Sunday 20 December 2015

मैं रहूंगा जीवित!

मै पुरूषोत्तम कुमार सिन्हा,
अकाट्य सत्य है कि एक दिन मिट जाऊंगा,
पृथ्वी पर जन्मे,असंख्य लोगों की तरह, 
समाहित कर दिया जाऊंगा दावानल में,
प्रवाहित कर दी जाएंगी मेरी अस्थियां भी,
गंगाजल फिर या किसी नदी तालाब मे,
मिट जाएंगी मेरी स्मृतियाँ भी।

मेरे नाम के शब्द भी हो जाएंगे,
एक दूसरे से अलग-अलग.
पहुँच जाएंगे शब्दकोष में अपनी-अपनी जगह,
जल्दबाजी में समेट लेंगे वेअपने अर्थ भी,
लेने को एक नई पहचान, एक नव-शरीर के साथ।

पुरूष कहीं होगा, उत्तम कहीं, कहीं होगा कुमार,
सिंहा होगा कहीं, करता हुआ पुनर्विचार,
एक दिन असंख्य लोगों की तरह, 
मिट जाऊँगा मैं भी, मिट जाएगा मेरा नाम भी।

पर निज पर है मुझे विश्वास कि रहूंगा मैं,
फिर भी जीवित, चिर-मानस में तुम्हारे,
राख में दबे अंगारे की तरह,
कहीं न कहीं अदृश्य, अनाम, अपरिचित,
रहूंगा जीवित फिर भी मै -फिर भी मैं।
भुला न पाओगे तुम मुझे जीवन पर्यन्त।

मन रुपी वृक्ष

निस्तब्ध विशाल आकाश के मध्य,
मन रुपी वृक्ष !
मानो चाहे मौन तोड़ कुछ कहना,

पर निष्ठुर वक्त की दायरे संकीर्ण इतने कि,
कौन सुने इनकी मन की बातें?
कौन करे इंतजार?

अब केवल मौन है,
निस्तब्धता है मन के भीतर,
जैसे निस्तब्ध रात की सियाह चादर पर,
टंकी सितारों की लड़ियाँ बिखर गई हैं।

खनकती हंसी खो गई है हवाओं के साथ,
सिर्फ इक नाम होठों पे ठहरा है युगों से,
ख़ामोशी की दीवार तोड़ना चाहते हैं कुछ शब्द,
लेकिन वक्त के हाथों मजबूर हैं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

क्यूंकि वक्त ने छोड़ा है केवल ''मौन'',,,,,,,,,,
जैसे किसी बियावान निर्जन देवालय में,
पसरा हो ईश्वर का नाम...!
पूजनेवाला कोई नहीं,
बचे हो सिर्फ एहसास..............!

मेरी माँ का आशीष

मेरी मां द्वारा उच्चारित तत्क्षण् आशीष शब्द...

लो मेरा आशीष
प्रतिक्षण प्रगति पथ पर बढ़ चलो तुम
तुम्ही आशा, तुम्ही स्वपनों की बनो साकार प्रतिमा,
दे रही आशीष तुझको, भावना की भावभीनी भेंट ले लो,

चाहता है मन तुझे आरूढ़ देखूं, प्रगति के उत्तुंग शिखरों पर,
ग्यान का आलोक ले विद्या विनय व पात्रता से 
तुम लिखो इतिहास नूतन,गर्व जिसपर कर सकें हम, 

वाटिका के सुमन सम विकसित रहो तुम,
सुरभि से जन जन के मन को जीत लो तुम,
स्नेह सेवा देशहित तुम कर सको सबकुछ समर्पण,
मार्ग के काटों को फूलों मे बदल लो,
भावना की भावभीनी भेंट ले लो,

शब्द को शक्ति नहीं कि भावना को मुखर कर दे, 
समझ पाओ तुम हमे (मां-गुरु)
ईश्वर तुम्हारी बुद्धि को भी प्रखर कर दे,
हम वो संतराश है....जो पत्थरों में फूकते हैं प्राण, 
कृति मेरी तुम बनो कल्याणकारी,
ले सको तो स्नेह का उपहार ले लो,
भावना की भावभीनी भेंट ले लो।

-- रचयिता श्रीमति सुलोचना वर्मा (मेरी मां)

Its blessings that my mother said these lines to me, which i could capture in words, at Saharsa (Bihar)

एक कतरा आँसू

एक कतरा आँसू
जो छलक गए नैनों से,
जो देखी दुनिया की बेरुखी,
सिमट गए फिर उन्ही नैंनों मे।

आसू के जज्बात यहां समझे कौन,
अपनी-अपनी सबकी दुनियां,
सभी है खुद में गुम और मौन,
ज्जबातो की यहां सुनता कौन।

बंदिशे हैं सारी जज्बातों पर,
कोमलताएं कही खो चुकी हैं
बेरुखी के सुर्ख जर्रों में,
आँसूं भी अब सोचते बहूं या सूख ही जाऊं...!

