहत कितना था मन...

कैसी वो दुर्घटना, वो कैसा क्षण?
अन्तिम क्षण में, बढता वो आकर्षण,
पल पल टूटती, साँसों का घन,
आँखों में टूटकर, उमड़ता सा वो सावन....

अब याद न मुझको आना, ओ विघटन के क्षण....

(कविता "जीवन कलश" पर यह मेरी 800वीं रचना है, शायद 22 अक्टूबर 2017 की उस भीषण कार दुर्घटना के बाद, यह संभव न हो पाता । ईश्वर की असीम कृपा सब पर बनी रहे।)