Tuesday 30 August 2016

माधूर्य

इन फासलों में पनपता है माधूर्य का अनुराग....

बोझिल सा हो जब ये मन,
थककर जब चूर हो जाता है ये बदन,
बहती हुई रक्त शिराओं में,
छोड़ जाती है कितने ही अवसाद के कण,
तब आती है फासलों से चलकर यादें,
मन को देती हैं माधूर्य के कितने ही एहसास,
हाँ, तब उस पल तुम होती हो मेरे कितने ही पास....

इन फासलों में पनपता है माधूर्य का अनुराग.....

अनियंत्रित जब होती है धड़कन,
उलझती जाती है जब हृदय की कम्पन,
बेवश करती है कितनी ही बातें,
राहों में हर तरफ बिखरे से दिखते है काँटे,
तब आती है फासलों से चलकर यादें,
मखमली वो छुअन देती है माधूर्य के एहसास,
हाँ, तब उस पल तुम होती हो मेरे कितने ही पास....

इन फासलों में पनपता है माधूर्य का अनुराग.....

गोधुलि

गोधुलि, मिटा रहे ये फासले रात-दिन की दरमियाँ...,

गोधुलि, रहस्यमई है ये वेला,
मुखर होती ये चुप सी रात,
और दिवस के अवसान की ये वेला,
धुमिल सी होती ये जिन्दगी,
डूबते सी पलों में ख्वाहिशों की ये वेला,
लिए आगोश में उजालों को,
रात की आँचल ने अब दामन है खोला,
फासले अब क्युँ रहें रात और दिन की दरमियाँ...,

गोधुलि, मिलन की है ये वेला,
घौसलों में पंछियों के लौटने की ये वेला,
लाजवन्ती की पत्तियों के सिमटने की ये वेला,
बीज आश के, निराश पलों मे बोने की वेला,
सुरमई सांझ संग है ये झूमने की वेला,
कुछ सुख भरे पलों को जीने की ये वेला,
बातें दबी सी फिर से कहने की ये वेला,
फासले अब क्युँ रहें रात और दिन की दरमियाँ...,

गोधुलि, मिटते फासलों की ये वेला,
रात की रानी लगी फिर विहसने,
खुश्बुओं से दूरियों को बींधने की ये वेला,
कलकल चमकती ये नदिया की धारा,
मखमली सी चाँदनी में डूबने की ये वेला,
खोए हैं अब सपनों में साथ हम,
वयस्त सी जिन्दगी में फुर्सत की है ये वेला,
फासले अब क्युँ रहें रात और दिन की दरमियाँ...,

गोधुलि, मिटा रहे ये फासले रात-दिन की दरमियाँ...,

Monday 29 August 2016

दूरियों के एहसास

हाँ, तब महसूस करता है ये मन दूरियों के एहसास....

गुम सी होती जाती है .........
जब वियावान में कहीं मेरी आवाज,
जब गूँज कहकहों की..........
ना बन पाते है मेरे ये अल्फाज,
प्रतिध्वनि मन की जब........
मन में ही गूँजते हैं बन के साज,
उस पल महसूस करता है मन दूरियों के एहसास....

जब चांद सिमट जाता है......
टूटे से बादलों की बिखरी सी बाहों में,
रौशनी छन-छनकर आती है जब.....
उमरते बादलों सी लहराती सी सायों से,
चाँदनी टकराती है जब....,
ओस की बूँदों में नहाई नर्म पत्तों से,
उस पल महसूस करता है मन दूरियों के एहसास....

तुम हो यहीं पर कही....
मन को होता है हर पल ये एहसास,
पायल जब खनकती है कहीं....
दिला जाती है बरबस वो तेरी ही याद,
झुमके की लड़ियाँ हो मेले में सजी....
ख्यालों में तुम आ जाती हो अनायास,
उस पल महसूस करता है मन दूरियों के एहसास....

हाँ, तब महसूस करता है ये मन दूरियों के एहसास....

