Saturday 16 January 2016

विपरीत रेखाएँ

आज फिर गहराई से देखा हमनें हाथो को,
मध्य अवस्थित दो समानांतर रेखाओं को,
मेरा विवेक मजबूर हो गया पुनःविचार को,
मस्तिष्क व हृदय रेखा जाती विपरीत क्युँ?

शायद मष्तिष्क सोचता है हृदय के विपरीत,
मष्तिष्क का निर्णय विवेचनाओं पर आश्रित,
हृदय का निर्णय होता संवेदनाओं पर केन्द्रित,
दो विपरीत विचार-धाराएँ एक जगह स्थित!

दो विपरीत धाराएँ मिलके चलाती जीवन एक 
सामंजस्य द्वारा जीवन के निर्णय लेता अनेक,
तीसरी रेखा जीवन की चल पाती इनके विवेक,
रेखाओं का सम्मेलन बस करता मालिक एक!

सपनों का भ्रमजाल

सपनों का फैला भ्रम जाल,
देख मानव हो रहा निहाल,
अकल्पित भयंकर यह मकर जाल।

भ्रमजाल मे जकड़ता हर पल,
यथार्थ से दूर ले जाता पल पल,
विस्मित सपनों का प्रलय यह जाल।

सपना तो बस एक छलावा,
भांति भांति के मोहक छद्म दिखाता,
खुली आँखों मे मोह सा छलिया जाल।

सपनों का है अपना कर्म,
जन की आँखो मे बैठ निभाता धर्म,
तू भी कर्म कर अंत काल न रहे मलाल।

सरसों के फूल

सरसों के फूल
 लुभा गए मन को,
दूर-दूर तक,
धरा पर,
प्रीत बन,
पीली चादर फैला गए,
हरितिमा पर छा गए,
 लहलहा गए,
पीत रंग
मन को मेरे भा गए।

श्रृंगार
लुभावन
वसुधा को दे गए,
आच्छादित हुए
धरा के
अंग-अंग,
गोद भराई कर गए,
 मधु-रस की
मधुर धार,
भौरों को दे गए,
मुक्त सादगी
सरसों की
मन को हर गए।

कुछ पल
मैं भी संग बिताऊँ,
कोमलता
तनिक
स्पर्श मैं भी कर जाऊँ,
दामन में,
भर लूँ,
निमित्त हुए
चित मेरे विस्मित,
कर गए,
सरसों के फूल,
मेरे मन में बस गए।

कौन सी भाषा

मैं न जानूँ व्यथित मन की भाषा,
समझ सकूँ न नैनों की मूक भाषा,
व्यथा भावना दृष्टि की समझ से परे,
अभिलाषा की भाषा अब कौन पढ़े?

किस भाषा मे वेदना लिख गए तुम?
मन की पीड़ा व्यथा क्या कह गए तुम?
अंकित मानस-हृदय पर ये आड़े-टेढ़े,
वेदना पीड़ा की भाषा अब कौन पढ़े?

हृदय भावविहीन पाषाण हो चुका!
मन के भीतर का मानव सो चुका!
भावनाओं का साहित्य जटिल हो चुका!
भाव-संवेदना की भाषा अब कौन पढ़े?

Friday 15 January 2016

कौन रहा पुकार?

आह! है कौन वो जो छेड़़ जाती मन के तार?

कानों मे गूंजती एक पुकार,
रह रहकर सुनाई देती वही पुकार,
सम्बोधन नहीं होता किसी का उसमें,
फिर भी जाने क्यों होता एहसास
कोई पुकार रहा मुझे बार-बार!

आह! यह किसकी वेदना कर रही चित्कार?

हल्की सी भीनी सुगन्ध चली कहाँ से,
बढ़ती जाती सुगंध हवाओं के साथ,
पहचानी सी खुशबु पर आमंत्रण नहीं उसमें,
फिर भी जाने क्यों होता एहसास,
कोई बुला रहा मुझको उधर से बार-बार!

आह! यह किसकी खुशबु मुृझको रही पुकार?

मशरूफियत

आपकी मशरूफ़ियत देखकर,
बैठ इन्तजार में कुछ लिखने लगा,
मशरूफियत ताउम्र बढ़ती ही गई आपकी,
हद-ए-इन्तजार मैं करता रह गया,
मेरी कलम चलती ही रह गई।

इंतहा मशरूफियत की हुई,
उम्र सारी इंतजार मे ही कट गई,
हमने पूरी की पूरी किताब लिख डाली,
छायावादी कवि और लेखक बन गए हम,
शोहरत कदम चूमती चली गई।

हिरण सा मन

हिरन सा चंचल मन कैद में विवश,
कुटिल शिकारी के जाल फसा मोहवश,
कुलाँचे भर लेने को उत्तेजित टांगें,
चाहे तोड़ देना मोहबंधन के जाल बस।

फेके आखेटक ने मोह के कई वाण,
चंचल मन भूल वश ले फसता जान,
मन में उठती पीड़ा पश्चाताप के तब,
जाल मोहमाया का क्युँ आया न समझ।

छटपटाते प्राण उसके हो आकुल,
मोहपाश क्युँ बंधा सोचे हो व्याकुल,
स्वतंत्र विचरण को आत्मा पुकारती,
धिक्कारती खुद को हिरण ग्लानि वश।