वो मधुर आवाज

वो मधुर आवाज जीवन का आवर्त लिए
कानों मे गूंजती सदा प्रिय अहसास लिए,

आवाज.... जिसमे है माधूर्य,
कोमल सा रेशमी दिलकश तान,
जैसे कोयल ने छेड़ी हो सदा,
कूक से उसकी सिहर उठा हो विराना,
पत्तियों को छेड़ा हो हवाओं ने,
उसकी सरसराहट जैसे रही है गूंज,
भँवरे जैसे सुना गए हो गीत नया,
लहरें जैसे बेकल हों सुनाने को कोई बात ।

बारबार वही आवाज जाती है क्यूँ कर
मन को बेकल और उद्विग्न,
हृदय के झरमुट मे गूंजती वो शहनाई,
क्युँ सुनने को होता मैं बेजार
जबकि मुझे पता है,
वो आवाज तो है कही मुझसे दूर,
नहीं है उसपे वश मेरा,
यकी की हदों से से कही दूर
जहां नही पहुच पाते मेरे हाथ,
कल्पना ने तोड़ दिए है अपने दम,

वक्त भी है कितना बेरहम,
भाग्य भी है कितना निष्ठुर,
ईश्वर का निर्णय भी है कितना कठोर
क्युं नही पूरी कर सकता मेरी लघु याचना,
बस वो मधुरआवज ही तो मांगी है हमने,
प्रिय अहसास की ही तो है प्यास,
जीवन का आवर्त ही तो मांगा है मैनें।

जीवन के इस पार या
जीवन के उस पार,
मैं सुन पाऊंगा वो मधुर आवाज,
मेरी क्षुधा न होगी कम, प्यास रहेगी सदा ।

अंतहीन इंतजार..!!!!!!!!

बस इंतजार........और इंतजार......!

सदियों इंतजार ही तो करते रहे हम तुम्हारा,
विहँसते फूलों के चेहरे कब मुरझाए,
धमनियों के रक्त कब सूख गए,
बस, पता ही नहीं चला.............

अनंत इंतजार की घड़ियों को भी हम,
गिन न सके,
चुन न सके राहों से
वो चंद खुशियां,
रहे सिर्फ अतहीन इंतजार
तुम्हे ढेर सारा प्यार,
और कुछ युगों के इंतजार
हां, बस ...........  कुछ युगों के इंतजार.....।

युग जो पल में बीत जाएंगे,
यादों में तेरी हम ही बस जाएंगे,
भूला न सकोगे तुम मुझको भी,
मृत्यु जब होगी सामने
आएंगे बस तुम्हें याद हम ही......

खत्म होगी तब ये इंतजार,
आसमानों मे बादलों के पीछे कहीं,
जब होगी अपनी इक अंतहीन मुलाकात,
साधना मेरी होगी तब सार्थक,
मेरी पूजा होगी तब सफल,
युगों युगों के इंतजार का इक दिन, 
जब मिल जाएगा प्रतिफल.......

Saturday 19 December 2015

वादों का क्या ?

कहते है, वादों का क्या?
वादे अक्सर टूट जाया करते है पर कोशिशें कामयाब होती है।

लगाव हो हमें जिनसे, उनके टूटने पर तो
पीड़ा भी असीम होती है, कराह भी अथाह,
वादा तो है, प्रष्फुटित विवेक की अन्तरिम प्रवाह,
मानवीय संवेदनाओं की भावपूर्ण चेतना का प्रष्फुटन,
ये जगा जाते है भावनात्मक उम्मीद,
जहां जिन्दगियों के परिणाम होते है प्रभावित,

हर वो शै जो टूटने वाली है,
स्थायित्व का है अभाव उनमें,
जैसे ,,,नींद टूट जाती है, सपने टूट जाया करते हैं,
दिल टूट जाया करते है, शीशा टूट जाता हैं,
और तो और रिकार्ड टूट जाते हैं,
स्थाई नही है ये जरा भी, न है इनका मलाल इन्हें।

फिर वादा निभाने की हमारी निष्ठा
कहां और क्युं हो जाती है विलीन,
मानवीय भावनाओं के उपर भी क्या कुछ और हैं
जो कर जाती हैं हमें विवश वादे तोड़ने को
जिन्दगियों से खिलवाड़ करने को.......

क्यूँ न हम वादा निभाने की कोशिश करें,
दिलों को टूटने से रोके जिन्दगियों को निखार दें
आत्मा पर और बोझ ना पड़े
सुकूँ और करार मिले,,,,,,