Saturday 27 August 2016

दर्पण

वो मेरा दर्पण था मुझको प्यारा,
दिखलाता था मुझको मुझ सा, पूर्ण, परिपक्व, शौम्य,
पल-पल निहारता था खुद को मैं उसमें,
जब मुस्काता था दर्पण भी मुझको देखकर,
थोड़ा कर लेता था खुद पर अभिमान मैं।

प्रतिबिम्ब उसकी थी मुझको प्यारी,
संपूर्ण व्यक्तितव उभर आता था उस दर्पण में,
आत्मावलोचन करवाता था वो मुझको,
दुर्गुण सारे गिन-गिन कर दिखलाता था मुझको,
थोड़ा सा कर लेता था सुधार खुद में मैं।

अब टूटा है वो दर्पण हाथों से,
टुकड़े हजार दर्पण के बिखरे हैं बस काँटों से,
छवि देखता हूँ अब भी मैं उस दर्पण में,
व्यक्तित्व के टुकड़े दिखते हैं हजार टुकड़ों में,
पूर्णता अपनी ढ़ूंढ़ता हूँ बिखरे टुकड़ों में।

जुड़ पाया है कब टूटा सा दर्पण,
बिलखता है अब उस टूटे दर्पण का कण-कण,
आहत है उसे देखकर मेरा भी मन,
शौम्य रूप, शालीनता क्या अब मैं फिर देख पाऊँगा?
अपूर्ण बिम्ब अब देखता हूँ दर्पण की कण में।

प्रेरणाशीष

प्रेरणाशीष मंगलकामना

आपका प्रेरणाशीष शिरोधार्य,
प्रशंसा पाता रहूँ करता रहूँ मंगल कार्य,
योग्य खुद को बनाऊँ, रहूँ आपको स्वीकार्य।

कृपा सरस्वती की बरसती रहे,
आपके घरों में लक्ष्मी भी हँसती रहें,
जीवन के उच्च शिखरों मे आप नित चढ़ते रहे।

जीवन प्रगति पथ पर आरूढ़ हो,
धन धान्य सुख से जीवन कलश पूर्ण हो,
सफलता की नई सीढ़ियाँ सबों को मिलती रहे।

मैं युँ ही सांसों पर्यन्त लिखता रहूँ,
मेरी रचनाएँ जीवन की कलश बन निखरे,
मार्गदर्शन करें ये सबका, मेरा जीवन सफल करे।

Friday 26 August 2016

सारांश

सारांश मेरी उपलब्धियों की बस है यही.......

आँखे तेरी बस देखती हैं मुझे,
तेरी धड़कनों की सदाओं में आशियाँ मेरा,
साँसों मे तेरी खुशबु सा मैं बसा,
तन्हाईयों में तेरी, यादों का सफर मुझको मिला...,

सारांश मेरी उपलब्धियों की बस है यही.......

सोचती हो तुम मुझको ही सदा,
तेरी आँसुओं की बूँदों में सावन सा मैं रचा,
तड़प में तेरी मैं ही मैं दिल में बसा,
साँवला सा रंग ही मेरा, तेरी हृदय में जा बसा...,

सारांश मेरी उपलब्धियों की बस है यही.......

तन्हा तू एक पल नहीं, यादें हैं साथ मेरी,
तू जहाँ भी रहे, दुनियाँ आबाद हो यादों से मेरी,
सपनों सा झिलमिल, इक संसार हो तेरा,
आँचल तेरा लहराए, जब बरसात का हो बसेरा....

सारांश मेरी उपलब्धियों की बस है यही.......

तन्हा ये जीवन मेरा, ये तन्हाईयाँ हैं तेरी,
धड़कता है दिल मेरा, इस धड़कन मे है तू बसी,
सोचता हूँ तुझको ही मैं, सोच में तू ही रही,
पल याद के जो तूने दिए, बस वो यादें ही मेरी रहीं...

सारांश मेरी उपलब्धियों की बस है यही........

Thursday 25 August 2016

क्षण भर को रुक

रुक जा ऐ जिन्दगी, जरा क्षण भर को पास तू .......

क्षण भर को ऐ जिन्दगी पहलू में आ मेरे,
सँवार दूँ मैं उन गेसुओं को बिखरे से जो हैं पड़े,
फूलों की महक उन गेसुओं मे डाल दूँ,
उलझी सी तू हैं क्यूँ? इन्हें लटों का नाम दूँ,
उमरते बादलों सी कसक इनमें डाल दूँ.....

रुक जा ऐ जिन्दगी, जरा क्षण भर को पास तू .......

क्षण भर को रुक जा ऐ जिन्दगी,
तेरी पाँवों में गीत भरे पायल मैं बाँध दूँ,
घुघरुओं की खनकती गूँज, तेरे साँसों में डाल दूँ,
चुप सी तू है क्युँ? लोच को मैं तेरी आवाज दूँ,
आरोह के ये सुर, तेरे नग्मों मे डाल दूँ.....

रुक जा ऐ जिन्दगी, जरा क्षण भर को पास तू .......

रुक जा ऐ जिन्दगी क्षण भर ही सही,
आईना तू देख ले, शक्ल तेरी तुझ सी है या नहीं,
मोहिनी शक्ल तेरी, आ इसे शृंगार दूँ,
बिखरी सी तू है क्यूँ? आ दुल्हन सा तुझे सँवार दूँ,
धड़कन बने तू मेरी, आ तुझको इतना प्यार दूँ...

रुक जा ऐ जिन्दगी, जरा क्षण भर को पास तू .......

मुकम्मल मुकाम

न जाने किस मुकाम पे, मुकम्मल होगी ये जिन्दगी?

गुजरे हैं कई मुकाम इस जिन्दगी की पास से,
देखता हूँ मुड़कर मुकाम थी वो कौन सी,
साथ जब तलक रही अजनवी सी वो लगती रही,
अब दूर है वो कितनी मुकाम थी जो खास सी,

न जाने किस मुकाम पे, मुकम्मल होगी ये जिन्दगी?

रफ्ता-रफ्ता उम्र ये, फिसलती गई इन हाथों से,
वक्त बड़ा ये बेरहम, जो छल गई मुकाम पे,
गैरों की इस भीड़ में, अंजाने हुए हम अपने आप से,
धूँध आँखों में लिए मुकाम तलाशती ये जिन्दगी,

न जाने किस मुकाम पे, मुकम्मल होगी ये जिन्दगी?

हाथ आए ना वापस, गुजरे हैं जो मुकाम, पास से,
अब समेटता हूँ मैं, गुजरते लम्हों को हाथ से,
गाता हूँ फिर वो नग्मा, जब गुजरता हूँ मुकाम से,
तसल्ली क्या दिल को देगी, इस मुकाम पर जिन्दगी?

न जाने किस मुकाम पे, मुकम्मल होगी ये जिन्दगी?

Tuesday 23 August 2016

यकीन की हदों के उस पार

यकीन की हदों के उस पार.....

दोरुखें जीवन के रास्ते, यकीन जाए तो किधर,
कुछ पल चला था वो, साथ मेरे मगर,
अब बदलते से रास्तों में छूटा है यकीन पीछे,
भरम था वो मेरे मन का, चलता वो साथ कैसे,
हाँ भटकती यकीन कितनी? हदों के उस पार......

दूसरा ही रुख जिन्दगी का यकीन के उस पार,
टूटते हैं जहाँ, सपनों के विश्वास की दीवार,
रंगतें चेहरों के बिखर कर मिटते हैं जहाँ,
शर्मशार होता है यकीन, खुद अपनी अक्श से ही,
हाँ बिलखती यकीन कितनी? हदों के उस पार......

हदें यकीन की हैं कितनी छोटी,
बढ़ते कदम जिन्दगी के, आ पहुँचे हैं यकीन के पार,
भीगी सी अब हैं आँखें, न ही यकीं पे एतबार,
बेमानी से पलते रिश्ते, झूठा सा है सबका प्यार,
हाँ छोटी सी है यकीन कितनी? हदों के उस पार......

Wednesday 17 August 2016

पहर दो पहर

पहर दो पहर,
हँस कर कभी, मुझसे मिल ए मेरे रहगुजर,
आ मिल ले गले, तू रंजो गम भूलकर,
धुंधली सी हैं ये राहें, आए न कुछ भी नजर,
आ अब सुधि मेरी भी ले, इन राहों से भी तू गुजर....

पहर दो पहर,
चुभते हैं शूल से मुझको, ये रास्तों के कंकड़,
तीर विरह के, हँसते हैं मुझकों बींधकर,
ये साँझ के साये, लौट जाते हैं मुझको डसकर,
ऐ मेरे रहगुजर, विरह की इस घड़ी का तू अन्त कर......

पहर दो पहर,
कहती हैं ये हवाएँ, आती हैं जो उनसे मिलकर,
है बेकरार तू कितना, वो तो है तुझसे बेखबर,
आँखों में उनके सपने, तू उन सपनों से आ मिलकर,
ए मेरे रहगुजर, उन सपनों से न कर मुझको बेखबर.....

पहर दो पहर,
लौट जाती हैं उनकी यादें, कई याद उनके देकर,
बंध जाता है फिर ये मन, उन यादों में डूबकर,
रोज मिलता हूँ उनसे, यादों की वादी में आकर,
ऐ मेरे रहगुजर, इन यादों से वापस न जा तू लौटकर....